बहादुरगढ़ का प्राचीन मुरली मनोहर मंदिर हो या अंबाला का सौ वर्ष से भी अधिक पुराना प्रसिद्ध कृष्ण मंदिर अथवा कैथल का 11 रुद्र मंदिर। ये सभी स्थल अनुभूति कराते हैं कि लीलाधर भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व निस्संदेह अन्यतम हैं।
जीवन की अनंत गहराई में उतरकर उसे समग्रता में देखने और जीने वाले श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्व की अनंत विशेषताएं हैं। जन्माष्टमी का पावन पर्व जनमानस को इन्हीं विशेषताओं से परिचित कराने का विशिष्ट अवसर है तो आइए इस आलेख में तय करते हैं श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध स्थलों की यात्रा।
धर्मनगरी राधा और कृष्ण जी के मिलन की साक्षी
गीता जन्मस्थली के साथ ही धर्मनगरी श्रीराधा जी औललीर
भगवान श्रीकृष्ण के आखिरी मिलन की साक्षी भी रही है। जिस प्रकार गीता के संदेश का साक्षी वट वृक्ष ज्योतिसर आस्था का केंद्र है। उसी प्रकार ब्रह्मसरोवर के उत्तर तट स्थित गौड़ीया मठ स्थित तमाल वृक्ष श्री राधा रानी और श्रीकृष्ण जी के मिलन का पवित्र प्रतीक माना जाता है। इसका वर्णन श्रीमद्भागवद पुराण में भी मिलता है।
व्यास गौड़िया मंदिर प्रभारी भक्ति गौरव गिरी महाराज ने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर कंस वध के लिए मथुरा जा रहे थे तब श्रीराधा जी उनके विच्छेद के वियोग से दुखी थीं। श्रीराधा रानी गोकुलवासियों के साथ सोमवती अमावस्या पर कुरुक्षेत्र में आई थीं और उनका मिलना श्रीकृष्ण से हुआ था।
वृंदावन के निधि वन में भी मिलते हैं इसी तरह के वृक्ष
माना जाता है कि श्रीराधा रानी और श्रीकृष्ण जी का आखिरी मिलन कुरुक्षेत्र की जिस धरती पर हुआ वहीं तमाल वृक्ष व्यास गौड़ीया मठ में स्थित है। इसी तरह के वृक्ष वृंदावन के निधि वन में पाए जाते हैं। यह वृक्ष श्रीराधा रानी और श्रीकृष्ण जी के अटूट प्रेम का प्रतीक माना जाता है। ये वह वृक्ष है जिसको श्रीराधा रानी और श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में कृष्ण समझकर इससे मिला करती थीं।
निधि वन में पाया जाता है तमाल वृक्ष
व्यास गौड़ीया मंदिर प्रभारी भक्ति गौरव गिरी महाराज बताते हैं कि तमाल वृक्ष वृंदावन के निधि वन में पाया जाता है। निधि वन में तमाल के वृक्ष कि छाया में श्रीराधा रानी और श्रीकृष्ण जी मिला करते थे। यही वृक्ष कुरुक्षेत्र में राधा और कृष्ण की लीलाओं को संजोये हुए है।
इस वृक्ष की बनावट कुछ इस प्रकार की है कि इस वृक्ष की हर टहनी एक-दूसरी टहनी के साथ मिलती है। इस वृक्ष की टहनियां जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ती है तो वे एक दूसरी के साथ लिपट जाती है। उन्होंने बताया कि वर्ष में एक खास तरह के फूल इस वृक्ष पर आते हैं।
हिसार के अग्रोहा धाम में कृष्ण जन्माष्टमी का अपना ही महत्व
जन्माष्टमी के उपलक्ष्य पर अग्रोहा धाम (Agroha Dhaam) में श्रद्धालुओं का तांता लग जाता है। इलेक्ट्रिक झांकी में कृष्ण लीला को देखने के लिए श्रद्धालुओं की लाइन लग जाती है। लाइट कृष्ण भजनों की धुनों के साथ जब चलती है तो श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इलेक्ट्रिकल झांकियों में श्री कृष्ण के जन्म से लेकर उनकी लीलाओं के अलग-अलग रूपों को दिखाया गया है।
