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    Bihar Election 2025: यहां जनमत और जाति के बीच डोल रही सियासत, कद्दावर मंत्री को भी मिल रही चुनौती

    Updated: Sun, 09 Nov 2025 11:40 AM (IST)

    बांका और अमरपुर विधानसभा क्षेत्रों में राजनीतिक माहौल गर्म है। अमरपुर में जदयू के जयंत राज और कांग्रेस के जितेंद्र सिंह के बीच मुकाबला है, जहाँ जातीय समीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बांका में राजद ने सीट सीपीआई को दी है, जिससे समीकरण बदल गए हैं। भाजपा के रामनारायण मंडल अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि सीपीआई नए प्रयोग के साथ मैदान में है। दोनों क्षेत्रों में जनता विकास और बदलाव के मुद्दों पर विचार कर रही है।

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    जागरण संवाददाता, भागलपुर। बांका और अमरपुर-बांका जिले की राजनीति के दो ऐसे ध्रुव हैं, जहां सत्ता और संघर्ष की कहानी हर चुनाव में नए रंग भरती है। दोनों ही विधानसभा क्षेत्र में इस बार फिर राजनीतिक तापमान चरम पर हैं। बांका में परंपरागत भाजपा-राजद की जंग का चेहरा बदल चुका है।

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    राजद की यह सीट अब सीपीआई के पास है, जिससे समीकरणों में हलचल है। भाजपा के रामनारायण मंडल अपनी पुरानी पकड़ और विकास की राजनीति पर भरोसा जता रहे हैं, तो महागठबंधन में मतों की एकजुटता की परीक्षा है। हवा में उत्सुकता है कि क्या बाम मोर्चे का यह प्रयोग बांका की मिट्टी में अंकुरित होगा।

    उधर अमरपुर में फिर वही दो चेहरे। जदयू के जयंत राज और कांग्रेस के जितेंद्र सिंह आमने-सामने हैं। मंत्री पद के अनुभव और संगठन की ताकत से लैस जयंत राज विकास की मिसाल पेश करने की कोशिश में हैं, जबकि जितेंद्र सिंह राजद के परंपरागत व स्वजातीय समर्थन के सहारे जीत की राह खोज रहे हैं।

    दोनों सीटों पर जातीय गणित, जनभावना और नेतृत्व की छवि आपस में गुंथकर ऐसी राजनीतिक बुनावट बना रही है, जिसमें हर धागा किसी न किसी उम्मीद की कहानी कहता है। दोनों विधानसभा से संजय सिंह की पेश है ग्राउंड रिपोर्ट।

    अमरपुर में जयंत और जितेंद्र में सीधी टक्कर

    अमरपुर विधानसभा क्षेत्र के सियासी मैदान में वही पुराने चेहरे हैं, लेकिन जनता का मूड कुछ बदला हुआ नजर आ रहा है। एक ओर हैं जदयू के मंत्री जयंत राज, दूसरी ओर कांग्रेस के जितेंद्र सिंह। मुकाबला दिलचस्प है। गांव से लेकर बाजार तक, हर जगह चर्चा का विषय यही है कि इस बार जनता किसे मौका देगी। अनुभव को या बदलाव को।

    अमरपुर बाजार की एक चाय की दुकान पर बैठे बासुकी भगत और पूरन भगत कहते हैं, वोट तो नीतीश और मोदी को देखकर होगा, कोई भरम नहीं है। उनके लहजे में सरकार के प्रति भरोसा झलकता है।

    वहीं कौशलपुर गांव की चीना देवी का अंदाज कुछ अलग है। वह कहती हैं, जो दस हजार दिया, हम तो वोट उसी को करेंगे। बाबू, इतनी उम्र हो गई, कभी किसी ने हमारी चिंता नहीं की। जिसने की, उसे वोट नहीं देंगे तो किसे देंगे।

    पान दुकान चलाने वाले प्रकाश कुमार की बातें लोगों की सोच का एक और पहलू उजागर करती हैं। वे कहते हैं, हवा तो उसी की चल रही है, जिसकी सरकार है। अगर हाईवे बन जाता तो जाम की समस्या से निजात मिल जाती।

    घोषणा तो हुई है, उम्मीद है बन जाएगा, तब भागलपुर जाना आसान हो जाएगा। यह टिप्पणी बताती है कि जनता सरकार के कामकाज पर नजर रखे हुए है, पर विकास के अधूरे वादों को भी नहीं भूली है।

    राजनीतिक समीकरण की तस्वीर भी उतनी ही दिलचस्प है। पिछली बार पहली बार चुनाव लड़कर जीतने वाले जयंत राज अब मंत्री के रूप में जनता के बीच हैं। वे अपने काम, योजनाओं और डबल इंजन सरकार के विकास माडल को गिनाते हुए दूसरी बार जीत का दावा कर रहे हैं।

    जितेंद्र सिंह इस बार पूरी तैयारी के साथ मैदान में हैं। वे राजद के पारंपरिक यादव-मुस्लिम वोट बैंक, अपने राजपूत समुदाय और मंत्री विरोधी वोटों को एकजुट कर चुनावी जंग को संतुलित बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है, जनता अब बदलाव चाहती है, अमरपुर को नई दिशा देने की जरूरत है।

    अमरपुर की राजनीति में जातीय संतुलन अहम भूमिका निभाता है। कुशवाहा, राजपूत, यादव और मुस्लिम वोटर यहां निर्णायक हैं। पिछले चुनाव में जयंत राज को 53 हजार, जितेंद्र सिंह को 50 हजार, और मृणाल शेखर को 40 हजार वोट मिले थे।

