वोटर अधिकार यात्रा: राहुल ने एक हाथ से कमाया तो दूसरे से गंवाया भी
वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने जिस नारे को सर्वाधिक दोहराया वह वोट चोर-गद्दी छोड़ का रहा। आक्षेप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। लगभग छह वर्ष पहले भी राहुल ने कुछ ऐसे ही शब्दों का प्रयोग किया था। वह वर्ष 2019 था। तब राफेल डील के बहाने उन्होंने चौकीदार चोर है का नारा दिया था।

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। ''वोटर अधिकार यात्रा'' के दौरान राहुल गांधी ने जिस नारे को सर्वाधिक दोहराया, वह ''वोट चोर-गद्दी छोड़'' का रहा। आक्षेप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। लगभग छह वर्ष पहले भी राहुल ने कुछ ऐसे ही शब्दों का प्रयोग किया था। वह वर्ष 2019 था। तब राफेल डील के बहाने उन्होंने ''चौकीदार चोर है'' का नारा दिया था।
चुनाव परिणाम आया तो राहुल लोकसभा में विपक्ष के नेता के लायक भी नहीं बचे। बिहार में महागठबंधन को मात्र एक सीट मिली थी। इस बार विधानसभा का चुनाव है। अब परिणाम ही तय करेगा कि राहुल के आक्षेप से जनता ने हामी भरी है या महागठबंधन के अंतर्द्वंद्व में राहुल की छवि एक बिखरे हुए राजनेता के रूप में कायम रहती है।
बिहार में राहुल की यह दूसरी यात्रा थी। कन्हैया कुमार की ''नौकरी दो-पलायन रोको'' में सहभागिता को जोड़ लें तो तीसरी। पहली यात्रा ''भारत जोड़ो न्याय यात्रा'' रही थी। तब संविधान से छेड़छाड़ और जन-अधिकारों से संबंधित उनके आरोप सीमाबद्ध थे। इस बार वह सीमा टूटी है। प्रधानमंत्री के साथ वे सीधे निर्वाचन आयोग पर आक्रामक रहे। यात्रा-मार्ग में बने एक मंच से प्रधानमंत्री की मां के लिए अपशब्दों का उपयोग हुआ। उसके बहाने एनडीए ने रार छेड़ दी है।
एनडीए नेता कटाक्ष कर रहे कि दूसरे पर चोरी का आरोप लगाने वाले के संगी-साथी ने बाइक चोरी कर ली। दरभंगा में रोड-शो के लिए राहुल के सुरक्षा गार्ड ने एक स्थानीय व्यक्ति से बाइक ली थी। वह बाइक नहीं मिली। उसके एवज में राहुल ने दूसरी बाइक दी। यह राहुल की सदाशयता थी, लेकिन विरोध पर टाफी-चाकलेट आफर करना, फिरंट मिजाज बिहार की खिल्ली बताई जा रही। वस्तुत: राजनीति में शालीनता के साथ गंभीरता की भी अपेक्षा होती है।
मोतिहारी में राजद-कांग्रेस के बीच हुए पोस्टर-वार में न शालीनता बची, न गंभीरता। एक-दूसरे के विरुद्ध प्राथमिकी तक हुई। ऐसे अंतर्द्वंद्व पर्दे के पीछे ही सही, लेकिन कदम-कदम पर रहे। अपने वर्चस्व वाले क्षेत्रों मेंं घटक दलों के बीच शक्ति-प्रदर्शन की होड़ ने बताया कि महागठबंधन में सब कुछ निरापद नहीं। यात्रा का असली उद्देश्य प्रभुत्व ही है।
इस यात्रा के जरिये राहुल की सबसे बड़ी उपलब्धि बिहार कांग्रेस को रिचार्ज और विरोधियों को अलार्म करने की रही। जो कांग्रेस अपने बूते पटना में रैली तक का साहस नहीं जुटा पा रही थी, उसने पूरे बिहार में इतना बड़ा आयोजन किया। यह बड़ी उपलब्धि रही। इससे स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस अब राजद की जेबी पार्टी बनकर नहीं रहेगी। संभवत: इसी मंशा से राहुल ने मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी यादव के नाम पर सार्वजनिक हामी नहीं भरी। राजद के भीतर उसकी बेचैनी है।
अलबत्ता घटक दलों के नेतृत्व के साथ राहुल ने अच्छी केमिस्ट्री बनाने का प्रयास किया, लेकिन उनके वाहन पर भाकपा और माकपा के नेता नहीं रहे। यह गलबहियां केरल, बंगाल, त्रिपुरा में फांस बन जाने वाली थी। पटना में वोटर अधिकार मार्च में बुलावे के बावजूद ममता बनर्जी नहीं पहुंचीं, जबकि यात्रा के दौरान दरभंगा में एमके स्टालिन ने राहुल के साथ मंच साझा किया।
स्टालिन के पिछले बोल बिहार के कलेजे में आज भी चुभते हैं। ऐसे में उनके सहारे वोट की अपेक्षा राहुल ही कर सकते हैं! एक पैर खानकाह और दूसरा मंदिर में रखने का साहस भी उन्हीं में है। दबंग जातियों के जनाधार वाले दलों से गठबंधन कर अति-पिछड़ों को रिझाने का प्रयास वस्तुत: अंतर्द्वंद्व ही है।
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