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    बिहार के चुनावों में निर्दलीयों की आमद बढ़ी, लेकिन सरकार पर हस्तक्षेप घटा

    Updated: Wed, 15 Oct 2025 02:51 PM (IST)

    बिहार के चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या तो बढ़ी है, पर सरकार पर उनका असर कम हुआ है। पहले वे सरकार बनाने-बिगाड़ने में अहम थे, पर अब राजनीतिक दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण उनकी भूमिका सीमित हो गई है। निर्दलीय उम्मीदवारों को अब राजनीतिक दलों से कड़ी टक्कर मिलती है और संसाधनों की कमी भी होती है। भविष्य में उनके लिए राजनीतिक परिदृश्य और चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

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    बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय

    दीनानाथ साहनी, पटना। एक जमाने में निर्दलीय जनता के विश्वास के प्रतीक माने जाते थे। इसकी नजीर है कि 1952 के पहले बिहार विधानसभा चुनाव में 14 निर्दलीयों की जीत।

    तब अत्री से रामेश्वर प्रसाद यादव, घोसी से रामचंद्र यादव, मखदुमपुर से रामेश्वर यादव, सीतामढ़ी से राम सेवक सरन, रुन्नीसैदपुर से विवेकानंद गिरि, सोनवर्षा से तिलधारी प्रसाद महतो, सुरसंड से रामचरित्र राय, बेनीपट्टी से सुबोध नारायण यादव, मधुबनी से रामकृष्ण महतो, अररिया से जियाउर रहमान हाजी, नारायणपुर से कृष्ण गोपाल दास, कतरास से मनोरमा सिन्हा, काशीपुर सह रघुनाथपुर से अन्नदा प्रसाद चक्रवर्ती, चास से देवशंकर प्रसाद सिंह ने निर्दलीय जीत कर इतिहास रच दिया था।

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    तब बिहार में पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतकर मनोरमा सिन्हा विधायक बनी थी। 2005 तक निर्दली विधायकों की संख्या दो अंकों में रही, यानी उनकी आमद कायम रही। इसके बाद चुनावों में निर्दलीयों की जीत और हस्तक्षेप घटती चली गई।

    चूंकि बिहार में चुनाव हो रहा है ताे निर्दलीय उम्मीदवारों की चर्चा लाजिमी है। यह भी उतना ही सच है कि कई मर्तबा चुनाव में मजबूत दलीय उम्मीदवारों की हार-जीत में निर्दलीय बड़े कारण बनते रहे हैं।

    मगर बीते दो-ढाई दशकों के चुनावोंं में निर्दलीयों का हस्तक्षेप कम हुआ है, जबकि ऐसे उम्मीदवारों की आमद कम नहीं हुई। चुनाव परिणामों पर गौर करें तो निर्दलीयों की जीत का आंकड़े दहाई तक कभी नहीं पहुंचा। इसकी बड़ी वजह जनता का दलीय उम्मीदवारों को प्राथमिकता देना भी है।

    पहले चुनाव 1952 से 2020 तक बिहार चुनाव में कुल 27,138 निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी अखाड़े में उतरे। इनमें 26,101 निर्दलीय उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाए। यानी 96.17 प्रतिशत उम्मीदवार बस नाम के ही चुनाव लड़े। जबकि 292 निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

    पहले जनता से सीधे सरोकार रखते थे निर्दलीय

    पहले चुनाव जीते निर्दलीय विधायकों का जनता के बीच पहचान होती थी। सीधा संवाद, जनसंपर्क और दुख-सुख में सहभागिता भी। इसलिए जनता भी ऐसे उम्मीदवारों पर भरोसा करती थी क्योंकि निर्दलीय विधायक स्थानीय मुद्दों पर काम करके जनता का विश्वास जीतते थे।

    पटना यूनिवर्सिटी एवं नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डा.रास बिहारी सिंह कहते हैं- पहली से सत्रहवीं बिहार विधानसभा का चुनाव परिणाम देखें तो 1970 से 2000 तक निर्दलीय विधायकों का स्वर्णकाल रहा। तब राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि व्यक्ति की साख और भरोसा जीत की कुंजी होती थी।

    तब सदन में भी निर्दलीय विधायकों की तूती बोलती थी, उनकी बात सुनी जाती थी। ऐसे जनप्रतिनिधि भी दलगत दबाव से मुक्त होकर जनता के मुद्दों पर कार्य करते थे।

    साठ और सत्तर के दशक में विधानसभा में सरकार को गिराने और बचाने में निर्दलीय विधायकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। पड़ोसी प्रांत झारखंड में तो निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा मुख्यमंत्री तक बने। यह देश के संसदीय इतिहास पहली घटना थी।

    वर्ष प्रत्याशियों की संख्या
    1952 14
    1957 16
    1962 12
    1967 33
    1969 24
    1972 17
    1977 24
    1980 23
    1985 29
    1990 30
    1995 12
    2000 20
    2005 (फरवरी) 17
    2005 (अक्टूबर) 10
    2010 6
    2015 4
    2020 1