'नहीं छीना जा सकता विस्थापित का दर्जा', कश्मीरी महिलाओं के विवाह से जुड़े मामले में हाईकोर्ट की टिप्पणी
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर कोई विस्थापित कश्मीरी हिंदू महिला किसी गैर-विस्थापित व्यक्ति से शादी करती है तो उसका विस्थापित दर्जा नहीं छीना जा सकता। इस फैसले से उन महिलाओं को बड़ी राहत मिलेगी जिन्होंने गैर-विस्थापितों से विवाह किया है और उन्हें प्रधानमंत्री पैकेज के तहत नौकरी से वंचित कर दिया गया था।
जागरण संवाददाता, जम्मू। जम्मू-कश्मीर व लद्दाख हाईकोर्ट के डिवीजन बेंच ने विस्थापित कश्मीरी हिंदू सीमा कौल व वैश्लनी कौल को प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीर घाटी में नियुक्त करने का निर्देश देते हुए कहा है कि अगर एक विस्थापित कश्मीरी हिंदू किसी गैर-विस्थापित से विवाह करती है, उसका विस्थापित दर्जा छीना नहीं जा सकता।
बेंच ने इस मामले में स्पेशल ट्रिब्यूनल के फैसले को सही करार देते हुए प्रदेश प्रशासन की ओर से दायर अपील को खारिज करते हुए दोनों याचियों को चार सप्ताह के भीतर नियुक्त करने का निर्देश दिया है।
दोनों याचियों ने प्रधानमंत्री पैकेज के तहत नौकरी के लिए आवेदन किया था लेकिन उनके आवेदन को इसलिए खारिज कर दिया गया क्योंकि उन्होंने गैर विस्थापित से विवाह किया था।
पूरे मामले पर गौर करने के बाद बेंच ने पाया कि एसआरओ 412 में विस्थापित शब्द का विवरण दिया गया। इसमें बताया गया है कि किसे विस्थापित का दर्जा मिल सकता है लेकिन कहीं भी यह दर्जा वापस लिए जाने का उल्लेख नहीं है।
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1989 में कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए किया गया मजबूर
एसआरओ में कहा गया है कि 1989 में जिन्हें कश्मीर घाटी छोड़ने पर मजबूर किया गया, वो विस्थापित है। ऐसे में जो महिला या उसका परिवार 1989 में कश्मीर घाटी छोड़ कर आया और यहां आकर उसे विस्थापित का दर्जा दिया गया, उससे केवल इसलिए यह दर्जा वापस नहीं लिया जा सकता कि उसने किसी गैर विस्थापित से विवाह किया।
बेंच ने कहा कि यह कैसे कहा जा सकता है कि एक विस्थापित महिला प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीर में रोजगार पाने के लिए सारी उम्र अविवाहित रहे।समुदाय की हर महिला के लिए विस्थापितों में ही वर पाना संभव नहीं और अगर अपना परिवार बसाने के लिए वह किसी गैर विस्थापित से विवाह करती है तो इस आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
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