    इस बार मृणाल शेखर जदयू के साथ हैं, जिससे जयंत राज को संगठनात्मक लाभ मिल सकता है। कुल मिलाकर, अमरपुर का चुनाव इस बार किसी लहर पर नहीं, बल्कि स्थानीय मुद्दों और काम के आकलन पर टिकेगा।

    जयंत राज सत्ता और अनुभव पर भरोसा कर रहे हैं, जितेंद्र सिंह बदलाव की हवा पर सवार हैं, जबकि सुजाता बैध नए विकल्प के तौर पर चर्चा में हैं। अब फैसला इसी पर निर्भर करेगा कि अमरपुर सत्ता की निरंतरता को चुनता है या बदलाव की नई दिशा तय करता है।

    बांका विधानसभा : बदलते समीकरणों में त्रिकोणीय मुकाबला 

    बांका विधानसभा की राजनीतिक जमीन हमेशा भाजपा और राजद के बीच के पारंपरिक मुकाबले की साक्षी रही है। यह वही सीट है जहां कभी भाजपा के रामनारायण मंडल और राजद के जावेद इकबाल अंसारी आमने-सामने रहते थे। दोनों ही नेता इलाके की राजनीति में मजबूत पकड़ रखते हैं।

    छह बार जीत चुके रामनारायण मंडल और तीन बार विधायक रह चुके जावेद इकबाल, दोनों ही मंत्री रह चुके हैं। लेकिन इस बार का चुनाव समीकरणों के लिहाज से पूरी तरह बदला हुआ है।

    राजद ने यह सीट महागठबंधन में अपने सहयोगी दल सीपीआई को दे दी है। पार्टी ने पूर्व विधान पार्षद संजय कुमार को मैदान में उतारा है। सीपीआई पहली बार इस सीट से विधानसभा चुनाव लड़ रही है और उसके प्रत्याशी भी पहली बार विधानसभा का चुनाव मैदान देख रहे हैं।

    शुरुआत में यह फैसला महागठबंधन के लिए रणनीतिक माना गया, लेकिन जमीन पर इसका असर कुछ उलट दिख रहा है। गैर-मुस्लिम उम्मीदवार मिलने से राजद का पारंपरिक मुस्लिम वोटर वर्ग नाराज है। राजद के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री जावेद इकबाल अंसारी टिकट कटने के बाद से सार्वजनिक रूप से सक्रिय नहीं दिख रहे।

    इससे कार्यकर्ताओं में भ्रम की स्थिति बनी हुई है। हालांकि, निर्दलीय मैदान में उतरे राजद नेता जमीरूद्दीन ने एक दिन पहले सीपीआई प्रत्याशी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है, लेकिन मुस्लिम वोटरों में जोश और एकजुटता अब भी नहीं दिखती।

    स्थानीय स्तर पर कई मुस्लिम मतदाता अब भी असमंजस की स्थिति में हैं कि किसे वोट दें। दूसरी ओर, सीपीआई अपने परंपरागत कैडर वोट और वाम समर्थक मतदाताओं को जोड़ने में जुटी है। छात्र और युवा वर्ग में भी कुछ सहानुभूति दिखाई देती है, लेकिन सीमित पैमाने पर।

    NDA जीत को लेकर आश्वस्त

    भाजपा के मौजूदा विधायक रामनारायण मंडल इस बार भी जीत के प्रति आश्वस्त दिख रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी-नीतीश सरकार के कामों और विकास योजनाओं का असर हर गांव में दिख रहा है। पिछले चुनाव में उन्होंने राजद के जावेद इकबाल को लगभग 17 हजार से अधिक मतों के अंतर से हराया था। इस बार वे अपने विकास कार्यों के साथ डबल इंजन सरकार की नीतियों को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। खासकर सड़कों, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में हुए कामों का हवाला दे रहे हैं।

    इस बीच, जनसुराज के उम्मीदवार कौशल सिंह भी चुनावी माहौल में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वे परंपरागत दो ध्रुवीय मुकाबले को त्रिकोणीय बना रहे हैं। निर्दलीय जवाहर झा की खासकर युवा मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के बीच उनकी पैठ बनती दिख रही है। उनके समर्थक उन्हें नए विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं।

    ये जातियां हैं निर्णायक

    बांका विधानसभा क्षेत्र में यादव, मुस्लिम, वैश्य, सवर्ण और अतिपिछड़ा मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। यह वही सामाजिक मिश्रण है जो हर चुनाव में नए समीकरण बनाता है। भाजपा को सवर्ण, वैश्य और अतिपिछड़े वर्ग से मजबूत समर्थन मिलता है, जबकि महागठबंधन परंपरागत रूप से यादव-मुस्लिम समीकरण पर निर्भर रहता आया है।

    गांवों में बैठकी और चाय की दुकानों पर चर्चा का लहजा साफ कहता है कि मुकाबला इस बार आसान नहीं। भाजपा के पास संगठन और नेतृत्व की मजबूती है, वहीं सीपीआई अपने नए प्रयोग को साकार करने में जुटी है। जनसुराज का तीसरा कोण भी पारंपरिक समीकरणों में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा है।

    बांका की हवा अभी किसी एक दिशा में नहीं बह रही, लेकिन यह तय है कि इस बार जीत का रास्ता आसान नहीं होगा। यह चुनाव बांका के मतदाताओं के लिए सिर्फ दलों का नहीं, बल्कि भरोसे और भविष्य की दिशा तय करने वाला चुनाव है।