Bihar Chunav: राजनीति में संघर्ष और ईमानदारी की बात पुरानी, अब इन गुणों को देखकर मिलती है टिकट
बिहार की राजनीति में अब संघर्ष और ईमानदारी जैसे गुणों का महत्व घट गया है। राजनीतिक दलों में टिकट वितरण अब इन मूल्यों पर आधारित नहीं है, बल्कि उम्मीदवार की क्षमता और वित्तीय स्थिति को महत्व दिया जाता है। इस बदलाव से आम जनता निराश है और युवा पीढ़ी राजनीति से दूर हो रही है।

बिहार विधानसभा चुनाव। फाइल फोटो
संवाद सूत्र, जागरण वीरपुर (बेगूसराय)। कभी राजनीति में संघर्ष, ईमानदारी और क्षेत्र की माटी से जुड़ाव ही नेताजी को टिकट दिलाने की असली पूंजी होती थी। तब किसी पार्टी का उम्मीदवार बनने के लिए वर्षों तक संगठन में काम करना पड़ता था।
जनता के सुख-दुख में साथ देने, आंदोलनों में भाग लेने और राजनीतिक शुचिता बनाए रखने के बाद ही नेताजी का नाम पार्टी के आलाकमान तक पहुंचता था लेकिन अब तस्वीर बिल्कुल बदल चुकी है। राजनीति में धनबल का दबदबा बढ़ गया है और संघर्षशील कार्यकर्ता टिकट की आस में पार्टी दफ्तरों के चक्कर लगाते रह जाते हैं।
अब हालात ऐसे हैं कि धनवान लोग कहीं से लैंड करते हैं, टिकट हाथ में होता है और चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं। पुराने कार्यकर्ता मन मसोसकर उनके समर्थन में नारे लगाते नजर आते हैं। परिणामस्वरूप राजनीति में ईमानदारी, नैतिकता, मर्यादा और जनसरोकार जैसी बातें पिछड़ गई हैं। राजनीति का अपराधीकरण बढ़ा है, और आम मतदाता इस बदलाव को गहराई से महसूस कर रहे हैं।
बुजुर्ग मतदाताओं की राय
पहले चुनाव से चार-पांच महीने पहले ही दल गांवों में चौपाल लगाकर भावी प्रत्याशी पर चर्चा करते थे। क्षेत्र से जुड़ाव और पार्टी के प्रति निष्ठा टिकट का आधार होता था। अब तो सब कुछ रुपया तय करता है। ईमानदार नेताओं की पूछ नहीं है। चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, जो लोकतंत्र के लिए बेहद घातक है। -घूरन महतो, मखवा
पहले नेताजी घर-घर जाकर लोगों से मिलते थे, स्थानीय समस्याओं को सुनते थे और फिर वोट मांगते थे। अब तो बड़ी रैली, जनसभा और इंटरनेट मीडिया ही प्रचार का माध्यम है। पहले जनता खुद चंदा देकर नेताजी को चुनाव लड़ाती थी, अब केवल अमीर ही टिकट पाते हैं और जीतने के बाद अपना भला करते हैं। -राम लखन सहनी, नौला
पूर्व के चुनावी माहौल में चौपाल लगता था। हारमोनियम और ढोलक पर गीत गाए जाते थे। नेताजी अपनी बात रखते थे और जनता से समर्थन मांगते थे। अब न ऐसे नेता बचे हैं, न वैसी आत्मीयता। ईमानदार लोग अब चुनाव नहीं लड़ते, सब कुछ पैसे का खेल बन गया है। -देवनारायण महतो, खरमौली निवासी
पहले संघर्षशील और सिद्धांतवादी नेता ही टिकट पाते थे, लेकिन अब धनबल का जमाना है। गरीब आदमी अब चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। पहले राष्ट्रीय नेताओं की सभा सुनने लोग पैदल पहुंचते थे, अब भीड़ जुटाने के लिए तरह-तरह के लालच दिए जाते हैं। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। - रामनंदन महतो, खरमौली निवासी

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