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    'चीन पर भरोसा बाद की बात, अभी परखने का मौका'; खास बातचीत में बोले पूर्व राजदूत बंबावाले

    Updated: Sat, 16 Aug 2025 07:45 PM (IST)

    अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ लगाने के बाद बदले परिदृश्य में रूस इंडिया और चीन (आरआइसी) साथ आ सकते हैं। पीएम मोदी के शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में शामिल होने की संभावना है जहाँ भारत-चीन के बीच वार्ता हो सकती है। पूर्व राजदूत गौतम बंबावाले ने कहा कि रिश्तों में जमी बर्फ पिघली है लेकिन पानी अभी ठंडा है।

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    खास बातचीत में बोले पूर्व राजदूत बंबावाले (फोटो सोर्स- जेएनएन)

    जेएनएन, नई दिल्ली। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ लगाए जाने की घोषणा के बाद बदले भूराजनीतिक परिदृश्य ने स्थितियों को पेचीदा बना दिया है। कुछ समय पहले तक चीन के आर्थिक विस्तार को रोकने के लिए अमेरिका भारत को साथ लेकर आगे बढ़ रहा था।

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    अब अमेरिका की मनमानी को रोकने के लिए आरआइसी (रूस, इंडिया और चीन) साथ खड़े होते नजर आ रहे हैं। इस महीने के आखिरी में पीएम नरेन्द्र मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में शामिल होने के लिए चीन जा सकते हैं।

    वहीं गलवन के बाद सीमा रेखा को लेकर आई दूरियों के बीच भारत-चीन के बीच फिर वार्ता शुरू होने जा रही है। इन दो बड़ी बैठकों पर दुनिया की निगाहें टिकी हैं। कोई इसे अमेरिका को नियंत्रित करने का सही तरीका बता रहा है तो कोई गलवन से लेकर आपरेशन सिंदूर में चीन की भारत विरोधी नीतियों के हवाले से यह सवाल उठा रहा है कि क्या यह बातचीत कारगर होगी? क्या भारत के लिए व्यापार के लिए विकल्प खुलेंगे?

    चीन में लंबे समय तक पदस्थ रहे भारत के पूर्व राजदूत गौतम बंबावाले का कहना है कि दोनों देशों के बीच बर्फ पिघली है, लेकिन पानी अभी बहुत ठंडा है। बैठक होते ही व्यापार के नए द्वार नहीं खुल जाएंगे, लेकिन पुराने रुके हुए मुद्दों पर बातचीत शुरू होगी। बेशक भारत, चीन पर भरोसा न करें, लेकिन उसे परखने का यह बेहतर मौका है। मौका तो ट्रंप को धन्यवाद कहने का भी है...।

    उनका कहना है कि अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ को लेकर परेशान होने के बजाय भारत घरेलू बाजार को समृद्ध करने पर ध्यान केंद्रित करे तो अगले दस साल में ‘ट्रंप टाइफून’ से बाहर निकल सकता है। अपने राजनयिक करियर में कुल चार बार चीन में पदस्थ रहे बंबावाले चीन में पहले भारतीय वाणिज्य दूत भी रहे हैं। वर्ष 2017-2018 में वह चीन में राजदूत के रूप में पदस्थ थे। इसके अलावा पाकिस्तान, भूटान और जर्मनी में भी पदस्थ रहे। वर्तमान में पुणे इंटरनेशनल सेंटर से जुड़े हुए हैं।

    दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे टैरिफ वार, व्यापार मार्ग, बाजार विस्तार से लेकर चीन की आम जनमानस की भारत के प्रति धारणा को लेकर विस्तार से आनलाइन चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश-

    आप लंबे समय तक चीन में राजदूत रहे हैं। इस भूराजनीतिक स्थिति को लेकर आपका आकलन क्या है?

    देखिए, भारत काफी सालों से एससीओ का सदस्य है। हम इसमें शामिल होते थे। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री स्तर की बैठकों में भारतीय नेतृत्व शामिल होते रहे हैं। दो कारणों से इस समन्वय में रुकावट आ गई थी। पहला कारण है, कोरोना महामारी। इस वजह से बैठकें नहीं हो रही थीं।

    ऑनलाइन मीटिंग में सभी देश शामिल होते थे, लेकिन मुलाकात नहीं हो रही थी। दूसरा कारण, 2020 में गलवन के बाद दोनों देशों के बीच तनाव रहा है। इसकी वजह से हम इसमें शामिल नहीं हो पाए। हालांकि लाइन आफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) में थोड़ा-सा बदलाव आ गया है। दोनों देशों की पेट्रोलिंग शुरू हो गई है। मैं मानता हूं कि दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघलने लगी है, हालांकि पानी अभी भी ठंडा है...।

    पानी ठंडा होने से आपका क्या आशय है?

