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    बिहार के 'चाचा' गफूर: एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री की सादगी, साहस और सियासत की अनकही दास्तान

    Updated: Fri, 24 Oct 2025 10:38 AM (IST)

    बिहार की राजनीति में मुस्लिम नेतृत्व पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। अब्दुल गफूर, बिहार के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने सादगी और साहस से अपनी पहचान बनाई। उनके कार्यकाल में जेपी आंदोलन का सामना और बेबाक अंदाज हमेशा याद किए जाते हैं। आज जब मुस्लिम नेताओं को बड़े पदों से वंचित देखा जाता है, तो गफूर साहब की कहानी प्रेरणा देती है और यह सवाल भी उठाती है कि क्या पार्टियाँ मुस्लिम चेहरों को सिर्फ वोट बैंक तक सीमित रखती हैं?

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    बिहार के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर

    डिजिटल डेस्क, पटना। बिहार की सियासत में मुस्लिम चेहरों का जिक्र हो तो बीजेपी के शाहनवाज हुसैन और राजद के अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे नाम सामने आते हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि इन दिग्गजों को कभी उपमुख्यमंत्री जैसा पद भी नसीब नहीं हुआ।

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    हाल ही में महागठबंधन की संयुक्त प्रेस वार्ता में मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की चर्चा के बाद सोशल मीडिया पर सवाल गूंज रहे हैं। क्या पार्टियां मुस्लिम नेताओं को सिर्फ वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करती हैं? इस बहस के बीच, बिहार के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की कहानी याद आती है।

    1973 से 1975 तक 648 दिन के अपने कार्यकाल में उन्होंने सादगी, निडरता और तीखे तंज से बिहार की सियासत में एक अलग छाप छोड़ी। आइए 'चाचा' गफूर की अनकही दास्तानों से रूबरू हों, जो न सिर्फ उनकी जिंदादिली को बयां करती हैं, बल्कि बिहार की सियासत में मुस्लिम नेतृत्व की सच्चाई को भी उजागर करती हैं।

    ठंडा स्वागत, तूफानी शुरुआत

    गफूर साहब का सफर 2 जुलाई 1973 को शुरू हुआ, जब इंदिरा गांधी ने उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन उनका आगमन किसी तामझाम के साथ नहीं था। पटना एयरपोर्ट पर जब वो दिल्ली से लौटे, तो स्वागत में कोई समिति नहीं थी, सिर्फ अखबार लहराते हुए अकेले बाहर निकले।

    सामने सैकड़ों समर्थक पुराने सीएम दारोगा प्रसाद राय के लिए नारे लगा रहे थे, जिनमें एक युवा लालू प्रसाद यादव भी शामिल थे। ये ठंडा स्वागत उस तूफानी दौर का संकेत था, जब जेपी आंदोलन की आग बिहार को झुलसा रही थी।

    सादगी का दूसरा नाम: चाचा गफूर

    सादगी गफूर साहब की पहचान थी। 5, केजी एवेन्यू का उनका सरकारी निवास एक खुला दरबार था। कोई अपॉइंटमेंट नहीं, सीढ़ियों पर ही मिल लेते। हर शाम वो अपनी सफेद फिएट (नंबर 52) खुद चलाकर बेली रोड की पान दुकान पर पहुंचते—बिना सिक्योरिटी, बिना तामझाम। वहां सुपारी चबाते, लोगों से बतियाते। लेकिन उनकी ये सैर तब मशहूर हुई, जब लोग फुसफुसाने लगे, "हाथ में ताड़ी का मटका, मुंह में पान-ये है चाचा गफूर का अंदाज।" जी हां, वो ताड़ी के शौकीन थे। मुस्लिम मुख्यमंत्री होने के बावजूद, वो बेफिक्री से हर शाम मिट्टी के घड़े में ताड़ी का स्वाद लेते। पटना की गलियों में ये कहावत मशहूर हो गई, चाचा का स्टाइल यूनिक है—शराबी नहीं, पर ताड़ी तो बनती है।

    जेपी आंदोलन का सामना

    उनका साहस भी कमाल का था। 1974 का वो काला दिन—18 मार्च, जब जेपी आंदोलन के तहत छात्रों ने विधानसभा घेरने की कोशिश की। लालू, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान जैसे युवा नेता गांधी मैदान में डटे थे। गफूर ने इंदिरा को फोन पर कहा, "ये कदमकुआं के कायस्थों का मुहल्ला है।" फिर कड़ा फैसला लिया—कर्फ्यू, लाठीचार्ज, गोलीबारी। आठ छात्र मारे गए, अखबारों के दफ्तर जलाए गए। अफवाह उड़ी कि लालू मारा गया। गफूर ने विधानसभा में गरजते हुए कहा, सरकार का हाथ लंबा है, कोई कानून से नहीं बच सकता। इस दमन ने जेपी आंदोलन को राष्ट्रीय मंच दे दिया, जो बाद में इमरजेंसी का कारण बना।

    तीखा तंज, बेबाक अंदाज

    गफूर का तीखा तंज उनका ट्रेडमार्क था। 1975 में रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाद, दो पत्रकारों ने राज्य विमान की मांग की। गफूर ने अपने पायजामे की ओर इशारा करते हुए तंज कसा, "इतनी जल्दी है तो इसी पर बैठकर उड़ जाओ!" ये वाकया बिहार की सियासत में आज भी मशहूर है।

    एक और किस्सा रेल हड़ताल के दौरान इंदिरा का पत्र आया कि कोयला खदानों के लिए ट्रक की व्यवस्था करो। पत्रकार ने फोन किया तो गफूर ने खुद रिसीव कर जवाब दिया, ट्रक की व्यवस्था सीएम का काम है क्या? मैंने ट्रांसपोर्ट कमिश्नर को भेज दिया। पीएम को ऐसा जवाब देना आसान नहीं था, लेकिन चाचा ने कर दिखाया।

    नाटकीय विदाई, अमिट विरासत

    उनकी विदाई भी नाटकीय थी। 1975 में मिश्र हत्याकांड के बाद कांग्रेस की गुटबाजी ने उन्हें कुर्सी से हटा दिया। जगन्नाथ मिश्र ने इंदिरा से शिकायत की, "हम आपको दीदी कहते हैं, लेकिन वो हमें बहन कहकर तौहीन करते हैं।" 11 अप्रैल को नया सीएम बना। लेकिन गफूर की विरासत बची रही। बाद में वो यूनियन मंत्री बने, नीतीश की समता पार्टी में शामिल हुए और लोकसभा चुनाव जीते। 2004 में निधन तक वो फ्रेजर रोड की चाय दुकानों पर पुराने दोस्तों से गपशप करते रहे।

    मुस्लिम नेतृत्व की हकीकत

    आज जब शाहनवाज हुसैन और अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे नेताओं को बड़े पदों से वंचित देखकर सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहे हैं। गफूर साहब की कहानी याद दिलाती है कि सियासत में मुस्लिम नेतृत्व को शायद ही कभी पूरा मौका मिला। उनकी जिंदादिली, साहस और सादगी बिहार की सियासत का वो पन्ना है, जो न सिर्फ प्रेरणा देता है, बल्कि ये सवाल भी उठाता है, क्या पार्टियां वाकई मुस्लिम चेहरों को सिर्फ वोट बैंक तक सीमित रखती हैं?

    चाचा गफूर की कहानी इस बहस को एक नया आयाम देती है, एक ऐसा लीडर, जो सड़क पर अकेला चलता था, ताड़ी का प्याला थामता था और विरोधियों को आईना दिखाता था।