बलबीर पुंज। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय का निहितार्थ क्या है? शीर्ष अदालत की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 1967 के फैसले को 4-3 से पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि यह अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं है। यह स्थापित सत्य है और स्वयं एएमयू की आधिकारिक वेबसाइट में इसका उल्लेख है कि यह विश्वविद्यालय सर सैयद अहमद खान का विचारबीज है। 17 अक्टूबर 1817 को जन्मे सर सैयद अहमद खान 1838 में ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े और 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजों की सहायता की। उनका विश्वास जीतकर वह 1867-76 के बीच ब्रितानी अदालत में न्यायाधीश रहे।

अप्रैल 1869 में सर सैयद को इंग्लैंड में ‘आर्डर आफ द स्टार आफ इंडिया’ से नवाजा गया, तो 1887 में लार्ड डफरिन ने उन्हें ‘सिविल सेवा आयोग’ का सदस्य बना दिया। ‘खान बहादुर’ नाम से प्रख्यात सर सैयद की वफादारी से प्रमुदित ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें 1898 में ‘नाइट’ की उपाधि दी। 1885 में जब कांग्रेस की स्थापना के साथ देश में पूर्ण स्वतंत्रता और लोकतंत्रीय व्यवस्था की मांग उठनी शुरू हुई, तब ब्रितानियों के प्रति निष्ठावान सर सैयद ने मुस्लिमों को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने ‘हिंदू-मुस्लिम’, ‘हिंदी-उर्दू’, ‘संस्कृत-फारसी’ का मुद्दा उठाकर मुसलमानों की मजहबी भावनाओं के जरिये विचार स्थापित किया कि मुसलमान का कर्तव्य है कि वह अंग्रेजों के निकट और कांग्रेस से दूर रहे। इस अभियान में वह काफी हद तक सफल भी हुए, क्योंकि मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय मुख्यधारा, चेतना से कट चुका था और कालांतर में वह पाकिस्तान के लिए आंदोलित भी हुआ। इस चिंतन का सूत्रपात सर सैयद ने 16 मार्च 1888 को मेरठ में यह भाषण देकर किया, "सोचिए यदि अंग्रेज भारत में नहीं है, तो कौन शासक होगा? क्या दो राष्ट्र- हिंदू और मुसलमान एक सिंहासन पर बराबर के अधिकार से बैठ सकेंगे? नहीं। आवश्यक है कि उनमें से एक, दूसरे को पराजित करें… आखिर सात सौ सालों तक भारत में आपका साम्राज्य रहा है। आप जानते हैं कि शासन करना क्या होता है… मुसलमानों का सच्चा मित्र केवल ईसाई ही हो सकता है… हमें ऐसी व्यवस्था अपनानी होगी, जिससे अंग्रेज भारत में हमेशा के लिए राज कर सकें और सत्ता कभी भी 'बंगालियों' के हाथों में न जाए।"

सर सैयद कांग्रेस के नेताओं को अक्सर 'बंगाली' कहकर तिरस्कृत करते थे, क्योंकि तब अधिकांश कांग्रेसी नेतृत्व बंगाल से था। अपनी इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में सर सैयद ने 1875-77 के दौरान अलीगढ़ में मदरसातुल उलूम और मुस्लिम-एंग्लो ओरिएंटल कालेज की स्थापना कर चुके थे, जिसे उनके निधन के 22 वर्ष बाद तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ का स्वरूप दिया। एएमयू का मूल उद्देश्य क्या था? 1930-33 में पाकिस्तान का खाका खींचने के बाद एएमयू, मु‌स्लिम लीग का अनौपचारिक राजनीतिक-वैचारिक प्रतिष्ठान बन गया। एएमयू छात्रसंघ ने कांग्रेस को फासीवादी बताते हुए 1941 में मजहब आधारित विभाजन का प्रस्ताव पारित किया। जिन्ना ने 10 मार्च 1941 को एएमयू को ‘पाकिस्तानी आयुधशाला’ बताया, तो उसी वर्ष अगस्त में एएमयू छात्रों को संबोधित करते हुए लियाकत अली खान (पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री) ने कहा, "हम मुस्लिम राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई जीतने के लिए आपको उपयोगी गोला-बारुद के रुप में देख रहे है।" कालांतर में हुए चुनावों में एएमयू छात्रों-शिक्षकों ने बढ़-चढ़कर मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

जो मुस्लिम नेता (मौलाना आजाद और प्रो हुमायूं कबीर आदि) तब विभाजन का विरोध कर रहे थे, उन पर एएमयू छात्रों ने मजहब का शत्रु मानते हुए हमला किया। विभाजन और स्वाधीनता पश्चात अपेक्षा थी कि या तो एएमयू बंद होगा या फिर इसके आधारभूत चिंतन में परिवर्तन आएगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया। इसके एक दिन पहले तक एएमयू छात्र पाकिस्तानी सेना में भर्ती हो रहे थे। इसकी भनक लगते ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने गृहमंत्री सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी और विश्वविद्यालय में पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लग गया। मई 1953 को विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति जाकिर हुसैन ने नेहरू सरकार को जानकारी दी कि कई पाकिस्तानी एएमयू में दाखिला ले रहे हैं। अगस्त 1956 में एएमयू छात्रों ने ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए। इसी विश्वविद्यालय में अलगाववादी तत्वों के बढ़ते प्रभाव के बीच जाकिर हुसैन ने कुलपति पद से इस्तीफा दे दिया। जब 1965 में नवाब अली यावर जंग को एएमयू का अगला कुलपति नियुक्त किया गया, तब छात्रों ने उन पर घातक हमला कर दिया, जिसमें उन्हें गंभीर चोटें लगीं। एएमयू 2018 में भी अपने ‘जिन्ना प्रेम’ के कारण विवादों में था।

स्वतंत्रता से पहले भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं (स्वाधीनता सहित) और एएमयू के घोषित एजेंडे के बीच टकराव था। जब शेष भारत अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था, तब एएमयू सर सैयद के 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' को मूर्त रूप दे रहा था, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में एक अलग इस्लामी देश- पाकिस्तान को जन्म दिया। एएमयू के इस चरित्र से स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पं.नेहरू भी परिचित थे। 24 जनवरी, 1948 को एएमयू के दीक्षांत समारोह में भाषण देते हुए नेहरू ने कहा था, “...मुझे अपनी विरासत और अपने पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने भारत को बौद्धिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदान की। आप इस अतीत पर कैसा अनुभव करते हैं? ...हमारे मजहब अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु यह उस सांस्कृतिक विरासत से वंचित होने का कारण नहीं बन जाता, जो आपकी भी है और मेरी भी।”

आजादी के बाद स्वतंत्र भारत ने हाशिये पर पड़े समाज के उन वर्गों को सशक्त बनाने का लक्ष्य रखा, जिन्होंने ऐतिहासिक अन्याय झेला था। इसके परिमार्जन के लिए सकारात्मक और दृढ़ कदम उठाते हुए संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। कांग्रेस सहित स्वयंभू सेक्युलरवादियों की अनुकंपा से एएमयू लगातार समाज के इन दोनों वर्गों समेत ओबीसी को भी संवैधानिक अधिकार देने से इन्कार करता रहा। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या स्वतंत्र भारत में सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थान में एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण क्यों नहीं होना चाहिए? यह वह प्रश्न है, जिस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए? देखना है कि एएमयू पर सुप्रीम कोर्ट की नई तीन सदस्यीय नई पीठ क्या फैसला करती है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)