'इच्छा के विरुद्ध...', डीएनए जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि डीएनए जांच एक गंभीर प्रक्रिया है और इसे सामान्य तौर पर नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश केवल तभी दिए जाएं जब न्याय की मांग अत्यावश्यक हो। अदालत ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध डीएनए जांच के लिए बाध्य करना निजता का उल्लंघन है। यह टिप्पणी मद्रास हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ आई थी।

डीएन जांच को लेकर क्या बोला सुप्रीम कोर्ट?
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि डीएनए जांच एक अत्यंत हस्तक्षेपकारी प्रक्रिया है, जिसे किसी मामले में सामान्य रूप से नहीं कराया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश केवल कड़ी संवैधानिक व कानूनी सुरक्षा के तहत ही दिए जाएं, ताकि व्यक्ति की गरिमा और विवाह के दौरान जन्मे बच्चों की वैधता प्रभावित न हो।
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और विपुल पंचोली की पीठ ने कहा कि डीएनए टेस्ट का आदेश तभी दिया जाना चाहिए जब न्याय की मांग अत्यावश्यक रूप से इस तरह की प्रक्रिया को अनिवार्य बनाती हो। अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध डीएनए जांच के लिए बाध्य करना निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर आक्रमण है, जिसे तभी उचित ठहराया जा सकता है जब यह वैधानिकता, वैध राज्य उद्देश्य और अनुपातिकता के तीनों मानकों पर खरा उतरे।
पीठ ने क्या कहा?
पीठ ने कहा कि अदालतों को सतर्क रहना होगा कि विज्ञानी साक्ष्य के लिए वैध अनुरोध की आड़ में फिशिंग जांच न होने पाए। अटकलबाजी की वजह से पारिवारिक रिश्तों की पवित्रता से समझौता न हो। यह टिप्पणी तमिलनाडु के एक डॉक्टर की याचिका पर आई, जिसमें मद्रास हाईकोर्ट ने उसे डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए रक्त का नमूना देने का निर्देश दिया था।
क्या है मामला?
मामला एक मुस्लिम महिला की शिकायत से जुड़ा था, जिसमें उसने आरोप लगाया था कि इलाज के दौरान डाक्टर ने उससे शारीरिक संबंध बनाए और 2007 में जन्मे बच्चे का पिता वही है।
महिला के आरोपों के आधार पर डाक्टर के खिलाफ आईपीसी की धारा 417, 420 और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4(1) के तहत एफआईआर दर्ज हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये आरोप ऐसे नहीं हैं जिनके लिए डीएनए टेस्ट आवश्यक हो।
पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को रद करते हुए कहा कि वह कानूनी ढांचे और संवैधानिक सुरक्षा दोनों की गलत समझ पर आधारित था। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सीआरपीसी की धारा 53 और 53ए केवल उन मामलों में चिकित्सा परीक्षण की अनुमति देती है, जहां परीक्षण से अपराध के सीधे प्रमाण मिलने की संभावना हो।
अदालत ने कहा, ''वैज्ञानिक प्रक्रियाएं अनुमान लगाने के साधन नहीं बन सकतीं। उनका उपयोग तभी हो सकता है जब वे आरोप के संदर्भ में प्रत्यक्ष रूप से प्रासंगिक हों और जांच की जरूरत से उचित ठहराई जा सकें।''
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