    यानी, हमें यह समझना होगा कि दोनों देशों के रिश्तों में कोई गर्मजोशी नहीं आ गई है। बस परिस्थितियां बदली हैं।

    पीएम मोदी शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में शामिल हो सकते हैं। क्या अमेरिका सहित दुनिया को कोई संदेश जाएगा?

    पीएम मोदी एससीओ जा रहे हैं। यह अच्छी बात है। मेरा आकलन है कि अमेरिका के लिए इसमें कोई खास संदेश नहीं होगा और हमें कोई संदेश देना भी नहीं है। वहां सिर्फ चीन ही नहीं होगा, बल्कि अन्य देशों के शीर्ष नेतृत्व भी वहां मौजूद होंगे।

    खास तौर पर मध्य एशिया के देशों से उनकी चर्चा होगी। यह बहुत अहम और जरूरी है। इसके जरिये भारत दुनिया को यह दिखा पाएगा कि एससीओ का सदस्य होने के नाते वह जुड़ा हुआ है। शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य होने के नाते भारत अन्य देशों के साथ खड़ा है।

    क्या पाकिस्तान शामिल होगा?

    निश्चित रूप से। मेरा मानना है कि पाकिस्तान के पीएम शहबाज शरीफ जरूर आएंगे। हालांकि भारत-पाकिस्तान के बीच कोई द्विपक्षीय बात नहीं होगी।

    चीन, पाकिस्तान का मददगार है। भारत ने भी अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाए जाने के बाद ही चीन की ओर हाथ बढ़ाया है। ऐसे में दोनों देशों के बीच बातचीत कैसे हो पाएगी?

    वर्ष 2019 से पहले भारत और चीन के बीच अलग-अलग स्तरों पर बहुत संवाद हुआ करते थे। सिर्फ सरकारों के बीच ही नहीं, बल्कि आम नागरिकों के बीच काफी आना-जाना था। व्यवसायिक आदान-प्रदान बहुत था। वर्ष 2020 के बाद सबकुछ ठप पड़ गया था।

    यजमान देश होने की वजह से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पीएम नरेन्द्र मोदी के बीच बातचीत जरूर होगी। मुझे लगता है कि दोनों शीर्ष नेताओं के बीच इस पर बात होगी कि जैसे दोनों देशों के बीच संवाद होते थे, उसे दोबारा कैसे शुरू किया जा सकता है।

    कोई नई शुरुआत भले ही नहीं हो, लेकिन पुरानी चीजों को एक-एक कर शुरू कर सकते हैं। जैसे पांच साल बाद शुरू हुई कैलास मानसरोवर यात्रा को और विस्तार कैसे दिया जा सकता है। चीन के लिए सीधी उड़ान और चीनी नागरिकों को भारतीय वीजा दिए जाने पर विचार हो सकता है, यानी गाड़ी को पटरी पर लौटाने पर विचार होगा।

    वर्ष 1962 में भारत-चीन संघर्ष, गलवन और फिर आपरेशन सिंदूर... भारत, चीन पर कितना भरोसा कर पाएगा?

    यह सारे तथ्य हैं, जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि चीन पर भरोसा करना तो बाद की बात है, पहले हमें वेरिफाई करना चाहिए। वेरिफाई करना या परखने का आशय यह है कि जो चीन कह रहा है, वह सही है या नहीं।

    चीन पर भरोसा करने से पहले यह कदम उठाना जरूरी होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने एक बार कहा था कि 'ट्रस्ट बट वेरिफाई', यानी भरोसा करें, लेकिन परख लें। भारत-चीन के संबंध में यह मुहावरा कुछ इस तरह होना चाहिए- 'ट्रस्ट लिटिल बिट बट यू मस्ट वेरिफाई'।

    तो क्या बैठक के बाद ऐसे रिश्ते बन जाएंगे कि दोनों देशों के बीच व्यापारिक मानदंडों को सहज बनाया जा सके?

