भारत में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जिससे हर साल लगभग 20 लाख लोग समय से पहले मौत के शिकार हो रहे हैं। आईआईटी कानपुर में स्थापित आत्मन सेंटर वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए काम कर रहा है। इस केंद्र ने वायु प्रदूषण के स्रोतों की पहचान करने के लिए एक सस्ता और त्वरित परिणाम देने वाला सिस्टम विकसित किया है।
नई दिल्ली। सर्दी के मौसम की शुरुआत के साथ ही उत्तर भारत के गंगा-यमुना क्षेत्र में वायु प्रदूषण बढ़ने लगा है। इन दिनों दिल्ली और एनसीआर में तो सांस लेना भी दूभर हो रहा है। स्थिति कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण की बढ़ती समस्या की वजह से भारत में हर साल लगभग 20 लाख लोग समय पूर्व मृत्यु के शिकार हो रहे हैं।
इससे बचाव के लिए आईआईटी कानपुर में आत्मन (एडवांस्ड टेक्नोलॉजीज फार एयर क्वालिटी आई इंडिकेटर) उत्कृष्टता केंद्र की स्थापना की। यह केंद्र उप्र व बिहार के 1400 विकास खंडों में स्थापित निगरानी उपकरणों से वायु गुणवत्ता का डाटा एकत्र कर रहा है। फिर एआई की मदद से विश्लेषण कर वायु गुणवत्ता में सुधार का माडल विकसित कर रहा है।
आईआईटी में कोटक स्कूल ऑफ सस्टेनबिलिटी की स्थापना भी गई है, जो शहरों के लिए टिकाऊ जीवन शैली का मॉडल विकसित करेगा। इन दोनों केंद्रों को स्थापित करने में आत्मन सेंटर के प्रमुख और कोटक स्कूल ऑफ सस्टेनबिलिटी के डीन प्रो. सच्चिदानंद त्रिपाठी की अहम भूमिका है। वह मानते हैं कि आपात स्थिति में ग्रेप लागू करने से प्रदूषण का समाधान नहीं होगा।
मूलत: वाराणसी के रहने वाले प्रो. त्रिपाठी ने आईआईटी बीएचयू से बीटेक की डिग्री ली है। इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग से एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग में पीएचडी की है। वर्ष 2014 में पृथ्वी, वातावरण, समुद्र और ग्रह विज्ञान क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें प्रतिष्ठित शांतिस्वरूप भटनागर अवार्ड दिया गया। वह कई राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के फेलो भी हैं। दैनिक जागरण के संवाददाता अखिलेश तिवारी ने उनसे विस्तृत बातचीत की...
समूचे उत्तर भारत में इस बार भी वायु प्रदूषण के संकेत चिंताजनक हैं। आत्मन सेंटर की रिपोर्ट क्या कह रही है?
यह सही है कि इस साल भी नवंबर के पहले सप्ताह में वायु गुणवत्ता में गिरावट आई है। यह गिरावट पूर्वी पाकिस्तान से लेकर गंगा बेसिन के भीतरी हिस्से तक देखी गई है। अक्टूबर तक का डाटा बताता है कि भारत के पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में आग लगने की घटनाएं कम हुई हैं। इसके पहले के वर्षों में ऐसी घटनाएं बहुत ज्यादा हुआ करती थीं। पिछले दस साल में केंद्र सरकार की ओर से जो प्रभावी कदम उठाए गए हैं, उससे स्थिति सुधरी है। कमीशन फार एयर क्वालिटी मेजरमेंट जैसी संस्थाओं का गठन करने से लाभ मिला है। इसके बावजूद अगर वायु गुणवत्ता सूचकांक दो दिन के लिए भी 400 के ऊपर जा रहा है तो यह अत्यधिक चिंताजनक है।
वायु प्रदूषण व मौसम का क्या रिश्ता है?
