रेवाड़ी की निर्मला यादव मशरूम की खेती से लिख रहीं आत्मनिर्भरता की कहानी, प्रतिमाह 40-45 कुंतल कर रहीं प्रोडक्शन
रेवाड़ी जिले के घासेड़ा गांव की निर्मला यादव पारंपरिक खेती के साथ मशरूम उत्पादन कर आत्मनिर्भर बनीं। 59 वर्षीय निर्मला मशरूम की खेती से प्रतिमाह 40-45 क्विंटल उत्पादन कर रही हैं और रेवाड़ी गुरुग्राम दिल्ली तक सप्लाई करती हैं। उन्होंने साबित कर दिया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और जीवन में कभी भी नई शुरुआत की जा सकती है।

ज्ञान प्रसाद, रेवाड़ी। कुछ नया करने का जज्बा और उत्साह हो तो किसी भी उम्र में कोई भी काम किया जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण जिले के घासेड़ा गांव में रहने वाली निर्मला यादव हैं। वह आज गांव ही नहीं शहर के भी लिए आत्मनिर्भर और स्वावलंबन की प्रेरक व्यक्तित्व हैं। 59 वर्षीय निर्मला यादव पत्नी अरुण कुमार वर्षों तक पारंपरिक खेती से जुड़ी रहीं। अब वह करीब दो साल से सफेद बटन मशरूम का उत्पादन कर परिवार की अतिरिक्त आमदनी का जरिया बनने के साथ कुछ अलग करने के लिए लोगों को जागरूक कर रही हैं।
बातचीत के दौरान निर्मला ने कहा कि सीखने और आगे बढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। आज उनकी मेहनत और प्रयास से प्रतिमाह 40 से 45 क्विंटल मशरूम का उत्पादन कर रेवाड़ी के साथ गुरुग्राम और दिल्ली की आजादपुर मंडी तक सप्लाई होती है। प्रति किलोग्राम मशरूम से 40 से 50 रुपये तक की आमदनी हो जाती है।
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वातानुकूलित मशरूम फार्म की शुरुआत की
ऐसे में पूरे साल मशरूम की खेती करते हुए परिवार के अतिरिक्त आय का माध्यम बनी हुईं हैं। निर्मला यादव बताती हैं कि उनकी पुत्र वधू दीपिका यादव ने कुछ वर्ष पूर्व घर पर रहते हुए सिर्फ कृषि पर ही निर्भरता से बचते हुए कुछ अलग करने की सोच जाहिर की। इस पर परिवार के सदस्यों की सलाह और सहमति से गांव में ही एक वातानुकूलित मशरूम फार्म की शुरुआत की।
पहले तो घर और आस पड़ोस में मशरूम खिलाने लगे। धीरे धीरे इसका विस्तार करना शुरू कर दिया। अब सालभर सफेद बटन मशरूम का उत्पादन किया जाता है। शुरुआत में निर्मला यादव ने कुछ श्रमिकों के साथ साधारण कामों में सहयोग देना शुरू किया लेकिन जल्द ही उनके भीतर मशरूम उत्पादन की तकनीक को जानने और समझने की उत्सुकता बढ़ने लगी।
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धीरे-धीरे होती गईं पारंगत
धीरे-धीरे उन्होंने मशरूम खेती की बारीकियां सीखनी शुरू की जिसमें खाद (कंपोस्ट) कैसे तैयार होती है, कितने तापमान पर उसका पाश्चुरीकरण किया जाता है, उत्पादन कमरे में कितनी नमी, तापमान और कार्बन डाइ आक्साइड स्तर बनाएं आदि बिंदुओं को समझने और अध्ययन करना शुरू किया। आज वह पारंपरिक खेती को पीछे छोड़ आधुनिक और पर्यावरण नियंत्रित खेती में निपुणता हासिल कर चुकी हैं। वह न केवल फार्म के तकनीकी पहलुओं की निगरानी करती हैं बल्कि श्रमिकों के प्रबंधन में भी सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।
सीखने का जज्बा हो तो सबकुछ संभव
आज उनके इस फार्म से तीन से चार श्रमिक भी जुड़े हुए हैं जो नियमित रूप से किसी न किसी माध्यम से रोजगार प्राप्त किए हुए हैं। निर्मला यादव कहती हैं कि यह बदलाव केवल उनके परिवार के लिए ही नहीं बल्कि समूचे ग्रामीण समुदाय के लिए सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की मिसाल बन गया है। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि अगर सीखने का जज्बा हो तो जीवन के किसी भी चरण में नई शुरुआत संभव है।

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