    दोनों देशों के व्यापारियों के बीच अनुभव अच्छा रहा है। भारत के व्यापारी चीन से अपना माल मंगवाते हैं और वह सही ढंग से यहां पहुंच जाता है। फिर भी व्यापारियों के बीच खरीदी-ब्रिकी का अनुबंध ठीक से होना चाहिए। अनुबंध में यह शामिल किया जाए कि विवाद की स्थिति में इंटरनेशनल कोर्ट में मामले की सुनवाई हो सके। यह सिर्फ व्यापारियों के स्तर पर ही नहीं, बल्कि दोनों सरकारों के बीच अनुबंध के दौरान भी यही मानदंड तय होना चाहिए।

    वित्त मंत्रालय और अन्य संबंधित विभाग जोर दे रहे हैं कि भारत को चीन के साथ ट्रेड नियमों को थोड़ा शिथिल करना चाहिए, ताकि चीन से आने वाले विदेशी निवेश को बढ़ाया जा सके? क्या यह सही है? क्या एससीओ की बैठक में इस तरह का कोई प्रस्ताव आ सकता है?

    यह बिलकुल सही है कि बीते डेढ़-दो साल से वित्त मंत्रालय और अन्य संबंधित विभाग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि चीन के लिए ट्रेड नियमों को थोड़ा शिथिल करना चाहिए... लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं।

    यदि किसी को लग रहा है कि नियम शिथिल करते ही चीन भारत में निवेशों की झड़ी लगा देगा, तो ऐसा बिलकुल नहीं होगा। जो ऐसा सोच रहे हैं, वे चीन को नहीं समझते हैं। बीते 15-20 साल से चीन द्वारा निवेश के आंकड़ों में लगातार कमी है। यह अमेरिका, जापान की तुलना में बहुत कम है।

    लेकिन आंकड़े तो बताते हैं कि भारत व चीन के बीच व्यापार पिछले सालों में चार गुना बढ़ा है। यह कैसे?

    भारत सरकार ने भारत और चीन के बीच व्यापार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। खासकर गलवान के बाद। इसका कारण यह है कि हमारे निर्यात उत्पादों में कई आयातों का इस्तेमाल होता है और अगर आयातों पर प्रतिबंध लगाया गया तो इसका हमारे निर्यात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। हालांकि, मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमें अपनी कुछ प्रमुख आयातित वस्तुएं भारत में ही बनानी चाहिए। हमारे व्यापारियों को इस पर काम करना चाहिए।

    अलास्का में अमेरिका-रूस में बातचीत के बाद अब इस बैठक पर कोई असर?

    नहीं, कोई असर नहीं पड़ेगा। सभी जान गए हैं कि ट्रंप कभी भी कुछ भी फैसले ले सकते हैं। इस लिहाज से भी यह बैठक बहुत अहम है। खासतौर पर रिक (यानी रूस, इंडिया, चीन गठबंधन बहुत जरूरी हो गया है।

    ब्रिक्स की अवधारणा तो पूरी तरह सफल नहीं हो पाई। रिक कितना कारगर साबित हो सकता है? क्या यह डालर को चुनौती है?

    डॉलर को चुनौती देने या महत्व कम करने की ट्रंप की धारणा सरासर गलत है। आज भी सबसे ज्यादा ट्रेड यूएस डालर में ही होता है। यूआन (चीन की करेंसी), रुपया या रुबल में व्यापार नहीं होता है और न ही आने वाले समय में ऐसा नहीं होने जा रहा है। देखिए, यह स्पष्ट है कि अमेरिका और चीन के बीच एक तरह की इकोनमिक और टेक्नोलाजिकल प्रतिस्पर्धा चल रही है।

    इस प्रतिस्पर्धा के बीच में भारत सहित दुनिया के सभी देशों के सामने बड़ी दुविधा है कि उन्हें अपनी स्वायत्ता रखते हुए क्या करना चाहिए। अमेरिका 30 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था है और चीन 19 ट्रिलियन डालर। अमेरिका दुनियाभर के देशों पर दबाव डालने की कोशिश कर रहा है। वहीं चीन चाहता है कि एशिया के सभी देश चीन को सुपर पावर मानें। भारत, जापान, कोरिया जैसे देश मानने को तैयार नहीं हैं।

    क्या सिल्क रूट या आइमेक कॉरिडोर जैसे विकल्प मददगार साबित हो सकते हैं ?