वायु प्रदूषण और मौसम प्रभाव पर देश में लंबे समय से चर्चा हो रही है, लेकिन अभी विदेश में कई अच्छे शोध कार्य हुए हैं, जिनसे साबित हो गया है कि वायु प्रदूषण का मौसम पर सीधा असर पड़ रहा है। वायु प्रदूषण बढ़ने से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ी है और इससे मौसम में तीव्र बदलाव हुए हैं। अचानक और अत्यधिक सर्दी या वर्षा अथवा गर्मी हो रही है। अचानक जब मौसम तेजी से सर्द हो जाता है तो इसका असर वायु प्रसार क्षमता पर पड़ता है।
इससे पृथ्वी की सतह से उठने वाली हानिकारक गैसों को ऊपर जाने का मौका नहीं मिलता और वह वायुमंडल के निचले स्तर पर एकत्र होने लगती हैं। मौसम अक्टूबर-नवंबर में तेजी से बदलता है। इससे वायु प्रदूषण की स्थितियों को समर्थन मिलता है।
वायु प्रदूषण के सूचकांक के आधार पर क्या प्रदूषणकारी लोग, यानी उद्यम या कार्यक्षेत्र की पहचान की जा सकती है?
हवा कणों में मौजूद रसायनों का विश्लेषण करने से उद्यम या कार्यक्षेत्र की पहचान की जा सकती है, लेकिन इस जांच का जो पारंपरिक तरीका है उसमें दो से ढाई साल का समय लगता है। जांच प्रक्रिया भी बेहद खर्चीली है। आईआईटी में स्थापित आत्मन सेंटर ने इसका सस्ता और त्वरित परिणाम देने वाला सिस्टम विकसित किया है, जिसके तहत मोबाइल लैब की मदद से 10 दिन में परिणाम पाया जा सकता है। इस विधि से वायु में मौजूद जैविक प्रदूषण की पहचान भी संभव हो गई है जो भारत के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है।
मोबाइल लैब की स्थापना में भी अधिक खर्च है, इसे कम करने के लिए सेंसर का प्रयोग किया गया है, जिससे कुछ लाख रुपये खर्च करके एआइ आधारित सेंसर से डाटा मिलने लगा है। अब यह पता करना आसान हो गया है कि किसी भी शहर में कब और किस क्षेत्र से किस तरह का वायु प्रदूषण उत्पन्न हो रहा है। प्रदूषण की प्रकृति भी पहचानी जा सकती है। भविष्य में प्रशासन व शासन में बैठे लोग अपने राज्य व शहरों की प्लानिंग करने में भी इसकी मदद ले सकेंगे और प्रदूषण नियंत्रण के ठोस कदम उठाने आसान होंगे।
वायु प्रदूषण की मौजूदा स्थिति से निपटने में क्या मौजूदा नियंत्रणकारी उपाय, नीतियां प्रभावी हैं? या नए उपायों की जरूरत है?
वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए नीतियां लाई गई हैं, लेकिन उनका कारगर अनुपालन अभी बाकी है। हमारे पास अभी वायु प्रदूषण का समग्र डाटा उपलब्ध नहीं है। इसे मापने के लिए जो सिस्टम प्रयोग किया जा रहा है वह विदेशी उपकरणों पर आधारित है। बहुत महंगा होने की वजह से पूरे देश के वायु प्रदूषण की तस्वीर सामने नहीं आ रही है। एयरशेड के स्तर पर विश्लेषण की जरूरत है।
सीजन के अनुसार, बड़े एयरशेड और माइक्रो एयरशेड कैसे हैं। उनकी जानकारी मिलने पर ही नियंत्रण उपायों को प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकेगा। ड्रोन इंटीग्रेटेड सेंसर के साथ अपने निगरानी सिस्टम को व्यापक बनाना होगा। शिक्षण संस्थानों में भी हमें वायु गुणवत्ता संबंधी तकनीक की शिक्षा देने की जरूरत है, जिससे ऐसे इंजीनियर व तकनीशियन मिल सकें जो निगरानी सिस्टम का हिस्सा बनकर काम करें।
कहा जाता है कि औद्योगीकरण और वायु प्रदूषण का चोली-दामन वाला रिश्ता है, यानी अधिक उद्योग और अधिक पर्यावरण को नुकसान। क्या बचने का कोई तरीका है?
