गोपालगंज में बांसुरी बनाने वाले हुनरमंद हाथों तक नहीं पहुंची मदद, कारीगरों की उम्मीदें टूटी
गोपालगंज में बांसुरी बनाने वाले कारीगरों को प्रशासनिक मदद का इंतजार है। हथुआ प्रखंड के मिस्कार टोली में बांसुरी बनाने वालों के लिए छह साल पहले वित्तीय मदद की योजना बनी थी, जो अब तक अधूरी है। सरकारी सहायता न मिलने से कारीगरों की आर्थिक स्थिति खराब है और वे कर्ज में डूब रहे हैं। बांसुरी उद्योग को सहारा देने की पहल कागजी साबित हुई है।
-1760376165767.webp)
बांसुरी बनाने वाले कारीगर के चेहरे पर दिखती है पीड़ा। फोटो जागरण
मिथिलेश तिवारी, गोपालगंज। अब बांसुरी बनाने वाले हुनरमंद लोगों को प्रशासन से मदद मिलने की उम्मीदें टूटने लगी हैं। हथुआ प्रखंड के मिस्कार टोली में बांसुरी बनाने वाले कारीगर की मदद कर बांसुरी उद्योग को बचाने के लिए जिला प्रशासन ने पहल की थी।
इस पहल के तहत बांसुरी बनाने वालों को वित्तीय मदद उपलब्ध कराने की योजना बनाई गई। छह साल बीतने के बाद भी बांसुरी बनाने वाले कामगारों तक मदद नहीं पहुंची।
सरकारी तथा प्रशासनिक मदद नहीं मिलने से अब बांसुरी की धुन थमने सी लगी है। बांसुरी बनाने वाले कारीगर किसी तरह अपने दम पर अपने इस हुनर को जिंदा रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
हथुआ इस्टेट से जुड़ा है इतिहास
हथुआ के मिस्कार टोली में बांसुरी बनाने का इतिहास हथुआ स्टेट से जुड़ा है। हथुआ स्थित ऐतिहासिक गोपाल मंदिर में 250 साल से संध्या व प्रात: आरती के समय बांसुरी चढ़ाई जाती है।
हथुआ इस्टेट ने बांसुरी बनाने के लिए बाहर से कारीगर बुलाकर उन्हें मिस्कार टोली में बसाया। तब से इस टोली में बांसुरी बनाने का काम चलता आ रहा है। यहां बनी बांसुरी कश्मीर से लेकर नेपाल तक भेजी जाती है। अब बांसुरी बनाने वाले कारीगरों के कर्ज में डूबते चले जाने से इनकी स्थिति दयनीय हो गई है।
बांसुरी बनाने वाले कारीगर के चेहरे पर दिखती है पीड़ा
बांसुरी बनाने वाले कारीगर बशीर मियां बताते हैं कि बांसुरी बनाने के लिए असम के सिलचर जिले से नाची बांस मंगाया जाता है। इसके अलावा नरकट तथा सकंडे से भी बांसुरी बनाई जाती है।
असम से नाची बांस मंगाना काफी महंगा होता है। कारोबार सालों भर बेहतर नहीं चलने के कारण उन्हें इसमें काफी नुकसान होता है। फेकू मियां व नूर मियां बताते हैं कि यहां दो सौ मुस्लिम परिवार के लोग बांसुरी बनाते हैं।
लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति अब भी काफी खराब है। महिला कारीगर रेहाना बताती हैं कि आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण बांसुरी बनाने वाले कारीगर बांसुरी बनाने का काम छोड़कर मेहनत मजदूरी करने लगे हैं।
बांसुरी पर मिथिला पेंटिंग का मिला था प्रशिक्षण
करामात मियां बताते हैं कि साल 2001 में जिला प्रशासन ने कार्यशाला लगाकर बांसुरी बनाने वाले कारीगरों को मिथिला पेंटिंग का प्रशिक्षण दिलाया। तब से यहां के कारीगर विशेष मांग पर बांसुरी पर मिथिला पेंटिंग भी बनाते हैं। इसके बाद यहां के कारीगरों की आर्थिक समस्या अब भी कायम है।
बांसुरी उद्योग को सहारा देने की पहल कागजी
मिस्कार टोली के भोला मियां बताते हैं कि बांसुरी उद्योग को सहारा देने के लिए छह साल पहले प्रशासनिक स्तर पर पहल की गई थी। साल 2017 में तत्कालीन जिलाधिकारी ने बांसुरी बनाने वाले कारीगरों के उत्थान के लिए वित्तीय सहायता व ऋण उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करने का निर्देश संबंधित विभाग को दिया था।
डीएम के निर्देश पर बांसुरी कारीगर की मदद करने के लिए प्रशासन के स्तर पर योजना भी तैयार कर ली गई। लेकिन छह साल बीतने के बाद भी अब तक यह योजना का लाभ उन लोगों को नहीं मिल सका है। बांसुरी बनाने वाले हुनरमंद हाथ प्रशासनिक मदद मिलने का अब भी इंतजार कर रहे हैं।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।