‘अंवरा तरे’ अक्षय नवमी पर सुलगेगा अहरा, जमेगी भोज की पंगत, कहीं पूड़ी-सब्जी तो कहीं बाटी-चोखा की सुवास
वाराणसी में अक्षय नवमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। इस दिन 'अंवरा तरे' अहरे सुलगेंगे और लोग पारंपरिक भोजन का आनंद लेंगे। युवा पीढ़ी भी सनातन परंपराओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है, जिससे आधुनिकता और आस्था का संगम देखने को मिल रहा है। कार्तिक मास में आंवला, तुलसी जैसे तत्वों का महत्व बढ़ जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हैं।

आस्था, श्रद्धा और परंपरा के बीच स्वास्थ्य की चर्चा होगी और लोग अमृत तुल्य आंवला के महात्म्य से अवगत होंगे।
जागरण संवाददाता, वाराणसी। नए युग की पीढ़ियां भले ही दाल-भात लौकी की तरकारी से आगे बढ़ पिज्जा-बर्गर तक पहुंच चुकी हों, परंतु कुछ पर्व उन्हें नितांत सनातन परंपरा से जोड़ सनातन की वैविध्यता व वैज्ञानिकता से परिचित कराते हैं।
इसी तरह का एक आरोग्य पर्व अक्षय नवमी, कार्तिक शुक्ल नवमी गुरुवार को मनाई जाएगी, जब ‘अंवरा तरे’ अहरे सुलगेंगे और परिवार, कुटुंब, इष्ट-मित्रों संग जमेगी भोज की पंगत। कहीं बाटी-चोखा दाल तो कहीं पूड़ी-सब्जी, खीर की सुवास वातावरण में होगी, आस्था, श्रद्धा और परंपरा के बीच स्वास्थ्य की चर्चा होगी और लोग अमृत तुल्य आंवला के महात्म्य से अवगत होंगे।
आंवले की छांव में होने वाले इस नितांत वैज्ञानिक और भावना प्रधान परंपरा का उल्लास और तैयारी नई पी़ढ़ी के युवाओं में भी देखने को मिल रहा है और तदुनसार वे इसकी तैयारियों में लग गए हैं, बुधवार को मोबाइल फोंन पर अपने मित्रों से ‘अंवरा तरे’ वाली पार्टी की चर्चा कर जगह सुनिश्चित करते देखे गए।
इसे इंटरनेट मीडिया का बढ़ता प्रभाव कहें या फिर हर रोज भौतिकता की चट्टान से टकराते मन की थकान का ठहराव, कि बीते कोई दो-ढाई दशकों में कम से कम देश की आध्यात्मिक नगरी काशी में खासकर यहां की युवा पीढ़ी में अपनी परंपराओं के प्रति आग्रह का भाव दिख रहा है। युवाओं में अपने रस्म-रिवाजों, पर्व त्योहारों यहां तक कि रोजमर्रा के व्यवहारों को लेकर लगाव की गांठ ज्यादा मजबूत होती गई है।
देव दीपावली, डाला छठ, गोपाष्टमी, अक्षय नवमी ही नहीं पितृपक्ष जैसे अनुष्ठानों के प्रति उनकी सोच ही नहीं बदली, भागीदारी का प्रतिशत भी बढ़ा है। हनुमत जयंती, सावनी मेलों से लगायत शिवरात्रि पर बाबा विश्वनाथ के दर्शनार्थ लगने वाली कतार निरंतर लंबी हुई है।
यह बात अलग है कि संकट मोचन बाबा की सिंदूरी अथवा काशी विश्वनाथजी की भस्म भाल पर सजाने के लिए पीतांबरी जैसे पारंपरिक परिधानों का बंधन नहीं रहा, जींस और लिनेन वालों के भाल पर भी विभूति (भभूत और टीका) सजने लगी है। संस्कृत विश्वविद्यालय, औसानगंज बाड़ा, सारनाथ, वेदव्यास, रामनगर जैसे क्षेत्रों में आमलक वृक्ष की कतारें भी बीते वर्षों में घनी हुई हैं।
काया की प्रतिरक्षण प्रणाली को मजबूत बनाने के सूत्र हैं कार्तिकी पर्व
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयुर्वेद संकाय के प्रो. चंद्रशेखर पांडेय बताते हैं कि कार्तिक मास के लगभग सभी पर्व यहां तक कि मासव्यापी कार्तिकी स्नान का क्रम भी भीषण शीतकाल के आगमन के पूर्व काया की प्रतिरक्षण प्रणाली को मजबूत बनाने के सूत्र हैं। ये आयुर्वेद के स्थापित सिद्धांतों का प्रायोगिक उपादान है।
कफ, पित्त, वात आदि त्रिदोषों के प्रकोप के इस काल के पहले मास भर की स्नान शृंखला से जहां शरीर का अनुकूलन होता है, वहीं इन्हीं त्रिदोषी विकारों के शमन में आंवला, तुलसी व गन्ने जैसे कारकों से पूजन के जरिए परिचय बढ़ाना व प्रसाद के रूप में अपनाना वास्तव में शरीर को औषधीय तत्त्वों से प्रतिरिक्षित करना है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।