औद्योगीकरण अत्यंत आवश्यक है। भारत की इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए उद्योगों को संचालित करना ही होगा, लेकिन इसके लिए हमें प्रदूषण नियंत्रण नियामक व्यवस्था को प्रभावी बनाना होगा। अमेरिका के कैलिफोर्निया से सीखने की जरूरत है। वहां तीव्र औद्योगीकरण हुआ। उन्होंने 50 साल पहले कैलिफोर्निया एयर रिसोर्स बोर्ड बनाया।
उनकी भौगोलिक स्थिति भी इंडो गैंजेटिक रीजन की तरह ही है। इस बोर्ड में आज 2200 से ज्यादा लोग काम करते हैं, जिनमें इंजीनियर, साइंटिस्ट, तकनीशियन और लीगल एडवाइजर हैं, जो नियमों का उल्लंघन कराने वालों को अदालत में दंड दिलाते हैं। इसका असर हुआ कि तीव्र विकास के बावजूद वहां प्रदूषण नियंत्रित अवस्था में है।
क्या कूड़ा प्रबंधन में विफलता भी पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ा रहा है?
कूड़ा प्रबंधन की दिशा में पूरे देश में अभी बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। कोटक स्कूल आफ सस्टेनबिलिटी और कानपुर नगर निगम मिलकर इस दिशा में काम कर रहे हैं। हम लोग एक माडल विकसित करने की कोशिश में है, जिससे शहर को कूड़ा मुक्त व्यवस्था मिल सके। कूड़ा प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है। यह कूड़ा स्थलों की भूमि को प्रदूषित करने के साथ ही हानिकारक ओजोन गैस मिथेन का प्रमुख स्रोत है। कूड़ा या पराली जलाने से तो पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंच रहा है।
ऐसा लग रहा है कि प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट अकेले लड़ाई लड़ रहा है? हम लोग साल दर साल शीर्ष अदालत में एक जैसी सुनवाई के आदी होते जा रहे हैं?
प्रदूषण के खिलाफ जंग में सुप्रीम कोर्ट की निरंतर और प्रभावी भूमिका है, लेकिन मेरा मानना है कि समाचार माध्यमों ने पिछले कई दशक के दौरान ऐसा वातावरण निर्मित किया है, जिससे सभी संस्थाओं का ध्यान इस समस्या की ओर गया है। जैसा मैंने पहले कहा कि पिछले सात साल से वायु गुणवत्ता सूचकांक में उत्तरोत्तर सुधार दिख रहा है। यह संकेत है कि समाज व देश का नजरिया प्रदूषण के प्रति बदल रहा है।
वायु प्रदूषण के कारण आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है?
वायु प्रदूषण का आर्थिकी पर ठीक-ठाक असर पड़ता है। कुछ लोग कह सकते हैं कि जब विकास होगा तो प्रदूषण बढ़ेगा, लेकिन आज के दौर में ऐसा कहना उचित तर्क नहीं है। आज हमारे सामने ऐसे उदाहरण हैं जहां लोगों ने पर्यावरण को संरक्षित करते हुए विकास का लक्ष्य हासिल किया है।
सड़क, भवन व पुल निर्माण के कार्यों से भी वायु प्रदूषण अधिक होता है, क्या अधिक टिकाऊ सड़कों का निर्माण विकल्प है?
निर्माण कार्यों में हमें गुणवत्ता पर अधिक जोर देने की जरूरत है। अगर टिकाऊ निर्माण होगा तो बार-बार निर्माण की जरूरत नहीं होगी। इससे प्रदूषण में कमी आएगी। निर्माण के समय अगर सभी मानकों का पालन किया जाए तो प्रदूषण को न्यूनतम करने में सफलता मिलेगी। सड़कों की इंजीनियरिंग ऐसी हो, जिससे वह बार-बार नहीं टूटे। इससे बार-बार निर्माण के समय होने वाला प्रदूषण कम होगा और टूटी सड़कों पर वाहनों के चलने से जो अधिक प्रदूषण होता है वह भी कम हो जाएगा।
परिवहन साधनों से होने वाले वायु प्रदूषण को कैसे रोका जाए, भारत में वाहनों की संख्या हर साल तेजी से बढ़ रही है, इसे भी वायु प्रदूषण का बड़ा कारण माना जाता है?
