ए. सूर्यप्रकाश। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया है। इस संकल्प की पूर्ति में उन्होंने पांच प्रण लेने का आह्वान भी किया है। इनमें एक प्रण औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारा पाना भी है। इसी कड़ी में उन्होंने कहा है कि अगले दस वर्षों के भीतर थामस बाबिंगटन मैकाले की विरासत को तिलांजलि देनी होगी। असल में मैकाले कुछ और नहीं, बल्कि अंग्रेजियत का एक प्रतीक है। इसी प्रतीक से मुक्ति पाने की प्रधानमंत्री हाल में दो बार चर्चा भी कर चुके हैं। यहां तक कि अयोध्या में राम मंदिर के ध्वजारोहण कार्यक्रम में भी उन्होंने इस संकल्प का उल्लेख किया।

मैकाले अंग्रेजी राज में सार्वजनिक शिक्षा के निदेशक थे। अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने और भारतीय भाषाओं, संस्कृति और सभ्यता की शक्तियों को नष्ट करने के लिए मैकाले ने 1835 में एक विस्तृत योजना बनाई। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद इस योजना के तहत देशभर में कान्वेंट स्कूलों की बाढ़ आ गई और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा उपेक्षित होती गई। मैकाले की रणनीति कई पहलुओं पर केंद्रित थी। उनका कहना था कि संस्कृत एक ‘व्यर्थ’ की भाषा है और इसे छोड़ देना चाहिए।

इसके बजाय भारतीयों को अंग्रेजी सिखाई जानी चाहिए, क्योंकि यह एक श्रेष्ठ सभ्यता की भाषा है और विज्ञान, इतिहास, दर्शन आदि में आधुनिक ज्ञान की कुंजी है। मैकाले के अनुसार भारतीय भाषाओं में ‘न तो साहित्यिक और न ही वैज्ञानिक जानकारी’ है और वे ‘दरिद्र और अशिष्ट’ हैं। उन्होंने कहा कि संस्कृत और अरबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का अध्ययन करने के बाद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक बुक शेल्फ भारत और अरब के समस्त स्थानीय साहित्य से अधिक मूल्यवान है।’

मैकाले का मानना था कि संस्कृत में उपलब्ध पुस्तकों से एकत्रित ऐतिहासिक जानकारी इंग्लैंड के प्राथमिक स्कूलों की मामूली सामग्री के समक्ष भी कहीं नहीं ठहरती। स्पष्ट है कि उन्हें इस बात का कोई ज्ञान नहीं था कि भारतीयों ने शून्य की खोज की थी। भारत में आर्यभट्ट और भास्कराचार्य जैसे अद्भुत गणितज्ञ और खगोलज्ञ थे। वह भी तब, जब ब्रिटिश गुफाओं में रहने और जंगली जानवरों के शिकार पर आश्रित थे।

आर्यभट्ट अपनी ज्यामिति, त्रिकोणमिति के अलावा पृथ्वी, चंद्रमा और ग्रहों के व्यास की सटीक गणना के लिए जाने जाते हैं, जो उन्होंने 1,500 साल पहले की थी। उन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहणों की व्याख्या की और वर्ष में 365 दिनों की संख्या का सटीक आकलन किया। भास्कराचार्य दिग्गज गणितज्ञ थे। उनके आविष्कारों में कलन (कैलकुलस) और ग्रहों की अंडाकार कक्षा शामिल थी, जो उन्होंने 900 साल पहले की थी। मैकाले जैसा अज्ञानी ही इन उपलब्धियों को अनदेखा कर सकता था।

मैकाले ने भारतीयों को अंग्रेजी रंग में रंगने का एक सुनियोजित अभियान चलाया। उनकी रणनीति यह थी कि हमें ऐसे लोगों का वर्ग तैयार करना है, जो मूल रूप से तो भले ही भारतीय हों, लेकिन उनके रंग-ढंग पूरी तरह अंग्रेजों जैसे हों। उन्होंने अंग्रेजी और अंग्रेज संस्कृति को श्रेष्ठताबोध के रूप में स्थापित करने का अभियान छेड़ा। तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक ने मैकाले के अभियान को परवान चढ़ाने के लिए मार्च 1835 में एक आदेश जारी किया कि सरकारी धन का उपयोग केवल अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए किया जाएगा।

हालांकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों छात्रों ने कभी नहीं समझा कि पढ़ाई के जरिये किस तरह उनका ब्रेनवाश किया जा रहा है। बेंगलुरु में स्कूली शिक्षा के दौरान मुझे खुद इसकी अनुभूति हुई। जैसे समूचा पाठ्यक्रम अंग्रेजियत पर केंद्रित होता था और पूरा परिवेश भी इंग्लैंड के किसी स्कूल सरीखा था। वार्षिक परीक्षाएं दिसंबर के आरंभ में होती थीं। इसके बाद एक महीने की क्रिसमस और नववर्ष की छुट्टी होती थी। सभी छात्रों ने क्रिसमस कैरोल सीखे। जबकि हमारी मातृभाषा कन्नड़ थी, लेकिन स्कूल में कोई कन्नड़ नहीं बोलता था। हमारे इतिहास और सामाजिक विज्ञान की कक्षाओं में रामायण, महाभारत या भारत के महान ग्रंथों और गाथाओं का कभी कोई उल्लेख नहीं होता था, लेकिन हमें रोम के निर्माण और जुड़वां भाई रोमुलस और रेमस के बारे में जरूर बताया जाता था। हमें अर्जुन के शौर्य या उनके गांडीव या भीम के कौशल के बारे में कभी नहीं बताया गया, मगर किंग आर्थर और उसकी जादुई तलवार एक्सकैलिबर के किस्से खूब सुनाए जाते थे।

समय का फेर देखिए कि अंग्रेजियत में रंगे ये अधिकांश बच्चे ही कालांतर में प्रमुख पदों पर कमान संभालते गए। राजनीति से लेकर सशस्त्र बलों, प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मीडिया में उनका ही वर्चस्व स्थापित होता गया। आकांक्षी शहरी वर्ग मैकाले के इस सब्जबाग में फंसता गया, जिसने इसे एक अच्छी जीवनशैली का आधार समझा। एक तरह से वे भारतीय सभ्यता की स्मृतियों को दफन करने की साजिश में षड्यंत्रकारी ही बन गए। मैं भाग्यशाली रहा कि बाद में एक ‘भारतीय’ स्कूल में पढ़ने का अवसर मिला, जहां स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, महाभारत और रामायण आदि के संपर्क में आया। यह भी कम दुख की बात नहीं कि स्वतंत्रता के बाद अधिकांश समय सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस और नेहरूवादी और कम्युनिस्टों ने मैकाले के मानस पुत्रों को ही बढ़ावा दिया, जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति की निंदा करते हुए फर्जी पंथनिरपेक्ष आख्यान गढ़ा।

भारत को अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को पुनर्स्थापित करने के लिए 2014 में नरेन्द्र मोदी के सतारूढ़ होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। दुख की बात है कि मोदी से पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने मैकाले की मंशा के विध्वंसकारी प्रभावों का आकलन तक नहीं किया। अब जब मोदी ने इस भयानक समस्या की पहचान की है, तो भारत से प्रेम करने वाले सभी भारतीयों को यह संकल्प लेना चाहिए कि अगले दस वर्षों में मैकाले के प्रेत से पूरी तरह मुक्ति पाई जाए और भारतीय भाषाओं एवं संस्कृति का अपेक्षित महिमामंडन हो।

(लेखक प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)