नई दिल्ली, विवेक तिवारी। भीषण गर्मी और हीटवेव ने इस साल पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक आने वाले अगले पांच सालों में हालात और भी मुश्किल होने की आशंका है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 80 प्रतिशत संभावना है कि अगले पांच वर्षों में से किसी एक साल औद्योगिक युग की शुरुआत की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान दर्ज किया जाएगा। वहीं नासा की ताजा रिपोर्ट के मुताबकि इस साल मई महीने में गर्मी ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। ये अब तक का सबसे गर्म मई का महीना रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक 1.5°C से अधिक तापमान बढ़ने से जलवायु परिवर्तन के कहीं अधिक गंभीर प्रभाव और एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स जोखिम पैदा होंगे। तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी से भी मौसम में बड़े बदलाव देखे जा सकते हैं। गौरतलब है कि पेरिस समझौते के तहत, देशों ने दीर्घकालिक वैश्विक औसत सतही तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2°C से नीचे रखने और इस सदी के अंत तक इसे 1.5°C तक सीमित रखने के प्रयासों पर सहमति जताई है।

डब्ल्यूएमओ की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2024 और 2028 के बीच हर साल के लिए वैश्विक औसत सहती तापमान 1850-1900 की आधार रेखा से 1.1 डिग्री सेल्सियस और 1.9 डिग्री सेल्सियस तक अधिक होने का अनुमान है। यूनाइटेड नेशन इनवायरमेंट प्रोग्राम के पूर्व निदेशक रहे राजेंद्र माधवराव शेंडे कहते हैं नासा की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल 2023 से मई 2024 के बीच हर महीने औसत अधिकतम तापमान सामान्य से ज्यादा बना रहा। वहीं इस साल मई का महीने अब तक के सबसे गर्म महीने के तौर पर दर्ज किया गया है। ये रिपोट्स बताती हैं कि आने वाले दिनों में हमें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। बाढ़, सूखा, पीने के पानी कि किल्लत, चक्रवात और हीटवेव जैसी घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी देखी जा सकती है। ग्लेशियर के तेजी से गलने से एक तरफ जहां बाढ़ जैसी स्थितियां बनेंगी वहीं समुद्र के स्तर में भी वृद्ध देखी जाएगी। इन सब हालातों के बीच सबसे बड़ी चुनौती खाद्य सुरक्षा को सुनश्चित करना होगा। क्योंकि मौसम में बदलाव से फसल चक्र पर भी असर होगा। वहीं अचानक तेज बारिश जा सूखे जैसे हालात से भी फसलों को नुकसान होने की संभावना बढ़ेगी।

बढ़ती गर्मी साफ संकेत दे रही है कि आने वाले दिनों में हमारे लिए मुश्किल बढ़ेगी। इन हालातों को देखते हुए हमें अभी से तैयारियां तेज करनी होंगी हमें फसलों के ऐसे बीज तैयार करने होंगे जो गर्मी को बरदाश्त कर सकें। वहीं हमें ऐसी फसलें विकसित करनी होंगी जो बेहद कम पानी में बेहतर उत्पादन कर सकें। वहीं हमें विकास के मॉडल भी पर्यावरण को ध्यान में रख कर बनाने होंगे। हमें इस तरह के घर बनाने होंगे जिनमें कम गर्मी हो, हमें हरियाली को बढ़ाना होगा, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर भी लगाम लगाने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे।