    सिल्क रूट एक नाम है, जिसके जरिये प्राचीन काल में व्यापार होता था। अब कोई महत्व नहीं है। हाल ही में पीएम नरेन्द्र मोदी ने आइमेक यानी इंडिया-मिडिल ईस्ट इकोनमिक कारिडोर ट्रेड रूट का आइडिया दिया है।

    यह मार्ग भारत, अरब देशों से होते हुए इजरायल, जार्डन होते हुए यूरोप तक जाएगा। इसमें समुद्री और रेलवे दोनों मार्ग शामिल हैं। इसमें समुद्री मार्ग के जरिये भारत से माल दुबई पहुंचेगा और इसके बाद रेलवे मार्ग से माल यूरोप तक पहुंच सकता है। वर्तमान में इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष की वजह से यह शुरू नहीं हो पा रहा है।

    ट्रंप के हाई टैरिफ और चीन की विस्तारवादी नीति के बीच भारत की रणनीति क्या हो कि आपदा अवसर बन जाए?

    भारत को भारत के भीतर व्यवसाय करने को आसान करना चाहिए। यह अवधारणा भी स्थापित करना होगा कि 'बिजनेस' अच्छा शब्द है। अभी यह नहीं है। भारत के बिजनेस सेक्टर में सरकारी तंत्र बहुत हावी है। पुणे में बहुत से मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स हैं और मैं देखता हूं कि आए दिन कभी प्रदूषण विभाग, कभी आयकर, कभी जीएसटी वाले इन सेंटरों के चक्कर लगाते रहते हैं।

    सरकार को इस व्यवस्था को सहज बनाना चाहिए। ऐसी स्थिति में भारतीयों के लिए भारत में ही व्यापार करना मुश्किल है। इसे आसान कर दीजिए, भारतीय व्यापारी अपने आप ही 'ट्रंप टाइफून' का सामना कर लेंगे। मुझे पूरा यकीन है कि यह भारत के लिए मौका और आने वाले दस सालों में कई सेक्टर्स में खुद को सुदृढ़ बना सकता है। मैं यह नहीं मानता कि भारत को हर चीज मैन्युफैक्चर करना चाहिए, लेकिन कुछ क्षेत्रों में हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं। तब हम ट्रंप से हाथ मिलाकर उन्हें भारी टैरिफ लगाने के लिए धन्यवाद देंगे।

    चीन के जनमानस के बीच भारत को लेकर क्या धारणा है?

    यदि आप बीजिंग या शंघाई की सड़कों पर चलते-फिरते लोगों से बात करेंगे तो आपको महसूस होगा कि दोनों देशों के आम लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी का भाव नहीं है। वे मानते हैं कि चीन की तरह भारत भी पुरातन संस्कृति वाला देश है। भारत दुनिया में 'आइटी पावर' या 'साफ्टवेयर पावर' है। भारत ने इस क्षेत्र में चीन को पीछे छोड़ दिया है।

    आप हर साल मिनी दावोस... एशियन इकोनमिक फोरम आयोजित करते हैं? उसकी जरूरत क्यों महसूस हुई? टैरिफ और ट्रेड वार के दौर में यह किस तरह से कारगर साबित हो सकता है?

    पुणे इंटरनेशनल सेंटर एक थिंक टैंक है, जो खास तौर पर एशियन देशों के बीच व्यापार, वाणिज्य, मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) सहित कला, संस्कृति, शिक्षा, कानून, विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति और नालेज आधारित सेवाओं पर काम करता है। इस संस्था की स्थापना केंद्र सरकार को जीएसटी का आइडिया देने वाले पूर्व वित्त सचिव व फाइनेंस कमीशन के चेयरमैन रहे डॉ. विजय केलकर और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) के निदेशक व ख्यातनाम विज्ञानी रघुनाथ माशेलकर ने की। छह साल पहले मैंने इस इकोनमिक फोरम करने का विचार दिया था।

    फिर इसे शुरू किया गया। इसके तहत फरवरी के आखिरी सप्ताह में ढाई दिन की कांफ्रेस करते हैं, जिसमें एशियन देश सहित दुनियाभर के ट्रेड के मुद्दे पर चर्चा होती है। इसमें केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों सहित अर्थशास्त्री और व्यापारी शामिल होते हैं। इसमें भविष्य के विकल्पों और व्यापारिक रिश्तों को आसान बनाने पर चर्चा होती है। इसी फोरम के दौरान किसी ने इसे मिनी दावोस का नाम दिया था... हम वाकई में इस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। अब यह कांफ्रेस 26, 27, 28 फरवरी 2026 को होना तय है।

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