दिखाई जाती है कृष्ण की लीला
जहां सबसे पहले झांकी में श्री कृष्ण का कारागृह में जन्म, नवजात कन्हैया को वासुदेव का यमुना पार करवाते हुए, कन्हैया का कालिया नाग उद्धार,कंस वध सुदामा आथित्य, गोपियों संग नाच आदि झांकियों में दर्शाया गया है।जहां अग्रोहा धाम में हर वर्ष जन्माष्टमी अवसर पर श्री कृष्ण जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। श्री कृष्ण के जन्म से पूर्व भव्य संस्कृति कार्यक्रम का आयोजन होता है जैसे ही रात के 12 बजे कन्हैया जन्म लेते हैं वैसे ही श्रद्धालुओं में उत्सव का माहौल बन जाता है।
श्रीकृष्ण के स्वागत का साक्षी करनाल का अलावला तीर्थ
एक प्रसंग गांव अलावला (Alavla Tirth of Karnal) स्थित माता शाकुंभरी तीर्थ से जुड़ा है। प्रचलित किवंदती के अनुसार महाभारत युद्ध के समय द्वारकाधीश भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र प्रस्थान किया तो हरे-भरे पेड़ों के बीच स्थित विशाल सरोवर वाली इसी एकांत जगह पांडवों ने उनके आगमन पर स्वागत द्वार लगाया था। यह स्थान प्राचीन कृष्ण द्वार कहलाता है। गौरवशाली अतीत से जोड़ने वाला यह प्राचीन तीर्थ अपनी प्राचीन पहचान की मांग कर रहा है।
श्रीराम के पुत्र लव-कुश ने भी बिताया था यहां लंबा समय
कहा जाता है कि गांव का मौजूदा नाम अलावला वस्तुत: खंडित स्वरूप है। इसका असली नाम लवकुशपुरा था। रामायण काल में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पुत्र लव-कुश ने यहां लंबा समय बिताया था। अपभ्रंश होने पर गांव अलावला कहलाने लगा। ग्रामीणों की मांग है कि गांव का पुराना व ऐतिहासिक नाम सरकारी दस्तावेजों सहित अभिलेखों में दर्ज किया जाए।
रामायण और महाभारत काल से जोड़ता है यह स्थल
मुख्य सेवादार रामपाल सिंह राणा, सुधीर सिंह राणा, अक्षय वर्मा, इलम सिंह राणा, भंवर सिंह राणा, अक्षय वर्मा, नरेश राणा, सतपाल फ़ौजी ने बताया कि यह विशिष्ट स्थल रामायण और महाभारत काल से जोड़ता है। महाभारत की घोषणा हुई तो श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र प्रस्थान किया।पांडवों ने उनके आगमन पर यहां स्वागत द्वार लगाया था। यह स्थान कृष्ण द्वार कहलाता है। पहले इसे शाकुंभरी तीर्थ कहा जाता था। इस ऐतिहासिक तीर्थ व श्रीकृष्ण द्वार का उल्लेख राजस्थानी भाटों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी लिखा मिलता है। बुजुर्ग भी द्वार का जिक्र करते रहे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने की थी कैथल में ग्यारह रुद्री मंदिर की स्थापना
कैथल के चंदाना गेट स्थित श्री ग्यारह रुद्री शिव मंदिर( Eleven Rudri Temples) आकर्षण का केंद्र है। इस मंदिर का इतिहास महाभारत के युद्ध से जुड़ा है। मान्यता है कि ग्यारह रुद्री शिव की स्थापना भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय की थी, जब कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था।युद्ध की समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण ने कौरव और पांडवों के बीच हुए युद्ध में मारे गए सैनिकों की आत्मिक शांति के लिए यहां 11 रुद्रों की स्थापना की थी। जिसके बाद पांडवों ने पूजा करवाई। ऐसा भी माना जाता है कि महाभारत के समय अर्जुन ने पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की आराधना की थी और इसी स्थान पर प्रसन्न होकर अर्जुन को दर्शन दिए थे।
