आखिर क्यों की गई हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग, जानिए तथ्य और आंकड़े
उत्तर-पूर्व में मणिपुर में हिंदू जनसंख्या का आंकड़ा सबसे बेहतर है जहां 41.39 प्रतिशत आबादी हिंदू धर्म को मानती है। आंकड़ों के लिहाज से पांच राज्यों में हिंदू आबादी 15 प्रतिशत से भी कम है। दक्षिण में स्थित लक्षद्वीप में हिंदू जनसंख्या 2.77 प्रतिशत ही है।

नेशनल डेस्क, नई दिल्ली: देश के कुछ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बीच एक अहम प्रश्न यह है कि आखिर यह मांग क्यों की गई है। क्या आंकड़े याचिका में की गई इस मांग का समर्थन करते हैं। यदि हिंदुओं को इन राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाए तो उन्हें क्या लाभ होगा। पढ़िए यह रिपोर्ट:
आंकड़े क्या कहते हैं
- इस पूरे मामले में सबसे अहम भूमिका है इन राज्यों की जनसांख्यिकी की। वर्ष 2011 की जनसंख्या के अनुसार देश में 79.80 प्रतिशत हिंदू थे। मुस्लिमों की आबादी 14.23 प्रतिशत, ईसाई समुदाय की जनसंख्या 2.30 और सिखों की आबादी 1.72 प्रतिशत थी।
- देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद कुछ ही समय बाद वर्ष 1951 में भारत में हिंदू आबादी 84.1 प्रतिशत थी जबकि मुस्लिम जनसंख्या 9.8 प्रतिशत थी। उस समय भी ईसाइयों की संख्या 2.30 प्रतिशत और सिखों की 1.79 प्रतिशत थी।
- अब बात करें राज्यों की तो याचिका में उल्लिखित राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर में हिंदू आबादी 28.44 प्रतिशत है। इसी प्रकार लद्दाख में इस समुदाय की संख्या 12.11 प्रतिशत है।
- उत्तर पूर्व के राज्यों में मिजोरम में हिंदू आबादी सबसे कम (2.75 प्रतिशत) है। नगालैंड में यह आंकड़ा 8.75 प्रतिशत है। मेघालय में 11.53 और अरुणाचल प्रदेश में हिंदू जनसंख्या 29.04 प्रतिशत है।
यह है पूरा मामला
- याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर का उदाहरण देते हुए वहां हिंदुओं को जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने का आग्रह किया है।
- याचिकाकर्ता का दावा है कि कई राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं लेकिन वे अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हैं।
- याचिकाकर्ता ने अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम-2004 की धारा 2 (एफ) की वैधता को भी चुनौती दी और कहा कि यह धारा केंद्र को असीमित शक्ति देती है।
केंद्र ने ये दिया जवाब
- इस मामले में केंद्र सरकार ने जवाब दिया है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम-2004 कहता है कि राज्य सरकारें भी राज्य की सीमा में धार्मिक और भाषायी समुदायों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर सकती हैं।
- केंद्र सरकार ने याचिका खारिज करने की अपील की है और कहा है कि याचिकाकर्ता ने जिस तरह की राहत मांगी है, वह जनहित या राष्ट्र हित में नहीं है। पूरे देश में धार्मिक और भाषाई पहचान के लिए एक आधार नहीं हो सकता है।
दर्जा मिले तो ये होगा लाभ
- यदि हिंदुओं को इन राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाए तो वहां पर वे अपनी पसंद के शिक्षा संस्थान स्थापित कर सकते हैं। हालांकि केंद्र ने स्पष्ट किया है कि अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए संबंधित राज्य ही दिशानिर्देश तय कर सकते हैं।
- इसके अलावा इन राज्यों में अल्पसंख्यकों के लिए सरकारों द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं को लाभ भी मिल सकेगा।
किन्हें माना जाता है धार्मिक अल्पसंख्यक
- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून-1992 की धारा 2(सी) के अंतर्गत केंद्र सरकार ने 1993 में देश में पांच समुदायों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया। ये हैं मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई।
- केंद्र के अदालत में जवाब के अनुसार, महाराष्ट्र ने राज्य में यहूदियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है जबकि कर्नाटक ने उर्दू, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, तुलु, लमणी, हिंदी, कोंकणी और गुजराती को अपनी सीमा में अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा दिया है।
आर्टिकल-30 से जुड़ा निर्णय
- अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने से जुड़े मामले से टीएमए पई फाउंडेशन केस काफी अहम माना जाता है। वर्ष 2002 में इस केस में निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल-30 की व्याख्या की थी और कहा था कि इसका उद्देश्य, जो अल्पसंख्यकों को धार्मिक और भाषाई आधार पर शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करने और उनके संचालन का अधिकार देता है, उसे राज्यों में ध्यान में रखा जाए। सुप्रीम कोर्ट के इसी निर्णय पर हिंदुओं को कई राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने की याचिका दाखिल की गई है।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।