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    सारण में निर्दलीय उम्मीदवारों का सूर्यास्त, 2005 की चमक, फिर अंधेरा!

    Updated: Sat, 25 Oct 2025 11:50 PM (IST)

    सारण जिले में 2005 के विधानसभा चुनाव में गड़खा और मढ़ौरा से निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की थी। उसके बाद किसी भी निर्दलीय को सफलता नहीं मिली। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, संसाधनों की कमी और प्रचार-प्रसार के साधनों का अभाव निर्दलियों के पिछड़ने का कारण है। अब मतदाता गठबंधनों पर भरोसा जता रहे हैं, जिससे निर्दलियों की भूमिका नगण्य हो गई है।

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    सारण की सियासत में निर्दलीय 'हीरो' से 'जीरो' तक

    प्रवीण, छपरा। सारण जिले की राजनीति में वर्ष 2005 का विधानसभा चुनाव निर्दलीय प्रत्याशियों के लिए एक ऐतिहासिक पड़ाव रहा। उसी वर्ष जिले की दो विधानसभा सीटों गड़खा और मढ़ौरा से निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत का परचम लहराया था। 

    लेकिन उसके बाद अब तक किसी भी निर्दलीय प्रत्याशी को सफलता नहीं मिल पाई। बीते तीन विधानसभा चुनावों में कई निर्दलियों ने जोर आजमाइश की, लेकिन जनता ने हर बार राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों पर ही भरोसा जताया।

    लालबाबू राय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए 

    वर्ष 2005 के फरवरी महीने में हुए विधानसभा चुनाव में गड़खा से रघुनंदन मांझी और मढ़ौरा से लालबाबू राय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए थे। हालांकि, उस चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। परिणामस्वरूप बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ और अक्टूबर 2005 में दोबारा चुनाव हुए। 

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    इस बार गड़खा के निर्दलीय विधायक रघुनंदन माझी को हार का सामना करना पड़ा, जबकि मढ़ौरा से लालबाबू राय ने लगातार दूसरी बार जीत दर्ज की। इसके बाद हुए 2010, 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों ने लगातार अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन कोई भी जीत हासिल नहीं कर सका। 

    मांझी और अमनौर जैसे क्षेत्रों में निर्दलियों ने मजबूत मुकाबला किया और दूसरे स्थान तक पहुंचे, मगर जीत से दूर रह गए।

    प्रचार-प्रसार के साधनों का अभाव

    राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, निर्दलियों के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण संसाधनों की कमी और प्रचार-प्रसार के साधनों का अभाव है। पहले जहां जनसंपर्क और व्यक्तिगत पहचान के बल पर चुनाव लड़े जाते थे, वहीं अब हाईटेक प्रचार, इंटरनेट मीडिया कैंपेन, स्टार प्रचारकों और गठबंधन की ताकत से ही चुनावी नैया पार लगाई जा सकती है। 

    निर्दलीय उम्मीदवारों के पास न तो उतनी आर्थिक क्षमता होती है और न ही संगठनात्मक ढांचा, जिससे वे व्यापक स्तर पर मतदाताओं तक पहुंच सकें।

    गठबंधनों के उम्मीदवारों पर ही भरोसा 

    सारण की राजनीति में अब मुकाबला दो ध्रुवों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन के बीच सिमट गया है। मतदाता भी अब इन गठबंधनों के उम्मीदवारों पर ही भरोसा जता रहे हैं। 

    निर्दलियों के पक्ष में सहानुभूति तो रहती है, लेकिन वह वोट में तब्दील नहीं हो पाती। स्थानीय मतदाता भी मानते हैं कि अब चुनाव केवल लोकप्रियता पर नहीं, बल्कि प्रचार रणनीति, संगठन और संसाधनों की मजबूती पर निर्भर हो गया है। जिन उम्मीदवारों के पास पार्टी का समर्थन होता है, उन्हें बूथ स्तर तक सहायता मिलती है, जबकि निर्दलीयों को यह सुविधा नहीं मिल पाती। 

    2005 में गड़खा और मढ़ौरा में निर्दलीयों की जीत ने यह संकेत दिया था कि जनता यदि चाहे तो दलों से अलग भी फैसला ले सकती है। लेकिन उसके बाद के चुनावों में बदलते राजनीतिक समीकरण, संसाधनों की कमी और गठबंधनों की सशक्त पकड़ ने निर्दलीयों की राह कठिन बना दी। आज की तारीख में जिले में निर्दलियों की भूमिका लगभग नगण्य हो चुकी है और जनता का झुकाव पूरी तरह राजनीतिक दलों की ओर चला गया है।