1951 से आकर्षण का केंद्र भिवानी के मंदिर की झांकियां
1951 में जब अधिकतर घरों में बिजली की सुविधा नहीं थी उस समय सेठ किरोड़ीमल ने भिवानी शहर में शानदार मंदिर का निर्माण करवा था। मंदिर का आकर्षण इसमें लगी इलेक्ट्रिक झांकियां है। अभी भी इन झांकियों में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म, जेल में भगवान का जन्म, उन्हें पानी के बीच से लेकर जाते वासुदेव, कंश के द्वारा कन्या का वध भक्तों को आकर्षित करती हैं।
इन्हें देखने के लिए हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को पहुंचते है। सेठ श्री किरोड़ीमल चेरिटेबल ट्रस्ट के मैनेजर पवन शर्मा ने बताया कि मंदिर में इलेक्ट्रानिक झांकियों के लिए बिजली की व्यवस्था 1951 से ही है।
बहादुरगढ़ के मुरली मनोहर मंदिर से कृष्ण भक्तों की गहरी आस्था
बहादुरगढ़ के प्राचीन मुरली मनोहर मंदिर (Murli Manohar Temple of Bahadurgarh) से शहर की कई पीढ़ियों की गहरी आस्था जुड़ी है। माना जाता है कि यह मंदिर खुद भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से ही बना। 400 साल पहले एक सेठ द्वारा राजस्थान से राधा-कृष्ण की मूर्तियां मंगवाई गई थी। इन मूर्तियों को पंजाब जाना था।राजस्थान से आते हुए बैलगाड़ी यहां रुकी। बैलगाड़ी में सवार दोनों व्यक्ति रात्रि विश्राम के लिए इस जमीन पर ठहरे और मूर्तियों को भी रख दिया। मगर सुबह जब मूर्तियों को उठाने की कोशिश की गई तो मूर्तियां हिली तक नहीं। सेठ ने पंडितों से इस बारे में बात की। पंडितों ने कहा कि कान्हा और राधा रानी इसी स्थान पर विराजमान होना चाहते हैं।
यमुनानगर में महाभारत कालीन बद्रीनाथ मंदिर, पांडवों ने की थी यहां तपस्या
जिला यमुनानगर के उपमंडल बिलासपुर में प्राचीन धार्मिक स्थल आदिबद्री (Badrinath Temple of Mahabharata period in Yamunanagar) है। इसका वर्णन धार्मिक ग्रंथों में भी है। पुजारी राजेश्वर तिवारी शास्त्री के मुताबिकि आदिबद्री भगवान नारायण की तपोस्थली हैं। सोम नदी के एक किनारे पर बद्रीनाथ दूसरे पर केदारनाथ मंदिर है।मान्यता है कि यहां पर भगवान बद्रीनाथ का महाभारत कालीन शंख रखा हुआ है। भगवान बद्रीनाथ की प्रतिमा आकर्षित करती है। वहीं, महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने यहां पर तपस्या की। उसके बाद हिमालय की तरफ चले गए थे। महर्षि वेद व्यास ने भी प्राचीन काल में भोले नाथ की तपस्या की थी।
अंबाला में है सौ साल पुराना कृष्ण मंदिर
अंबाला शहर का कृष्ण मंदिर जो सौ साल से भी पुराना है। श्री राधे श्याम मंदिर में श्याम वर्ण में कान्हा विराजे हैं। वृंदावन में कान्हा श्याम वर्ण रूप में हैं। इस कारण इस मंदिर की महत्ता काफी बढ़ जाती है। ट्रस्ट मंदिर श्री राधे श्याम सोसायटी के प्रधान मोहन लाल अग्रवाल ने बताया कि जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।श्री राधे श्याम मंदिर में कल्प वृक्ष की प्रतिमा रखी हुई है जिससे लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। कल्प वृक्ष को इंद्र का वृक्ष कहा जाता है। मान्यता है कि इसे धागा बांधने पर मनोकामना पूरी होती है। कल्प वृक्ष की प्रतिमा भी सिर्फ इसी मंदिर में रखी हुई है।