केरल की नाट्य परंपरा की आत्मा है कथकली संगीत, 17वीं शताब्दी में विकसित हुई थी यह कला
कथकली केरल की एक अहम सांस्कृतिक पहचान है, जो नृत्य, अभिनय और कथा का अनूठा संगम है। 17वीं शताब्दी में धार्मिक कहानियों को मंच पर प्रस्तुत करने के लिए कथकली संगीत विकसित हुआ, जो कर्नाटक संगीत पर आधारित है। इसमें कलाकार संवाद नहीं बोलते, बल्कि गायक उनके लिए गाते हैं और पात्र भाव-भंगिमाओं से अभिव्यक्ति करते हैं।

धार्मिक कथाओं की प्रस्तुति के लिए हुई थी कथकली संगीत की शुरुआत (Picture Courtesy: Freepik)
लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। कथकली संगीत, केरल की सांस्कृतिक पहचान का अहम हिस्सा है। यह केवल एक संगीत शैली नहीं, बल्कि नृत्य, अभिनय, कथा और नाट्य का ऐसा मिला-जुला रूप है, जो दर्शक को बेहद ही अनोखा अनुभव महसूस कराता है।
कथकली की उत्पत्ति लगभग 17वीं शताब्दी में मानी जाती है, जब इसे धार्मिक कथाओं और पुराणों को मंच पर प्रस्तुत करने के लिए विकसित किया गया था। धीरे-धीरे यह कला रूप केरल की पारंपरिक नाट्य परंपरा का प्रतीक बन गया।

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संगीत से होता है संवाद
कथकली में संगीत की अहम भूमिका होती है। यह न केवल नृत्य की लय को निर्धारित करता है, बल्कि कहानी की भावनाओं और पात्रों की अभिव्यक्ति को भी जिंदा करता है। कथकली में कलाकार खुद संवाद नहीं बोलते, बल्कि गायक उनके लिए गाते हैं। पात्र केवल भाव, मुद्रा और आंखों से संवाद को प्रस्तुत करते हैं। इस तरह संगीत ही कथकली का आत्मा बन जाता है।
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कर्नाटक संगीत पर आधारित
कथकली संगीत मूल रूप से कर्नाटक संगीत प्रणाली पर आधारित है, किंतु इसमें केरल की स्थानीय शैली, मलयाली भाषा की मधुरता और भक्ति भावना का अनोखा संगम देखने को मिलता है। इसे कई विद्वान कर्नाटक संगीत का नाट्य रूपांतर भी कहते हैं। इसकी गायकी में नाटकीयता और गहराई का खास महत्व होता है, जो कथा के उतार-चढ़ाव के अनुसार स्वर, लय और ताल में बदलाव लाती है।
कथकली के संगीत में दो प्रमुख गायक होते हैं-
- पोनानी (मुख्य गायक)- जो राग और भाव के साथ पूरे गायन का नेतृत्व करता है।
- शंकरण (सहगायक)- जो लय और ताल में सहयोग करते हुए मुख्य गायक का साथ देता है।
इन गायकों के साथ कई वाद्य यंत्र भी शामिल होते हैं, जैसे-
- चेंडा- यह मुख्य ताल वाद्य है, जिसकी तेज ध्वनि युद्ध या वीरता के दृश्यों में जोश भर देती है।
- मड्डुलम- यह दो सिरों वाला ढोल है, जो गंभीर और मध्यम स्वर देता है।
- इलथलम- छोटे झांझ जैसे वाद्य, जो ताल की निरंतरता बनाए रखते हैं।
- शंख और चेरुमुला- इनका इस्तेमाल धार्मिक या रहस्यमय दृश्यों में किया जाता है, जिससे नाट्य वातावरण में गहराई और रहस्य का भाव आता है।
मणिप्रवालम भाषा में रचे जाते हैं गीत
कथकली के गीत आमतौर पर मणिप्रवालम भाषा में रचे जाते हैं, जो संस्कृत और मलयालम का सुंदर मिश्रण है। इन गीतों को अट्टाकथा कहा जाता है, जिसका अर्थ है-‘अभिनय के लिए कथा’। अट्टाकथा साहित्य में कल्लूर रामन, अष्टमंगलम रामन और कविल पिल्लई जैसे लेखक खासतौर से मशहूर हैं।

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