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चीन की कोशिश पर भारत को शक! क्‍या सीमा समझौते से राजनीतिक और व्यापारिक संबंधों में आएगा सुधार?

ब्रिक्स 2024 से पहले भारत और चीन ने सीमांत गतिरोध कम करने के लिए एक ऐतिहासिक समझौता किया। संबंधों में सुधार की ताजा कोशिशों के बावजूद चीन के पूर्व के अतिक्रमणकारी रवैये को देखते हुए आगे भी उसकी मंशा पर शक की गुंजाइश बनी रहेगी। ऐसे में वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में चीन और भारत के संबंधों की दिशा और इसके संभावित भू-राजनीतिक और आर्थिक प्रभावों की पड़ताल अहम मुद्दा है...

By Jagran News Edited By: Deepti Mishra Updated: Mon, 28 Oct 2024 07:45 PM (IST)
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ब्रिक्स 2024 से पहले भारत-चीन समझौता: क्‍या यह सीमाई कूटनीति में नया अध्याय?
डिजिटल डेस्‍क, नई दिल्‍ली। हाल में संपन्न हुए ब्रिक्स सम्मेलन 2024 से ठीक पहले भारत और चीन अपने सीमांत क्षेत्र में सैन्य गतिरोध को समाप्त करने के लिए एक समझौते पर पहुंच गए हैं। यह समझौता हिमालय क्षेत्र में सीमा पर 2020 की घातक झड़प के चार साल बाद हुआ है। इसके कारण दोनों देशों के बीच संबंध कई दशकों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए थे। हालिया समझौता दो एशियाई दिग्गजों के बीच बेहतर राजनीतिक और व्यापारिक संबंधों का मार्ग प्रशस्त करेगा।

ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच द्विपक्षीय वार्ता ने इसका रास्ता और भी साफ कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मौके पर कहा, ‘सीमा पर शांति और स्थिरता बनाए रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। आपसी विश्वास, आपसी सम्मान और आपसी संवेदनशीलता हमारे संबंधों का आधार होना चाहिए।’

भारत-चीन संबंधों को ऐतिहासिक तनावों, हालिया सीमा टकरावों, क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं और आर्थिक अंतर्निर्भरता के जटिल मिश्रण के आधार पर समझा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय फलक पर पिछले एक दशक में भारत ने अपनी स्थिति को काफी मजबूत किया है। वहीं, कोविड-19 के बाद चीन की गिरती साख ने उसके खिलाफ वैश्विक जगत में एक अविश्वास का माहौल पैदा किया है।

भारत की विदेश नीति ने दिया ये संदेश

भारत की विदेश नीति को देखें तो एक तरफ अमेरिका तथा यूरोप के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध तथा दूसरी तरफ रूस के साथ भारत के आत्मीय संबंधों ने विश्व को यह संदेश दिया है कि भारत एक शांतिप्रिय विश्व व्यवस्था का समर्थक है। भारत के पास ऐसा नैतिक बल है, जो ग्लोबल साउथ के देशों की आवाज बनकर विकास तथा शांति के अहम मुद्दों पर उनका नेतृत्व कर सकता है।

भारतीय विदेश नीति के सकारात्मक प्रभाव ने वैश्विक मंचों पर भारत की साख को बढ़ाया है तथा चीन की कर्ज के जाल में फंसाने वाली नीति तथा विस्तारवादी सोच ने विकासशील और छोटे देशों में उसके खिलाफ एक जनभावना का निर्माण किया, जिसका प्रभाव चीन की वैश्विक साख तथा उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।

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बदलते वैश्विक घटनाक्रम में भारत का बढ़ता कद तथा चीन के सामने बढ़ती घरेलू और आर्थिक चुनौतियों ने चीन को यह आभास करा दिया कि भारत जैसे पड़ोसी देश के साथ खराब संबंध उसके हित में नहीं हैं।

चीन की विस्तारवादी विदेश नीति ने ही उसे वैश्विक राजनीति में अलग-थलग करना शुरू कर दिया था। अमेरिका तथा भारत जैसे बड़े देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों ने एक तरफ चीन की विकास दर को धीमा किया।दूसरी तरफ, महंगाई और बेरोजगारी ने घरेलू असंतोष को बढ़ा दिया है।

इन सभी घटनाओं को देखते हुए इसे भारत की सफल कूटनीति ही कहा जाएगा कि 1962 के बाद 2020 में जब चीन ने अपनी विस्तारवादी नजर भारत की तरफ गड़ाई तो भारत ने भी कई मोर्चों पर चीन को पटखनी दी। चीन ने करीब चार वर्षों तक सीमा पर तनाव के बीच भारत की रक्षा क्षमताओं और धैर्य की परीक्षा ली।

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चीन की आक्रामक रवैया हुआ फेल

जाहिर है कि चीन को इस बात का अहसास हो गया था कि भले ही वह विश्व की एक बड़ी ताकत हो, लेकिन वह सीमा पर आक्रामक रवैया अपना कर भारत को दबा नहीं सकता है। इसी का नतीजा कि लंबी बातचीत के बाद चीन को वास्तविक नियंत्रण सीमा पर 2020 के पहले की स्थिति बहाल करने के लिए सहमत होना पड़ा।  

ऐसा नहीं है कि इस समझौते के बाद दोनों देशों के बीच अन्य सभी मुद्दे समाप्त हो जाएंगे, दोनों देशों के बीच अभी भी भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से जुड़े कई मुद्दे हैं। हिंद महासागर में चीन की बढ़ती नौसैनिक उपस्थिति तथा पाकिस्तान के साथ उसके गहरे रणनीतिक तथा सामरिक संबंध भारतीय हितों के लिए चुनौतीपूर्ण हैं।

भारत ने भी अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन पर अंकुश लगाने के लिए अच्छा व्यूह रचा है। भू-राजनीतिक तनावों के बावजूद, चीन भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक बना हुआ है।

दोनों प्राचीन सभ्यताओं के बीच कई छोटे-बड़े मुद्दे हैं, परन्तु इस शह-मात के वैश्विक खेल में इन सभी चुनौतियों के बीच तनाव कम करना चीन के लिए भी सुविधाजनक है क्योंकि पश्चिम एशिया में बढ़ते संघर्ष ने चीनी कंपनियों को चिंता में डाल दिया है। भारत में चीन की कंपनियां के लिए निवेश और कारोबार करना पहले चुनौतीपूर्ण हो गया है।

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(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव से बातचीत)