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    सुप्रीम कोर्ट ने क्‍यों 'स्वतंत्र नियामक' बनाने को कहा? एक्‍सपर्ट ने बताए ओटीटी-सोशल मीडिया के 6 बड़े खतरे

    Updated: Tue, 02 Dec 2025 02:07 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर भ्रामक खबरों और अश्लील कंटेंट को रोकने के लिए एक स्वायत्त निकाय बनाने का सुझाव दिया है। कोर्ट ने फेक न्यूज, हेट स्पीच और राष्ट्र विरोधी कंटेंट जैसे मुद्दों पर चिंता जताई है। विशेषज्ञों का मानना है कि बोगस अकाउंट पर रोक, प्रभावी कानून और वेरिफिकेशन जरूरी है। साथ ही, न्यायिक तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है।

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    सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता: स्वतंत्र नियामक की आवश्यकता।

    जागरण टीम, नई दिल्‍ली। सोशल मीडिया पर लगातार बढ़ रहीं भ्रामक खबरें और और अश्लील कंटेंट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऑटोनॉमस बॉडी यानी स्वायत्त निकाय बनाने की सलाह दी। यह निकाय ऑनलाइन कंटेंट पर नजर रखने का काम करेगा। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह इंटरनेट मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अभद्रता, फेक न्यूज, हेट स्पीच, अश्लीलता और राष्ट्र विरोधी कंटेंट के मामलों से जुड़े छह बड़े पहलुओं को समझना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के वकील और ‘डिजिटल कानूनों से समृद्ध भारत’ के लेखक विराग गुप्ता से समझें सभी छह पहलू ...

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    पहलू नंबर-1: बोगस अकाउंट को करना होगा बैन

    आईटी कानून के अनुसार, टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर (टीएसपी) और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) कंपनियों को इंटरमीडियरी माना जाता है, लेकिन सेफ हार्बर का सुरक्षा कवच बनाए रखने के लिए इन कंपनियों के लिए आईटी इंटरमीडियरी नियम-2021 के तहत जरूरी सुरक्षा उपायों को लागू करने के साथ आपत्तिजनक कंटेंट को भी हटाना जरूरी है।

    इंटरमीडियरी नियमों के अनुपालन मामले में एक्स ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है, जिस पर फैसला आना बाकी है। इंटरनेट मीडिया में बोगस खातों और आईटी सेल के माध्यम से बढ़ रही संस्कृति के पीछे टेक कंपनियों का बड़ा मुनाफा छिपा है, जिसकी जड़ पर प्रहार किए जाने की जरूरत है।

    पहलू नंबर-2: फेक न्यूज और हेट कंटेंट के प्रभावी कानून की जरूरत

    इंटरनेट मीडिया में आपत्तिजनक कंटेंट को रोकने के लिए धारा-66-ए में जरूरी प्रविधान थे, जिन्हें श्रेया सिंघल मामले में शीर्ष अदालत ने निरस्त कर दिया था। उसके बाद 10 सालों में मंत्रियों के अनेक बयानों के बावजूद संसद से इस बारे में जरूरी कानून नहीं बने हैं। इंटरनेट मीडिया में फेक न्यूज और हेट कंटेंट को रोकने के लिए पीआईबी के फैक्ट चैक से जुड़े मामले में भी अदालत में सुनवाई हो रही है।

    पहलू नंबर-3: अनुशंसाओं पर नहीं हुई कार्रवाई

    टेक कंपनियों पर कानून लागू करने के लिए एलोकेशन ऑफ बिजनेस रूल्स के तहत केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय, आईटी मंत्रालय, गृह मंत्रालय, उपभोक्ता कल्याण मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय समेत कई विभागों के पास अधिकार हैं। संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार साइबर अपराधों के मामलों में कार्रवाई के लिए राज्यों की पुलिस जिम्मेदार है।

    साल 2012 से प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने कई बार कहा है कि प्रिंट मीडिया की तरह डिजिटल और इंटरनेट मीडिया को भी नियमन के दायरे में लाना चाहिए, लेकिन उन अनुशंसाओं पर सरकार ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है।

    पहलू नंबर-4: वेरिफिकेशन भी जरूरी है

    गोविंदाचार्य मामले में साल 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले, इंडियन मेजोरिटी कानून और कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के अनुसार, 18 साल से कम उम्र के बच्चे मनी गेमिंग, ओटीटी और इंटरनेट मीडिया कंपनियों के साथ कानूनी अनुबंध नहीं कर सकते।

    स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने वाले बच्चे कानूनी तौर पर अपने नाम से सिम कार्ड भी नहीं ले सकते। उत्तर प्रदेश सरकार के नवीनतम आदेश और वोटर लिस्ट के वेरिफिकेशन मामले में चुनाव आयोग के आदेशों से यह साफ है कि आधार में एड्रेस और जन्म तारीख का वेरिफिकेशन नहीं होता।

    इसलिए आधार सत्यापन के सुझाव में अनेक व्यावहारिक अड़चनें हैं। पुत्तास्वामी मामले में संविधान पीठ के फैसले के बावजूद डाटा सुरक्षा कानून लागू नहीं होने से बच्चों की सोशल प्रोफाइलिंग, डिजिटल ट्रैकिंग और साइबर सुरक्षा से जुड़े अनेक खतरे हैं।

    पहलू नंबर-5: टेक कंपनियां शिकायत के लिए टोल फ्री नंबर दें

    यूटयूब और वॉट्सएप जैसे बड़े व्यापारिक साम्राज्य का भारत में रजिस्ट्रेशन नहीं है तो फिर इन्फ्लुएंसर्स के लिए यह कैसे जरूरी हो सकता है? अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में टेक कंपनियां इंटरमीडियरी से जुड़ी कानूनी जवाबदेही और टैक्स जवाबदेही से बचने की कोशिश कर रही हैं। गूगल और मेटा जैसी बड़ी कंपनियां शिकायत अधिकारियों के टोल फ्री नंबर और ईमेल का फुल पेज विज्ञापन दें तो न्यायिक हस्तक्षेप के बगैर अधिकांश मामलों का निराकरण हो सकता है।

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    पहलू नंबर-6: प्रभावी न्यायिक तंत्र बनना जरूरी

    सीजेआई ने कहा है कि उच्चतम न्यायालय के पास ऐसी समस्याओं को ठीक करने के लिए जादुई छड़ी नहीं है। पिछले दशक में संता बंता के चुटकुलों को रोकने के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई में जजों ने सवाल किया था कि इंटरनेट मीडिया में खरबों सूचनाओं के युग में अदालती आदेश कैसे लागू हो सकता है?

    ऑनलाइन जुआ, सट्टेबाजी और पोर्नोग्राफी रोकने के लिए स्पष्ट कानून के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इन मामलों में प्रभावी फैसले नहीं कर रही। इंटरनेट मीडिया से जुड़े मामलों में गिरफ्तारी, जमानत और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर महीन संवैधानिक व्याख्या से जुड़े करोड़ों विवादों को सुलझाने के लिए भारत में पर्याप्त न्यायिक तंत्र का अभाव है। पर्यावरण से जुड़े मामलों के लिए गठित ग्रीन बेंच की तर्ज पर साइबर जगत में बढ़ रहे प्रदूषण पर रोकथाम के लिए विशेषज्ञ पीठ के गठन पर विचार होना चाहिए।

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    (विराग गुप्ता, वकील, सुप्रीम कोर्ट और ‘डिजिटल कानूनों से समृद्ध भारत’ के लेखक से बातचीत)