Himachal News: नाहन में श्रीरेणुकाजी मेले का शुभारंभ, 5 नवंबर तक विभिन्न कार्यकर्मों की धूम; आएंगे लाखों श्रद्धालु
कार्तिक मास में श्रीरेणुकाजी मेला शुरू हो गया है, जो माता रेणुकाजी और भगवान परशुराम के मिलन का उत्सव है। यह मेला 5 नवंबर तक चलेगा और इसमें धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे। हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा से लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। मेले में माता की आरती, सांस्कृतिक संध्याएं और भगवान परशुराम की कथा का मंचन होगा। श्रद्धालु एकादशी और कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान करेंगे।

कार्तिक मास में माता श्रीरेणुकाजी और पुत्र भगवान परशुराम जी के अलौकिक मिलन का उत्सव है यह मेला (फोटो: जागरण)
जागरण संवाददाता, नाहन। उत्तर भारत के प्राचीन और श्रद्धापूर्ण मेलों में से एक अंतरराष्ट्रीय श्रीरेणुकाजी मेले कार्तिक मास में शुक्रवार को शुरू हो गया है।
मां श्री रेणुकाजी और उनके पुत्र भगवान परशुराम जी के उस अलौकिक मिलन का उत्सव है यह मेला, जिसका साक्षी बनने के लिए लाखों श्रद्धालु वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं।
5 नवंबर तक चलने वाले इस मेले के साथ ही उत्तरी भारत के इस प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर धार्मिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक उल्लास की धूम शुरू हो जाएगी। यह मेला हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा के लाखों श्रद्धालुओं की अटूट आस्था का केंद्र है। मां-बेटे के वात्सल्य और श्रद्धा का अनूठा संगम
यह मेला हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी से पूर्णिमा तक उत्तरी भारत के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री रेणुकाजी में मनाया जाता है। इतिहासकारों के अनुसार भगवान परशुराम वर्ष में एक बार अपनी मां रेणुकाजी से मिलने आते हैं।
हर किसी को इस दिव्य मिलन का बेसब्री से इंतजार होता है, जो मां रेणुकाजी के वात्सल्य और पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा संगम है।
श्रीरेणुकाजी तीर्थ में नारी देह के आकार की प्राकृतिक झील स्थित है, जिसे मां रेणुकाजी की प्रतिछाया माना जाता है। इसी झील के किनारे मां रेणुकाजी और भगवान परशुराम जी के भव्य मंदिर स्थित हैं।
6 दिवसीय इस मेले में आसपास के कई ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर इस दिव्य मिलन में शामिल होंगे। मेले में प्रत्येक दिन झील के किनारे माता श्रीरेणुकाजी की भव्य आरती का आयोजन होगा।
मनोरंजन के लिए मेले में 5 सांस्कृतिक संध्याएं होंगी, जिनमें कलाकार जनसमूह का मनोरंजन करेंगे, जबकि अंतिम दिन भगवान परशुराम की कथा का मंचन होगा। श्रद्धालुओं के लिए 1 नवंबर को प्रातः 4 बजे पवित्र रेणुकाजी झील में एकादशी स्नान और 5 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर स्नान का विशेष महत्व है। सुरक्षा के विशेष प्रबंध किए गए हैं।
यह कथा प्राचीन आर्यव्रत के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा है, जो भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम और उनकी माता रेणुकाजी के त्याग, प्रेम और अटूट बंधन को दर्शाती है।
प्राचीन काल में हैहय वंशी क्षत्रिय राजा राज करते थे, जिनकी राज पुरोहिती भृगुवंशी ब्राह्मण संभालते थे। इसी भृगुवंश में महर्षि ऋचिक के पुत्र महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। उनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की पुत्री रेणुका से हुआ।
