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Shri Ram Kinkar Ji Maharaj: जीवन में दुर्गुणों और सद्गुणों का युद्ध सतत चलता रहता है

प्राचीन काल में देवताओं और दैत्यों के युद्ध में देवता परास्त होते हैं और दैत्य विजयी। भगवान समुद्र-मंथन से प्राप्त अमृत का देवताओं में वितरण करते हैं जिसका पान कर देवतागण अमर हो जाते हैं। इसके बाद दैत्यों को परास्त करते हैं। यही बात साधकों के जीवन में भी आती है। उनके जीवन में भी दुर्गुणों और सद्गुणों का सतत युद्ध चला हुआ है।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarPublished: Mon, 13 May 2024 11:46 AM (IST)Updated: Mon, 13 May 2024 11:46 AM (IST)
Shri Ram Kinkar Ji Maharaj: जीवन में दुर्गुणों और सद्गुणों का युद्ध सतत चलता रहता है

श्रीरामकिंकर जी महाराज। गोस्वामीजी ने कहा कि फल वृक्ष के लिए संपत्ति भी हो सकता है और भार भी। जब देनेवाला वृक्ष यह माने कि फल संपत्ति नहीं, भार है और लेनेवाला उसे संपत्ति के रूप में ले, तभी देने और लेने वाले दोनों के भावों की सार्थकता है। जैसे जब कोई आपके सिर पर से बोझ उतार देता है, तो आप उसे धन्यवाद देते हैं कि उसने आपका बोझ हल्का किया। वैसे ही जब दान देने वाला यह मानें कि इन्होंने दान लेकर मेरा बोझ हल्का कर दिया और लेनेवाला कृतज्ञ हो, तभी दोनों के जीवन में सद्गुण का प्रवेश होगा।

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इसके विपरीत यदि देनेवाला यह कहे कि यह मेरी संपत्ति है, मैं चाहे दूं या न दूं और लेने वाला कहे कि आप दीजिए, हम आपका भार हल्का किए दे रहे हैं, तब तो यह झगड़े की बात होगी। गोस्वामीजी कहते हैं-वृक्ष बड़ा चतुर है। जैसे ही उसमें फल आया कि झुक गया, लोग वृक्ष की बड़ी प्रशंसा करते हैं कि वृक्ष बड़ादानी है, विवेकी है, विनयी है, पर वृक्ष का भाव यह रहता है कि यह तो मैं अपना कर्तव्य किए जा रहा हूं। वह प्रशंसा को प्रशंसा नहीं मानता। वह जानता है कि इसी में उसका श्रेय है। वह अपने फल बाहर रखता है। आम, केले, कटहल सब बाहर ही लगे रहते हैं, पर और भी कई पौधे हैं, जो अपने फल भीतर रखते हैं,जैसे-आलू, शकरकंद, मूली इत्यादि। जो अपना फल बाहर रखता है, उसका तो केवल फल ही टूटता है, पर जो अपना फल गाड़कर रखता है, उसे तो लोग खोदकर जड़ सहित उखाड़ देते हैं।

अत: अच्छी बात तो यही है कि वस्तु को बाहर रख उसका सदुपयोग होने दें, गाड़कर रखने से क्या लाभ? वृक्ष बड़ा विवेकी है। वह जानता है कि झुकने में सब प्रकार से लाभ है। कैसे? जब उसने भूतकाल पर विचार किया तो देखा कि उसने जितना रस प्राप्त किया, सब पृथ्वी से पाया। अत: उचित है कि वह पृथ्वी को नमन करे। भविष्य का जब उसने चिंतन किया तो उसे लगा कि क्या मैं हमेशा के लिए फल को पकड़े रह सकता हूं? यदि मैं उसे न भी देना चाहूं तो एक दिन वह सड़कर खुद गिर जाएगा, नष्ट हो जाएगा। अत: देना ही उचित है।

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वर्तमान काल में उसने देखा कि यदि वह झुकता है तो लोग आएंगे और हाथ से फल तोड़ लेंगे। यदि वह नहीं झुकता है तो लोग पत्थर मारकर फल तोड़ेंगे। कोई लाठी चलाएगा, तो कोई ऊपर चढ़कर तोड़ेगा। कोई सिर पर चढ़कर फल तोड़े, इनसे तो अच्छा यही है कि खुद झुककर दे दिया जाए, ताकि लोगों को भी तृप्ति मिले और स्वयं को शांति, इसलिए वृक्ष दानी होकर भी स्वयं को अहंकार से नहीं बांधता। वह गुणों के वशीभूत नहीं होता। ठीक यही श्रीराम के भ्राता भरतजी का चरित्र है। उनके चरित्र की आवश्यकता क्यों पड़ी?

भगवान राम ने देखा कि जितने गुणवान व्यक्ति हैं, सब अपने गुणों द्वारा ही हार रहे हैं। अत: ऐसा चरित्र संसार के सामने प्रकट किया जाए, जिसमें गुण तो सब हों, पर गुणी होने का अहंकार न हो। पुण्य तो हो, पर पुण्यात्मा होने की वृत्ति का सर्वथा अभाव हो। भरत जी के जीवन में गुण निर्गुण-निराकार हैं, पर संसार में जितने गुण हैं, वे सब उसी निर्गुण के कारण ही सगुण हुए। गोस्वामीजी समुद्र-मंथन के रूपक के माध्यम से श्रीभरत के निर्मल चरित्र की व्याख्या करते हैं। प्राचीन काल में देवताओं और दैत्यों के युद्ध में देवता परास्त होते हैं और दैत्य विजयी। भगवान समुद्र-मंथन से प्राप्त अमृत का देवताओं में वितरण करते हैं, जिसका पान कर देवतागण दैत्यों को परास्त करते हैं। यही बात साधकों के जीवन में भी आती है। उनके जीवन में भी दुर्गुणों और सद्गुणों का सतत युद्ध चला हुआ है।


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