Bihar Politics: जातिवार गणना का हल्ला, टिकट बंटवारे की हकीकत; बिहार में सियासी उठापटक
बिहार में जातिगत जनगणना के बाद भी राजनीतिक दलों ने टिकट बंटवारे में सामाजिक न्याय को प्राथमिकता नहीं दी। 'जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा खो गया। अति पिछड़ी और दलित आबादी हाशिये पर रही, जबकि यादवों और सवर्णों को अधिक प्रतिनिधित्व मिला। कांग्रेस, राजद और भाजपा जैसे दलों ने भी सामाजिक समीकरणों को साधा, लेकिन वंचित समुदायों को उचित हिस्सा नहीं मिला।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025।
अरविंद शर्मा, जागरण नई दिल्ली। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल अब अपने ही घोषणापत्र और नारों से पीछे हटते दिख रहे हैं। बिहार में जातिवार गणना के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है, लेकिन “जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'' का शोर टिकट बंटवारे की हकीकत में गुम हो गया है।
सत्ता में बराबरी की उम्मीद पालने वाली 36 प्रतिशत अति पिछड़ी और 19 प्रतिशत दलित आबादी फिर हाशिये पर खड़ी है। सभी दलों ने जीत के गणित को तरजीह दी। टिकट उन्हीं को दिए गए जिनके पास बाहुबल, धनबल और प्रभावशाली जनाधार था। सामाजिक प्रतिनिधित्व की बजाय जातीय प्रभुत्व ही निर्णायक रहा।
छोटे-छोटे उपसमूहों में बंटी अति पिछड़ी जातियां
छोटे-छोटे उपसमूहों में बंटी अति पिछड़ी जातियां, जो कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा हैं, टिकट बंटवारे की प्रक्रिया में फिर से हाशिए पर हैं। जिन जातियों के नाम पर सामाजिक न्याय का बिगुल बजाया गया, वे अब प्रभावशाली वर्गों के हिस्से में आए टिकट गिनने को मजबूर हैं। यादवों के साथ दशकों से गठजोड़ कर बिहार की राजनीति को प्रभावित करने वाले मुस्लिम मतदाता भी इस बार अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
टिकट बंटवारे में सामाजिक गणित को भूल गई कांग्रेस
राष्ट्रीय स्तर पर जातिवार जनगणना की मांग को लेकर सबसे ऊंची आवाज उठाने वाली कांग्रेस भी बिहार में टिकट देने के वक्त सामाजिक गणित को भूल गई। जातिवार गणना को राजनीतिक मुहिम बनाने वाली राजद ने भी सत्ता की हिस्सेदारी में अपने ही नारे को दरकिनार कर दिया। जदयू के साथ सरकार में रहते हुए राजद ने गिनकर बताया था कि बिहार में किस जाति की संख्या कितनी है, पर जब टिकटों का पिटारा खुला तो सामाजिक न्याय के सारे दावे आंकड़ों के नीचे दब गए।
महागठबंधन में राजद ने किस जाति को दीं कितनी सीटें?
महागठबंधन में राजद को कुल 143 सीटें मिलीं, जिनमें 21 अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित हैं। बची 122 सीटों में यादव उम्मीदवारों की संख्या 53 है, जबकि उनकी आबादी मात्र 14 प्रतिशत है। मुस्लिम, जिनकी आबादी 17.7 प्रतिशत है, उन्हें सिर्फ 18 टिकट मिले हैं। यानी मुस्लिम एवं एससी-एसटी आरक्षित सीटों को हटाने पर बची 104 सीटों में से आधे से ज्यादा यादव प्रत्याशी हैं। जाहिर है, सत्ता में हिस्सेदारी का सपना दिखाने वाले दलों ने अन्य पिछड़ी जातियों को इस समीकरण से बाहर रखा है।
राजद ने सत्ता समीकरण साधने के लिए कोइरी को तीसरा बड़ा हिस्सा दिया और भूमिहार-राजपूत जैसी प्रभावशाली जातियों को भी समायोजित किया। मगर कई अन्य पिछड़ी जातियों की अनदेखी ने पार्टी की सामाजिक न्याय की छवि पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
भाजपा की नीति शुरू से स्पष्ट है। वह मानकर चलती है कि मुस्लिम मत उसे नहीं मिलते, इसलिए टिकट वितरण में इस वर्ग की अनदेखी करती है। लेकिन यह तथ्य और अधिक चुभता है कि जिस दल (राजद) को मुस्लिमों का राजनीतिक समर्थन वर्षों से मिला, उसने भी उन्हें हिस्सेदारी में पिछला दरवाजा दिखा दिया।
बिहार में मुस्लिमों के बाद यादव सबसे बड़ी जातीय इकाई है। उन्हें अधिक प्रतिनिधित्व मिलना लाजिमी है, पर जब यह प्रतिनिधित्व समानुपातिकता से बढ़कर वर्चस्व में बदल जाए तो नारा अपनी नैतिकता खो देता है।
एनडीए ने जातीय गणित को साधा
एनडीए ने भी जातीय गणित को अपने अनुसार साधा है। प्रदेश की 204 अनारक्षित सीटों में 75 सीटों पर सवर्ण प्रत्याशी उतरे हैं। बिहार की राजनीति में जातिवार गणना का हल्ला जितना ऊंचा था, हिस्सेदारी की सच्चाई उतनी ही निराशाजनक है। जिन दलों ने सामाजिक न्याय को अपने अस्तित्व का आधार बनाया, वही आज सत्ता समीकरण के आगे उस न्याय की भावना को गिरवी रख चुके हैं। सवाल यह है कि जब जातिवार गणना का उद्देश्य ही बराबरी की हिस्सेदारी था, तो बिहार की 55 प्रतिशत वंचित आबादी आज भी प्रतिनिधित्व की कतार के आखिर में क्यों खड़ी है?
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