यह दंपत्ति इस क्षेत्र में 'तपे का टीला' नामक स्थान पर तपस्या में लीन रहने लगा। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को माता रेणुकाजी के गर्भ से भगवान परशुराम ने जन्म लिया, जिन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। परशुराम उन अष्ट चिरंजीवियों में शामिल हैं, जो आज भी अमर हैं।
महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु नामक एक दिव्य गाय थी, जिसे पाने की लालसा तत्कालीन राजाओं में थी। राजा सहस्त्रार्जुन, जिसे भगवान दत्तात्रेय से हजार भुजाओं का वरदान प्राप्त था। एक दिन कामधेनु मांगने आश्रम पहुंचा।
महर्षि जमदग्नि ने उसका और उसके सैनिकों का खूब सत्कार किया, लेकिन समझाया कि कामधेनु गाय कुबेर जी की धरोहर है, जिसे किसी को नहीं दिया जा सकता। यह सुनकर क्रोध से भरे सहस्त्रार्जुन ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी।
अपने पति की मृत्यु से शोकाकुल माता रेणुकाजी स्वयं को राम सरोवर में समर्पित कर बैठीं, जिससे सरोवर का आकार स्त्री देह जैसा हो गया। उस समय महेंद्र पर्वत पर तपस्या कर रहे भगवान परशुराम को अपनी योगशक्ति से माता-पिता के साथ हुए इस घटनाक्रम का बोध हुआ।
तपस्या टूटते ही वह अत्यंत क्रोधित हुए और सहस्त्रबाहु को ढूंढने निकल पड़े। उन्होंने उसे आमने-सामने के युद्ध के लिए ललकारा और परमवीर परशुराम ने अपनी सेना सहित सहस्त्रबाहु का वध कर दिया। प्रतिशोध पूर्ण होने के बाद भगवान परशुराम ने अपनी योगशक्ति का प्रयोग कर पिता जमदग्नि और माता रेणुकाजी को पुनर्जीवित कर दिया।
एक दूसरी कथा भी प्रचलित है, जो माता रेणुकाजी के सतीत्व और परशुराम की पितृभक्ति की परीक्षा को दर्शाती है। इस कथा के अनुसार महर्षि जमदग्नि कठोर तपस्या में लीन रहते थे और उनकी पत्नी रेणुका पतिव्रता धर्म का पालन करती थीं।
वह नित्य प्रतिदिन गिरि गंगा से जल लाती थीं। एक दिन जब वह जल लेकर सरोवर से आ रही थीं, तो उन्होंने दूर एक गंधर्व जोड़े को प्रेम क्रीड़ा में व्यस्त देखकर क्षण भर के लिए अपने मन को विचलित कर दिया और आश्रम पहुंचने में विलंब हो गया।
महर्षि जमदग्नि ने अपने अंतर्ज्ञान से विलंब का कारण जान लिया और रेणुकाजी के सतीत्व पर संदेह करने लगे। क्रोधित ऋषि ने अपने सौ पुत्रों को एक-एक करके माता रेणुकाजी का वध करने का आदेश दिया, परंतु उनमें से किसी ने भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया।
अंततः पुत्र परशुराम ने पिता की आज्ञा मानते हुए माता का वध कर दिया। इससे प्रसन्न होकर ऋषि जमदग्नि ने परशुराम से वर मांगने को कहा। परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करने के बाद अपने पिता से अपनी माता रेणुकाजी को पुनर्जीवित करने का वरदान मांगा।
माता रेणुकाजी ने पुनर्जीवित होने पर यह वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन डेढ़ घड़ी के लिए अपने पुत्र भगवान परशुराम से अवश्य मिला करेंगी। यह डेढ़ घड़ी का मिलन आज के लगभग डेढ़ दिन के बराबर माना जाता है।
तब से हर साल कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को यह मिलन होता है और यह प्रसिद्ध मेला आरंभ होता है, जो लोगों की श्रद्धा और भारी जनसैलाब को देखते हुए कार्तिक शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक आयोजित किया जाता है।

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