एनआरडीसी इंडिया के लीड, क्लाइमेट रेजिलिएंस एंड हेल्थ अभियंत तिवारी कहते हैं कि डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट से साफ हो जाता है कि आने वाले सालों में मुश्किल काफी बढ़ने वाली है। क्लाइमेट चेंज के चलते गर्मी के साथ ही आर्द्रता का स्तर भी बढ़ रहा है। इसके चलते हीट स्ट्रेस की स्थिति तेजी से बढ़ी है। सामान्य तौर पर 35 डिग्री से ज्यादा तापमान और हवा में उच्च आर्द्रता होने पर लोगों को सामान्य से ज्यादा गर्मी महसूस होती है। ऐसी स्थिति में हीट स्ट्रेस की स्थिति बनती है। बढ़ती हीटवेव जैसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार की ओर से अर्ली वॉर्निंग सिस्टम भी तैयार किया गया है। जिसके आधार पर सरकार उचित कदम उठाने के लिए अलर्ट जारी करती है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि ये सूचनाएं समय रहने सभी जिम्मेदार व्यक्ति तक पहुंच सकें और वो उचित कदम उठाएं। वहीं दूसरी सबसे बड़ी चिंता क्लाइमेट चेंज के चलते तापमान में आ रहा बदलाव के चलते बढ़ता बीमारियों का खतरा है। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों के ठंडे मौस के चलते वहां पहले मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां नहीं होती थीं। लेकिन वहां जलवायु परितर्वन के चलते तापमान बढ़ा और अब ये स्थिति हो रही है कि मच्छरों को पनपने के लिए वहां बेहतर पर्यावरण मिल रहा है। इससे वहां मच्छरों से होने वाली बीमारियां बढ़ी हैं। इस तरह की मुश्किलों को देखते हुए हमें अपने हेल्थ केयर सिस्टम को भी और मजबूत करना होगा। हमें कुछ ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि आपात स्थिति में तत्काल राहत पहुंचाने के लिए कदम उठए जा सकें।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी के चलते सबसे बड़ी चुनौती खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना होगा। इसे लेकर पूरी दुनिया में चिंता बढ़ी है। इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एराइड ट्रॉपिक्स के वैज्ञानिक डॉ. शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी से फसलों पर कई तरह का असर होता है। एक तरफ बारिश के पैटर्न में बदलाव से जहां फसलों के लिए जरूरी पानी की कमी महसूस होती है वहीं हवा में आवश्यक नमी में भी कमी आती है। वहीं जलवायु परिवर्तन के चलते फसलों को कीट पतंगों खतरा भी बढ़ जाता है। भारत सहित पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी के खतरों को देखते हुए ऐसी फसलें विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है जो कम पानी में अच्छी उपज दे सकें। आने वाले समय में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए मिलेट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

बिगड़ेगा बारिश का पैटर्न

WMO की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ती गर्मी का सबसे ज्यादा असर आर्कटिक और उसके आसपास के इलाकों में देखा जाएगा। यहां 1991-2020 के औसत की तुलना में 2023-2027 तक तापमान विसंगतियाँ वैश्विक औसत से तीन गुना ज़्यादा होंगी। WMO ने हाल ही में अपनी बेसलाइन अवधि को 1981-2010 से बदलकर 1991-2020 कर दिया है। डब्लूएमओ के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते अफ्रीका के साहेल, उत्तरी यूरोप, अलास्का और उत्तरी साइबेरिया जैसे क्षेत्रों में वर्षा में भीषण बढ़ोतरी देखी जा सकती है। वहीं दूसरी तरफ आमतौर पर वर्षा से समृद्ध अमेज़न क्षेत्र, इंडोनेशिया, मध्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में कमी आने की उम्मीद है। दुनिया भर में तापमान में वृद्धि और वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन के कारण, गर्म लहरें, बाढ़ और उष्णकटिबंधीय चक्रवात जैसी चरम मौसम की घटनाएं अधिक बार और तीव्र हो सकती हैं। वहीं समुद्र के स्तर में वृद्धि, महासागरीय अम्लीकरण और दीर्घकालिक सूखे जैसे होने वाले धीमी परिवर्तन में भी बढ़ोतरी देखी जाएगी।

"पूर्व-औद्योगिक स्तर" से 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी को ही क्यों मानक माना गया हे

दरअसल औद्योगिक क्रांति के समय ब्रिटेन, और उसके बाद बचे हुए यूरोप, जापान, उत्तरी अमेरिका और अन्य देशों ने बड़ी मात्रा में जीवाश्म कार्बन उत्सर्जित करना शुरू किया। इस उत्सर्जन में मुख्य रूप से कोयले और अन्य जीवाश्म इंधनों का इस्तेमाल किया गया। इससे बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन हुआ। औद्योगीकरण के कारण ग्रीनहाउस गैसों का स्तर तेज़ी से बढ़ा है। ये गैसें सूर्य से आने वाली ऊर्जा को वायुमंडल में ही रोक लेती हैं, जिससे धरती गर्म हो जाती है। पेरिस समझौते में ही, औद्योगिक-पूर्व उपायों के लिए आधार रेखा परिभाषित नहीं की गई थी। लेकिन जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल 1850-1900 की आधार रेखा का उपयोग करता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि यह विश्वसनीय, निकट-वैश्विक मापों वाला सबसे प्रारंभिक काल है। यह सच है कि उस समय तक मानवीय गतिविधियों से कुछ गर्मी पहले ही आ चुकी थी, क्योंकि औद्योगिक क्रांति 1700 के दशक की शुरुआत में शुरू हुई थी । लेकिन आज हो रहे बदलावों को मापने के लिए विश्वसनीय आधार रेखा के लिए अच्छे ऐतिहासिक डेटा का होना महत्वपूर्ण है। 1850-1900 आधार रेखा वह है जिसे वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, नीति निर्माता, कार्यकर्ता और जलवायु परिवर्तन के बारे में बात करने वाले सभी लोग उपयोग कर सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे सभी एक ही बात का उल्लेख कर रहे हैं।