आजाद हिंद फौज के अधिकारियों को कैद रखने वाली जेल का खुलेगा ताला, 1946 में रखे गए थे तीन अधिकारी
लाल किला में एक बावली (सीढ़ी वाला कुआं) में जेल बनाकर आइएनए के तीन अधिकारी रखे गए थे। बावली में यह कमरा आइएनए के तीन अधिकारियों को रखने के लिए ही बना ...और पढ़ें

वी के शुक्ला, नई दिल्ली। आइएनए (आजाद हिंद फौज - इंडियन नेशनल आर्मी) के अधिकारियों को कैद रखने वाली जेल का ताला वर्षों बाद अब खुलेगा। लाल किला में एक बावली (सीढ़ी वाला कुआं) में जेल बनाकर आइएनए के तीन अधिकारी रखे गए थे।
इस बावली का संरक्षण कार्य कराकर इसे पर्यटकों के लिए खोले जाने की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) की योजना है। नेताजी की फौज के तीन सैन्य अधिकारियों को इस बावली में कैद करके रखा गया था।
बावली में फिलहाल पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं
इस बावली में फिलहाल पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं है। मगर जिन पर्यटकों को इस बावली के बारे में जानकारी है, वे इसे देखने की चाहत रखते हैं और बाहर से देखकर लौट जाते हैं। उनमें इस बावली को लेकर सम्मान है।
लाल किले की इस बावली को लेकर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि इसे लाल किले के साथ बनाया गया था या फिर पहले की बनी है। लाल किले के स्मारकों में इस बावली का जिक्र नहीं है, हालांकि एएसआइ भी मान रहा है कि यह एक महत्वपूर्ण बावली है।
लाल किले में प्रवेश करने के बाद छत्ता बाजार से जैसे ही आगे बढ़ते हैं, बाईं तरफ मुड़ने पर करीब 40 मीटर दूर जाने पर दाहिनी ओर बावली है, जिसमें एक कमरा बना है। कहा जाता है कि यह बात किसी को पता न चल पाए कि आइएनए के अधिकारियों को कहां रखा गया है, इसलिए अंग्रेजों ने बैरकें मौजूद होने के बाद भी बावली में जेल बनाकर इन अधिकारियों को रखा था।
अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले थे ये अधिकारी
ये अधिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले अधिकारी थे। ब्रिटिश आर्मी ने बर्मा में जनरल शाहनवाज खान और उनके दल को 1945 में बंदी बना लिया था। नवंबर 1946 में मेजर जनरल शाहनवाज खान के अलावा कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबक्श सिंह को भी बंदी बनाकर इसी बावली में लाया गया था।
कहा जाता है कि बावली में यह कमरा आइएनए के तीन अधिकारियों को रखने के लिए ही बनाया गया था। इन पर अंग्रेजी हुकूमत ने मुकदमा चलाया था। उस समय वरिष्ठ अधिवक्ता भूलाभाई देसाई, पं. जवाहरलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, कैलाशनाथ काटजू एवं आसफ अली ने इन युद्धबंदियों की ओर से वकालत की थी।
चार जनवरी, 1946 को सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया था। हालांकि, कुछ समय बाद इन तीनों को जेल से आजाद भी कर दिया गया था।

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