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    पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट का आदेश, अधिकारी के बरी होने पर विभागीय दंड पर पुनर्विचार करना DGP का अधिकार

    Updated: Tue, 02 Sep 2025 11:38 AM (IST)

    पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक पुराने मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि डीजीपी अपने आदेश की समीक्षा नहीं कर सकते लेकिन आपराधिक मामले में बरी होने पर विभागीय दंड पर पुनर्विचार करना उनका अधिकार है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि डीजीपी अधीनस्थ अधिकारियों के आदेशों पर पुनर्विचार कर सकते हैं।

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    पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का फाइल फोटो

    राज्य ब्यूरो, चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने हरियाणा पुलिस के एक अधिकारी से जुड़े करीब 30 साल पुराने विवाद का पटाक्षेप करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) अपने ही आदेश की समीक्षा तो नहीं कर सकते, लेकिन आपराधिक मामले में बरी होने पर विभागीय दंड पर पुनर्विचार करना उनका अधिकार और कर्तव्य है।

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    फरवरी 1995 में हरियाणा पुलिस के रोहतक निवासी एक अधिकारी पर चोरी के तहत मामला दर्ज हुआ था। विभागीय कार्रवाई के बाद 1996 में उन्हें सजा दी गई और छह वेतन वृद्धियां स्थायी रूप से काट दी गईं। बाद में ट्रायल कोर्ट ने अधिकारी को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इस पर उन्होंने पुलिस महानिदेशक के समक्ष अपील दायर की।

    तत्कालीन डीजीपी ने तीन जनवरी 2002 को सजा को वापस ले लिया। लेकिन पांच सितंबर 2006 को नए डीजीपी ने यह फैसला पलटते हुए दंड को फिर से बहाल कर दिया। यहीं से लंबा विवाद शुरू हुआ था,जो अब जाकर खत्म हुआ।

    हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस जगमोहन बंसल की एकल पीठ ने कहा कि पंजाब पुलिस नियमावली अधिकारियों को यह जिम्मेदारी देती है कि यदि कोई कर्मचारी आपराधिक मामले में बरी होता है तो उसकी विभागीय सजा पर पुनर्विचार करना अनिवार्य है।

    हाई कोर्ट ने कहा कि बरी होने के बाद भी विभागीय दंड बरकरार रह सकता है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि अधिकारियों के पास पुनर्विचार का अधिकार ही नहीं है। हाई कोर्ट ने कहा- डीजीपी अपने ही आदेश की समीक्षा नहीं कर सकते, लेकिन विभागीय दंड पर पुनर्विचार जरूर कर सकते हैं। 

    कोर्ट ने माना डीजीपी की तरफ दंड रद करना वैध था हाई कोर्ट ने नियम का हवाला देते हुए यह भी स्पष्ट किया कि डीजीपी अपने ही आदेश की समीक्षा नहीं कर सकते। समीक्षा का अधिकार केवल उच्चतर अधिकारी को है। लेकिन यदि मामला अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा दिए गए आदेशों से जुड़ा है तो डीजीपी पुनर्विचार कर सकते हैं।

    इस आधार पर कोर्ट ने माना कि 2002 में तत्कालीन डीजीपी द्वारा दंड रद करना वैध था, जबकि 2006 में नए डीजीपी द्वारा उस आदेश को पलटना उचित नहीं था। हाई कोर्ट ने कहा कि यह कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि डीजीपी ने बरी होने के बाद याचिकाकर्ता का मामला सही तरीके से विचाराधीन किया। वे शक्तिहीन नहीं थे।

    अतः याचिका स्वीकार की जाती है और विवादित आदेश निरस्त किए जाते हैं। हाईकोर्ट ने साफ कर दिया कि डीजीपी अपने ही आदेश की समीक्षा नहीं कर सकते, लेकिन विभागीय दंड पर पुनर्विचार कर सकते हैं।