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Jagran Samvadi 2024: जागरण संवादी में जानिये 'नेहरू से मोदी युग का साहित्य' कैसा रहा?

नेहरू युग से मोदी युग तक के साहित्य का सफर कैसा रहा? इस विषय पर लखनऊ विश्वविद्यालय में आयोजित संवादी कार्यक्रम में साहित्यकारों और आलोचकों ने विस्तार से चर्चा की। विभाजन की पीड़ा 1984 के दंगे और 1990 के बाद बदली दुनिया का जिक्र साहित्य में क्यों नहीं मिलता इस पर भी बात हुई। जानिए कार्यक्रम में साहित्यकारों ने क्या कहा?

By Jagran News Edited By: Sakshi Gupta Updated: Sat, 16 Nov 2024 06:40 PM (IST)
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'संवादी' कार्यक्रम में नेहरू से मोदी युग का साहित्य के बारे में गहन चर्चा हुई।
महेन्द्र पाण्डेय, लखनऊ। 'एक वो युग, जिसे साहित्यकारों ने नेहरू युग कहा और एक यह युग, जो मोदी का है...।' शनिवार को 'संवादी' कार्यक्रम लखनऊ विश्वविद्यालय में शुरू हुआ। बात नेहरू युग के साहित्य से शुरू हुई और मोदी युग तक पहुंची। दोनों युगों की कथा-व्यथा साहित्यिक आख्यान में रूपांतरित हुई। इसमें विभाजन की पीड़ा उभरी और 1984 के दंगों का दुख भी। 1990 के बाद बदली दुनिया का जिक्र साहित्य में न मिलने का कारण भी टटोला गया। बता दें कि शनिवार दोपहर में राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने कार्यक्रम का शुभारंभ किया।

लखनऊ विश्वविद्यालय के मालवीय सभागार में शनिवार को आयोजित 'जागरण संवादी' का दूसरा सत्र 'नेहरू से मोदी युग का साहित्य' पर केंद्रित था। सत्र के खेवनहार दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय प्रश्नों की पतवार के सहारे श्रोताओं के जिज्ञासाओं की नौका पार लगा रहे थे।

मोदी ने साहित्यकारों को उकसाया है- प्रोफेसर

उन्होंने आलोचक प्रो. सुधीश पचौरी से प्रश्न किया कि मोदी का नाम आपने शीर्षक में कैसे लिख दिया? पचौरी ने कहा कि मैं नेहरू का कायल हूं। उनका साहित्य में बड़ा योगदान है। उन्होंने किसान और प्रगतिशील आंदोलन का नेतृत्व किया है। मैंने इंदिरा और राजीव पर भी लिखा है, लेकिन मोदी का बड़ा अवदान है। मोदी ने साहित्यकारों को उकसाया है। बड़ी संख्या में साहित्यकारों ने अपने सम्मान लौटा दिए हैं।

सुधीश ने मोदी युग का जो जुमला फेंका है, ये कितना स्वीकार्य होगा? इस प्रश्न पर लेखक प्रो. उदय प्रताप सिंह ने कहा कि जुमला फेंकना इनकी मजबूरी है। नेहरू से मोदी युग का काल 75 वर्षों की यात्रा है। दिनकर, नागार्जुन ने नेहरू की प्रशंसा की, किंतु निंदा भी की।

मोदी के गुणगान से क्या हासिल हो जाएगा?

प्रश्न किया गया कि मोदी के गुणगान से क्या हासिल हो जाएगा? लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो. पवन अग्रवाल ने इस प्रश्न का उत्तर नामवर सिंह के उदाहरण के साथ दिया- एक बार नामवर से पूछा गया कि मोदी युग तक आते-आते आपको एक निर्जन स्थल पर छोड़ दिया जाए तो कौन सी पुस्तक पसंद करेंगे तो उनका जवाब था- श्रीरामचरितमानस।

प्रो. अग्रवाल ने 1984 के दंगों का भी दृष्टांत दिया और कहा कि जो हिंदू-सिख अनन्य थे, उन्हें अन्य बना दिया गया। इस पर प्रो. पचौरी ने टोका और बोले कि नेहरू ब्राह्मण और मोदी ओबीसी हैं। वामपंथियों में डर है कि 'फासिज्म' आ चुका है, लेकिन इसमें किसी की बनियान तक नहीं फटी।

विभाजन की पीड़ा पर भी हुई बात

अनंत विजय ने संवाद को दूसरी ओर मोड़ा और पूछा कि विभाजन की पीड़ा, 84 के दंगे और 90 के बाद की बदली दुनिया का जिक्र साहित्य में नहीं मिलता है, इसका क्या कारण है?

इसके जवाब में प्रो. उदय बोले- हिंदी वाले दूर तक नहीं सोचते। राजनीति ने बहुत बांट दिया। इसके कारण लेखक और संवेदना करने वाले सिमटते जा रहे हैं। साहित्यकार हिंदू-मुसलमान एकता कराने में इतने उलझे रहे कि 84 के दंगों पर खामोशी ओढ़ ली?

प्रो. पवन ने कहा कि आजादी की उम्मीदों पर साहित्यकारों का अधिक ध्यान गया। यूं कहें कि साहित्यकार मरहम लगाने का प्रयास करता रहा। श्रोताओं की दीर्घा से आत्म प्रकाश मिश्र ने प्रश्न किया- साहित्यकार अमरता और अहंकार के लिए रचना करता है तो उसे क्यों पढ़ें? इसके जवाब में प्रो. पचौरी ने कहा कि साहित्यकार अपनी यश-कीर्ति के लिए लिखता है। प्रदीप अग्रवाल ने पूछा कि मुगलकाल में तुलसीदास ने राजाओं के विरुद्ध क्यों नहीं लिखा? उत्तर था- तुलसीदास के समय में साहित्यकारों ने राजाओं की परवाह नहीं की। इसमें आलोचना पिछड़ गई।

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