दिल्ली कोर्ट ने दुष्कर्म पीड़िता को दी गर्भपात की इजाजत, कहा- कानून निर्माताओं को करना होगा स्पष्ट समाधान
दिल्ली हाई कोर्ट ने यौन उत्पीड़न की शिकार 15 वर्षीय नाबालिग को 27 सप्ताह का गर्भ गिराने की इजाजत दी। अदालत ने कहा कि सरकार सिर्फ अजन्मे बच्चे की रक्षा के लिए किसी को शारीरिक या मानसिक पीड़ा सहने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। अदालत ने इस मामले में कानूनी समाधान निकालने की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि पीड़िता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य सबसे अहम है।

विनीत त्रिपाठी, नई दिल्ली। यौन उत्पीड़न का शिकार 15 वर्षीय नाबालिग को 27 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मुद्दे का स्थायी कानूनी समाधान निकालने पर जोर दिया है।
न्यायमूर्ति अरुण मोंगा की पीठ ने कहा कि न्यायिक विवेक का इस्तेमाल चाहे कितनी भी संवेदनशीलता से किया जाए, विधायी निर्णय का विकल्प नहीं हो सकता। कानून को व्यवहार्यता के स्तर पर मातृ स्वायत्तता और भ्रूण अधिकारों के बीच संतुलन को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना चाहिए।
अदालत ने कहा कि निस्संदेह, जब तक ऐसी स्पष्टता प्रदान नहीं की जाती, अदालतें इस नाजुक रास्ते पर चलती रहेंगी
अदालत ने कहा कि एक भ्रूण के अधिकारों के संबंध में एक बड़ा सवाल उठता है कि इसकी कानूनी स्थिति क्या है, जो अगर जन्म दिया जाए, तो जीवित पैदा हो सकता है? अदालत ने कहा कि इस मुद्दे पर ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि एक स्पष्ट वैधानिक ढांचे के अभाव में यह मामला अनसुलझा ही रह जाता है।
अदालत ने कहा कि जहां महिला का जीवन या स्वास्थ्य खतरे में हो, वहां उसके अधिकार सर्वोपरि हैं। अदालत ने कहा कि 24 सप्ताह के अधिक की अवधि पार करने वाले ऐसे मामलों में अदालत ने विधिवत गठित चिकित्सा बोर्डों की सिफारिशों पर लगातार भरोसा किया है।
अदालत ने यह भी कहा कि संवैधानिक गारंटियों के अनुरूप सरकार किसी महिला को केवल अजन्मे जीवन की रक्षा के लिए शारीरिक या मानसिक आघात सहने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।
ऐसी कोई भी बाध्यता, वास्तव में, उसके मौलिक अधिकारों को निरर्थक और कठोर जैविक मानदंडों के अधीन कर देगी। अदालत ने कहा कि जीवित भ्रूण के अधिकार पर चिकित्सीय गर्भपात अधिनियम मौन है।
अधिक महत्वपूर्ण है पीड़िता का मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य
चिकित्सा रिपोर्ट को देखते हुए अदालत ने कहा कि भ्रूण के जीवित पैदा होने की संभावना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण अपराधियों के हाथों क्रूरता सहन करने वाली पीड़िता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य होना चाहिए।
अदालत ने कहा कि चिकित्सा विशेषज्ञों ने भी भ्रूण के जीवित रहने की संभावना को अनिश्चित बताया है। ऐसे में भ्रूण को संरक्षित करने की अनिश्चित संभावना से कहीं अधिक सुरक्षा की आवश्यकता है।
24 से 28 सप्ताह के गर्भ के बीच चिकित्सीय गर्भपात में आमतौर पर भ्रूण मृत पैदा होता है। अदालत ने कहा कि गर्भावस्था जारी रहने से पीड़िता की मानसिकता पर आघात पहुंचेगा और उसे गंभीर और अपूरणीय क्षति होगी।
डीएनए जांच के लिए संरक्षित रखा जाए भ्रूण ऊतक
अदालत ने पीड़िता की याचिका स्वीकार करते हुए निर्देश दिया कि रोहिणी सेक्टर-पांच स्थित डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर अस्पताल को जल्द से जल्द गर्भपात की प्रक्रिया पूरा करने का निर्देश दिया।
साथ ही स्पष्ट किया कि प्रक्रिया के दौरान यदि डाॅक्टरों को लगता है कि याचिकाकर्ता के जीवन को गंभीर खतरा है, तो गर्भपात प्रक्रिया को रोकने या रद करने का पूर्ण विवेकाधिकार होगा। पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि आपराधिक कार्यवाही के लिए डीएनए जांच के लिए भ्रूण को संरक्षित किया जाए।
अदालत ने कहा कि डाॅक्टर डीएनए पहचान और अभियुक्त के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले के संबंध में आवश्यक किसी अन्य उद्देश्य के लिए प्रासंगिक भ्रूण ऊतक के नमूने भी संरक्षित करेंगे।
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