बिहार चुनाव ग्राउंड रिपोर्ट: महागठबंधन के सामने ये है सबसे बड़ी चुनौती, आसान नहीं होगी राह
बिहार के चंपारण में एनडीए और महागठबंधन के बीच कड़ा मुकाबला है। मतदाता बदलाव और सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रख रहे हैं। महागठबंधन को बदलाव फैक्टर पर परखा जा रहा है, वहीं एनडीए को यथास्थितिवाद का लाभ मिल सकता है। युवाओं में बदलाव की चर्चा है, लेकिन जातीय समीकरणों का प्रभाव बना हुआ है। राजद के सामने कुछ जातीय समूहों के प्रभुत्व की आशंका एक बड़ी चुनौती है।

महागठबंधन के सामने ये है सबसे बड़ी चुनौती। फाइल फोटो
संजय मिश्र, जागरण बेतिया। बिहार की सियासत में पिछले कई वर्षों से एनडीए के सबसे मजबूत गढ़ रहे महात्मा गांधी की कर्मभूमि चंपारण के दोनों जिलों पूर्वी और पश्चिमी की चुनावी फिजा में इस बार सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कड़े मुकाबले की गूंज कुछ ज्यादा सुनाई दे रही है।
मगर इसके बावजूद मतदाता चुनाव को स्थानीय सामाजिक समीकरणों के साथ-साथ बदलाव बनाम यथास्थितिवाद की कसौटी पर परख रहे हैं। बदलाव फैक्टर पर जहां महागठबंधन को कसौटी पर कसा जा रहा है वहीं शासन-राजनीति पर एक सामाजिक समूह का हस्तक्षेप बढ़ने की आशंका में यथास्थितिवाद का फैक्टर एनडीए के लिए भी नकारात्मक नहीं है।
चंपारण बदलेगा खेल
चुनावी फैक्टर के इन दिलचस्प पहलुओं के बीच इसमें संदेह नहीं कि पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण के अपने गढ़ में पिछले चुनावी प्रदर्शन को दोहराने की एनडीए की राह आसान नहीं है।
एनडीए के 2020 में बिहार में सत्ता में आने में वास्तव में सबसे बड़ी भूमिका चंपारण की रही थी और इन दोनों जिलों की कुल 21 विधानसभा सीटों में भाजपा-जदयू को 17 सीटों पर मिली जीत इसका प्रमाण है।
महागठबंधन और एनडीए के बीच पिछले चुनाव में 10-12 सीटों के अंतर से ही सत्ता का फैसला हुआ था। ऐसे में एनडीए तथा महागठबंधन दोनों खेमों की ओर से चंपारण में अपने सियासी चांस बेहतर बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही और दोनों खेमों के दिग्गज राष्ट्रीय नेताओं ने अपने चुनावी दौरे अब धुआंधार कर दिए हैं।
महागठबंधन के लिए जातीय समीकरण चुनौती
इन नेताओं के दौरे से चुनावी विमर्श को गर्मी तो मिल रही मगर निर्विवाद रूप से इनका भाषण वोटिंग का असल फैक्टर नजर नहीं आता। युवाओं तथा प्रौढ़ वर्ग के बीच 20 साल के सत्ता के ठहराव को बदलने को चर्चा तो है मगर यह साफ तौर सामाजिक-जातीय घेरेबंदी के दायरे से बाहर निकलकर निर्णायक दिशा में नहीं दिख रहा है। चुनाव में बदलाव होते रहने की सैद्धांतिक चर्चा में तो सभी वर्गों के बीच व्यापक सहमति दिखती है।
मगर बदलाव के लिए सामने मौजूद विकल्प को लेकर जब महागठबंधन चर्चा होती है तो साफ तौर पर शासन से लेकर स्थानीय सामाजिक परिदृश्य में कुछ जातीय समूहों के प्रभुत्व की आशंका इसमें ब्रेकर बनती दिख रही है। जाहिर तौर पर यह आशंका महागठबंधन के सबसे बड़े दल राजद की सत्ता की राह में सबसे बड़ी चुनौती है।
चंपारण में एनडीए-महागठबंधन में कड़ी टक्कर
पूर्वी चंपारण के रक्सौल हाइवे पर एक लाइन होटल में ऐसी ही चुनावी चर्चा करते कुछ लोगों में से मुखर व्यापारी राजेंद्र कुमार ने कहा विधायक-सरकार सबसे हम परेशान आएं मगर हमारे सामने जो विकल्प है उसमें आशंका है कि शासन और समाज दोनों स्तरों पर दबंगई लौट सकती है और इसलिए हमारे सामने दुविधा तथा विवशता दोनों है।
मोतिहारी शहर के एक प्रमुख चिकित्सक नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि सत्ता तो बदलनी चाहिए और प्रशांत किशोर एक उम्मीद लेकर आए हैं मगर वे बदलाव का वाहक बनेंगे इसमें संदेह है तो फिर बहुत ज्यादा प्रयोग की गुंजाइश कहां है।
वहीं पूर्वी चंपारण के कोटवा बाजार के एक व्यवसायी ज्ञानेश्वर प्रसाद यह कहने से गुरेज नहीं करते कि जब तक बिहार के लोग सामाजिक जातीय मानकों की कसौटी से उपर उठकर प्रगतिशील राज्यों की तरह हर पांच साल में सत्ता की अदला-बदली नहीं करेंगे तब तक प्रदेश की व्यापक प्रगति का रास्ता नहीं खुलेगा।
स्थानीय मुद्दे चुनाव को प्रभावित करेंगे
रक्सौल बार्डर के समीप भारत पेट्रोलियम के एक पेट्रोल पंप पर कार्यरत एक प्रौढ तथा एक युवा कर्मचारी हो या विशुनपुर गांव के किसान रंजीत कुमार सिंह सब स्थानीय विधायक तथा सरकार से अपनी अपेक्षाएं पूरी नहीं होने की खूब शिकायत करते हैं।
मगर इस आधार पर क्या वे वोट करेंगे तब उनकी बातों से साफ था कि स्थानीय सामाजिक समीकरण उनके निर्णय को ज्यादा प्रभावित करेगा।

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