राज कुमार सिंह। महागठबंधन पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में सत्ता की दौड़ में राजग से एक प्रतिशत से भी कम वोटों और 15 सीटों से पिछड़ गया था तो हार का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोड़ा गया था। तब 70 सीटों पर लड़ी कांग्रेस 19 ही जीत पाई थी। वाम दलों का प्रदर्शन भी उससे बेहतर रहा। कांग्रेस इस बार और भी कमजोर कड़ी साबित हुई। राजद और कांग्रेस में अंत तक औपचारिक सीट बंटवारा नहीं हो पाया। परिणामस्वरूप दस से भी ज्यादा सीटों पर दोस्ताना मुकाबला हुआ, पर महागठबंधन और राजग के बीच मत प्रतिशत एवं सीटों में भारी अंतर बताता है कि अतीत से सबक सीखने के बजाय और अधिक गलतियां की गईं।

गठबंधन राजनीति में दलगत हितों के बीच ही संतुलन और समन्वय की राह निकालनी पड़ती है। चूंकि शह-मात की तमाम अटकलों के बीच भी राजग यह काम कर पाया, इसलिए ‘सत्ता विरोधी’ भाव के बजाय ‘सत्ता समर्थक’ चुनावी लहर दिखी। पिछले चुनाव में मामूली अंतर से सत्ता की दौड़ में पिछड़ने के बाद महागठबंधन को जमीनी राजनीति में जो काम करना चाहिए था, उसके बजाय वह आपसी खींचतान में ही लगा रहा। इसे बेहतर सामाजिक समीकरण से ही पाटा जा सकता था, लेकिन इस दिशा में कुछ खास नहीं किया जा सका।

मात्र 15 सीटें पाने वाले मुकेश सहनी को जिस तरह उप मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया गया, उससे महागठबंधन को चुनावी नुकसान ही हुआ। 61 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस के नेता और समर्थक तो बिदके ही, कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाने वाले मुसलमान और दलित भी निराश हुए। 143 सीटों पर लड़े राजद ने जिस तरह 52 यानी लगभग 36 प्रतिशत यादव उम्मीवार उतारे, उससे अन्य ओबीसी जातियों, खासकर ईबीसी में नकारात्मक संदेश गया। मुख्यत: यादव-मुस्लिम जनाधारवाला राजद अन्य वर्गों को ज्यादा टिकट देकर अपना और महागठबंधन का जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर सकता था।

अपने गठबंधन और सीट बंटवारे से राजग सर्वसमाज के प्रतिनिधित्व का संदेश देने में सफल रहा, लेकिन महागठबंधन ऐसा नहीं कर पाया। तेजस्वी जंगलराज के बोझ से मुक्त नहीं हो पाए और उसकी पुनरावृत्ति का डर दिखा कर राजग एक बार फिर बाजी मार ले गया। राजग के मंच से लालू परिवार को महाभ्रष्ट परिवार भी कहा गया, क्योंकि लगभग पूरा परिवार ही भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी शिकंजे में है। बेशक चुनाव में कई मुद्दे काम करते हैं, लेकिन कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार ऐसे मुद्दे हैं, जिनसे जनता सीधे प्रभावित होती है। इसलिए इन मुद्दों पर मतदाता आम तौर पर समझौता नहीं करते।

उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव ने महागठबंधन सरकार के दौरान दी गई नौकरियों का श्रेय लेते हुए मान लिया कि वे युवाओं की पसंद बन जाएंगे, पर स्वाभाविक ही मुख्यमंत्री को उस श्रेय से वंचित नहीं कर पाए। कांग्रेस कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल के आजमाए हुए ‘गारंटी कार्ड’ पर जोर देना चाहती थी, लेकिन तेजस्वी ‘राग-नौकरी’ आलापते रहे। राज्य-दर-राज्य रेवड़ियां चुनावी राजनीति में निर्णायक साबित हो रही हैं। नीतीश ने भी ठीक चुनाव से पहले सवा करोड़ से भी अधिक महिलाओं के बैंक खाते में 10-10 हजार रुपये ट्रांसफर करने समेत कई लोकलुभावन घोषणाएं कीं।

लोकलुभावन वायदे तो तेजस्वी ने भी किए, लेकिन बाजी बेहतर ट्रैक रिकार्ड वाले नीतीश के हाथ रही। लोगों ने ‘बन सकने वाली’ सरकार के बजाय वर्तमान सरकार पर भरोसा करना बेहतर समझा। फिर तेजस्वी आखिर तक नहीं बता पाए कि अपने वायदे पूरे करने के लिए उनका ब्लूप्रिंट क्या है। राजग की तर्ज पर तेजस्वी ने महागठबंधन का विस्तार तो किया, लेकिन एकजुट तस्वीर पेश करने में विफल रहे। उन्होंने महागठबंधन के घोषणापत्र को ‘तेजस्वी प्रण’ का नाम देकर खुद को प्रोजेक्ट करने की कवायद ज्यादा की। वे महागठबंधन का स्वाभाविक मुख्यमंत्री चेहरा थे, लेकिन इस पर कांग्रेस की सहमति में विलंब का नकारात्मक असर पड़ा।

दरअसल महागठबंधन के दो बड़े दल: राजद और कांग्रेस चुनाव प्रचार में एक साथ दिखने के बजाय परस्पर प्रतिस्पर्धा करते ज्यादा नजर आए। राहुल गांधी ने जनाधार बढ़ाने के लिए ईबीसी पर फोकस करते हुए दस सूत्रीय एजेंडा घोषित किया था, पर तेजस्वी के घोषणा पत्र में उसे ज्यादा महत्व नहीं मिला। सीट बंटवारे से लेकर घोषणापत्र और चुनावी मुद्दों तक महागठबंधन इस बार दिग्भ्रमित दिखा। बिहार अचानक गरीब राज्य नहीं बना। पलायन भी नीतीश राज में शुरू नहीं हुआ। आज भी जंगलराज चुनावी मुद्दा बनने से साफ है कि पिछले 20 साल में हालात बेहतर हुए हैं। इसके बावजूद ये गंभीर चुनावी मुद्दे बन सकते थे, लेकिन महागठबंधन की ओर से राहुल गांधी ने भी इनके बजाय ‘वोट चोरी’ को मुद्दा बनाया।

वोट अधिकार यात्रा निकालने के बाद लगभग दो महीने तक बिहार में उनकी अनुपस्थिति ने भी सवाल खड़े किए। विधानसभा चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि जनता की अदालत ने वोट चोरी के आरोप को खारिज कर दिया। 20 साल के नीतीश राज के बाद भी महागठबंधन को मिली करारी हार उसके मनोबल पर आघात के साथ उसके भविष्य पर भी सवालिया निशान लगाने वाली है। पिछली बार सबसे बड़ा दल बनकर उभरा राजद इस बार आधे से भी कम रह गया तो मुख्यत: दलित जनाधार वाली लोजपा (आर) कांग्रेस से भी बड़ा दल बन गई। स्पष्ट है कि महागठबंधन के लिए यह महासंकट की घड़ी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)