सामुदायिक परिवहन व्यवस्था को मजबूत किया जाना चाहिए। इसके प्रयोग के लिए सभी को प्रेरित किया जाए। इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग के लिए नागरिकों को प्रोत्साहित किया जाए। विश्व के कई देशों ने ऐसा किया है। निजी वाहनों का प्रयोग कम से कम हो ऐसी व्यवस्था लागू करने की जरूरत है। बड़े टूर ऑपरेटर, स्कूल वाहनों को सीधे इलेक्ट्रिक वाहनों पर डाल दिया जाए।
क्या एनसीआर के साथ पूरे इंडो गैंजेटिक क्षेत्र में पड़ने वाले राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में भी ग्रेप लागू करने से प्रदूषण में कमी आ सकती है?
ग्रेप को कई बार लागू किया गया, लेकिन इसके वैसे फायदे नहीं हैं, जैसी आवश्यकता है। जब हम आपात स्थिति में कोई उपाय लागू करने के बारे में सोचेंगे तो समस्या का स्थायी समाधान नहीं होगा। देखिए, एक बात ध्यान रखें कि वायु गुणवत्ता एक प्रबंधन से जुड़ी स्थिति है। इस समस्या का कभी पूरी तरह से समाधान नहीं मिलता, क्योंकि अर्थतंत्र अत्यधिक विविधता वाला है। इसलिए हमारा रिस्पांस भी डायनमिक होना चाहिए। हमारा प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि ज्यादातर समय वायु गुणवत्ता अच्छी रहे। 365 में 340 या 345 दिन वायु गुणवत्ता अच्छी रहनी ही चाहिए। इसलिए प्रबंधन भी वैसा ही करने की जरूरत है।
प्रदूषण दूर करने का पूरा जिम्मा सरकार पर थोपना कहां तक उचित है? क्या सामुदायिक जिम्मेदारी का भी कोई माडल हो सकता है?
प्रदूषण के लिए किसी एक पर जिम्मेदारी डालना ठीक नहीं है। सभी को मिलकर काम करना होगा। जैसा मैंने पहले कहा कि जब समाचार माध्यमों ने जागरूकता का माहौल बनाया तो नागरिकों से लेकर प्रशासन व शासन सभी का सोच बदला और सकारात्मकता बढ़ी है। प्रदूषण की समस्या पर अब आम नागरिक से लेकर अधिकारी व न्यायपालिका तक सभी वर्ग संवेदनशील दिखाई दे रहे हैं।
एक विज्ञानी एवं चिंतक के रूप में आपको क्या लगता है कि प्रदूषण से लड़ाई में हम कहां हार रहे हैं?
प्रदूषण की स्थितियों में पिछले सात-आठ साल में निरंतर सुधार हुआ है। हालांकि यह सुधार आवश्यकता से बहुत कम है। फिर भी उम्मीद है कि आगे और तेजी से प्रयास किए जाएंगे। वायु गुणवत्ता के हाई क्वालिटी डाटा मिलने से ठोस उपाय लागू करना आसान हो जाएगा। जैसा दिख रहा है कि पराली जलाने की घटनाओं में भी कमी आई है। नागरिक और सरकार सभी स्तर पर जागरूकता बढ़ी है जो आशाजनक है।
भारत में प्रदूषण का मानव की कार्यक्षमता पर क्या असर पड़ रहा है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए अध्ययन के अनुसार, फेफड़ों के अलावा अन्य अंगों को तो प्रभावित कर ही रहे हैं, इससे भी कहीं ज्यादा यह पता चला है कि मानव की कुल कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ रहा है, जो भारत में तीन सप्ताह से लेकर एक महीने तक की कार्यक्षमता घट रही है। मानसिक स्वास्थ्य और गर्भस्थ शिशुओं पर घातक असर का आकलन किया जा रहा है। प्रदूषण की वजह से एक अनुमान है विश्व में प्रतिवर्ष 80 से 90 लाख लोग समय पूर्व मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं। भारत में भी यह संख्या 20 लाख तक पहुंच चुकी है।
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