जागरण संपादकीय: असहाय नगर निकाय, सही तरीके से कैसे होगा काम?
आखिर आवश्यक अधिकारों के अभाव में नगर निकाय अपना काम सही तरह से कैसे कर पाएंगे? ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें यह बुनियादी बात समझने को तैयार नहीं कि शहरी निकाय एक तरह से शासन की तीसरी इकाई हैं और उनका समर्थ होना आवश्यक है। निःसंदेह उन्हें समर्थ बनाने के साथ ही इसकी भी आवश्यकता है कि उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह बनाया जाए।
इस पर हैरानी नहीं कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने यह पाया कि देश के अधिकांश नगर निकाय न तो अपने स्रोतों से धन जुटाने में समर्थ हैं और न ही आवंटन के जरिये मिले पैसे का पूरा उपयोग कर पाने में। स्पष्ट है कि ऐसे में शहरों की स्थिति सुधरने की जो आशा की जा रही है, वह पूरी होने वाली नहीं है। कैग की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि राज्य सरकारें अपने नगर निकायों को वांछित अधिकार देने को तैयार नहीं। वे इस पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं कि नगर निकाय कर्मचारियों की कमी का सामना कर रहे हैं। यह विचित्र है कि जो राज्य सरकारें संघीय ढांचे का हवाला देकर केंद्र पर यह आरोप लगाती रहती हैं कि वह उन्हें पूरी स्वतंत्रता से काम नहीं करने देती, वे अपने नगर निकायों को 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत मिलीं आवश्यक शक्तियां देने को तैयार नहीं।
आखिर आवश्यक अधिकारों के अभाव में नगर निकाय अपना काम सही तरह से कैसे कर पाएंगे? ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें यह बुनियादी बात समझने को तैयार नहीं कि शहरी निकाय एक तरह से शासन की तीसरी इकाई हैं और उनका समर्थ होना आवश्यक है। निःसंदेह उन्हें समर्थ बनाने के साथ ही इसकी भी आवश्यकता है कि उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह बनाया जाए। यह ठीक नहीं कि राज्य सरकारें इनमें से भी कोई काम नहीं कर रही हैं। उचित यह होगा कि केंद्र सरकार केंद्र शासित प्रदेशों के जरिये राज्यों के समक्ष ऐसा कोई उदाहरण पेश करे कि शहरी निकायों को किन अधिकारों से लैस होना चाहिए, उन्हें अपना काम कैसे करना चाहिए और खुद को आर्थिक रूप से सक्षम कैसे बनाना चाहिए?
यह समझा जाना चाहिए कि शहरों की सूरत तब तक नहीं संवर सकती, जब तक नगर निकाय प्रशासनिक और आर्थिक रूप से सक्षम बनने के साथ ही शहरों के विकास की ऐसी योजनाएं बनाने में समर्थ नहीं होते, जो दीर्घकालिक और भविष्य की जरूरतों को पूरी करने वाली हों। चूंकि आम तौर पर शहरी विकास की ज्यादातर योजनाएं समस्याओं का फौरी समाधान करती दिखती हैं, इसलिए तमाम विकास कार्यों के बाद भी शहरों में विभिन्न समस्याएं सदैव सिर उठाए हुए दिखती हैं। क्या यह किसी से छिपा है कि किस तरह नए बने रास्ते, फ्लाईओवर, बाईपास आदि किस तरह कुछ समय बाद अपर्याप्त सिद्ध होने लगते हैं? पता नहीं क्यों आज भी शहरी योजनाएं यह ध्यान में रखकर नहीं बनाई जातीं कि आज से 50-60 साल बाद आबादी क्या होगी और उसके लिए कैसा आधारभूत ढांचा चाहिए होगा? कभी-कभी तो यह लगता है कि इस पर कोई विचार ही नहीं करता कि आज जो बुनियादी ढांचा बनाया जा रहा है, वह भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकेगा या नहीं? यह स्थिति तब है, जब देश के सभी छोटे-बड़े शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है।