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    राज्यपालों व राष्ट्रपति के विधेयकों पर मंजूरी के लिए कोर्ट नहीं तय कर सकता समयसीमा

    By MALA DIXITEdited By: Garima Singh
    Updated: Thu, 20 Nov 2025 11:30 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों पर मंजूरी देने के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की जा सकती। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल की मंजूरी के बिना कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता। राज्यपाल विवेकाधिकार से बंधे हैं, पर विधेयकों को लटका नहीं सकते। राष्ट्रपति हर विधेयक पर राय लेने के लिए बाध्य नहीं हैं। यह फैसला पहले के एक फैसले को निष्प्रभावी करता है।

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    विधेयकों पर मंजूरी के लिए समयसीमा नहीं

    माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों पर मंजूरी के बारे में राज्यपालों और राष्ट्रपति को मिले संवैधानिक अधिकारों पर स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसके लिए कोई समयसीमा नहीं तय की जा सकती। न ही सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत विधेयकों को मान्य स्वीकृति (डीम्ड एसेंट) का आदेश दे सकता है।

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    शीर्ष अदालत ने कहा कि कोई भी विधेयक राज्यपाल की मंजूरी के बगैर कानून नहीं बन सकता। सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सर्वसम्मति से दी राय में घोषित किया है कि विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में राज्यपाल को विवेकाधिकार है और वह इसमें मंत्रिपरिषद की सलाह से नहीं बंधे हैं।

    हालांकि कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों को नहीं लटका सकते। राज्यपाल की निष्क्रियता पर कोर्ट को सीमित न्यायिक समीक्षा का अधिकार है और कोर्ट उन्हें उचित समय के भीतर अपने विकल्प का प्रयोग करने का निर्देश दे सकता है।

    विधेयकों पर मंजूरी के लिए समयसीमा नहीं

    सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देशभर के राज्यों पर व्यापक असर डालने वाला है क्योंकि इससे गत अप्रैल का दो न्यायाधीशों का फैसला निष्प्रभावी हो जाता है। उस फैसले में राज्यों के विधेयकों पर निर्णय के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय की गई थी। उस फैसले में राज्यपाल द्वारा रोके रखे गए तमिलनाडु के दस विधेयकों को मंजूर घोषित कर दिया था। यह पहला मौका था जब सीधे कोर्ट के आदेश से विधेयकों को मंजूरी मिली थी।

    इस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को रेफरेंस भेजकर 14 कानूनी सवालों पर राय मांगी थी। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की पीठ ने सर्वसम्मति से दी गई राय में राष्ट्रपति को 14 में से 13 सवालों के जवाब दिए हैं और एक सवाल को गैरजरूरी बताते हुए बिना उत्तर दिए वापस कर दिया है।

    राष्ट्रपति हर विधेयक पर राय लेने के लिए बाध्य नहीं

    यह सवाल राज्यों और केंद्र के बीच विवादों को निपटाने के कोर्ट के क्षेत्राधिकार से संबंधित था। प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में राष्ट्रपति ने पूछा था कि जब संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं है तो क्या सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?

    हालांकि रेफरेंस में सीधे तौर पर तमिलनाडु के फैसले को चुनौती नहीं दी गई है, लेकिन जो सवाल पूछे गए वे उस फैसले के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। रेफरेंस में पूछे गए सवाल अनुच्छेद-200 और 201 के तहत राज्य विधानसभा से पास विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय लेने की शक्तियों से संबंधित थे।

    जिसका सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दी राय में जवाब दिया है। पांच न्यायाधीशों ने अपनी राय में दो जजों की पीठ द्वारा राज्य के विधेयकों पर मंजूरी के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय करने और विधेयकों को मान्य स्वीकृति दिए जाने को गलत ठहराया है।

    मंत्रिपरिषद की राय से बंधे नहीं हैं राज्यपाल

    सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों पर मंजूरी के संबंध में राज्यपाल को अनुच्छेद-200 में प्राप्त शक्तियों पर स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं। या तो वह विधेयक को मंजूरी दें, या राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज दें अथवा विधानमंडल को अपनी टिप्पणियों के साथ वापस भेज दें। राज्यपाल को इन तीनों में से कोई भी विकल्प चुनने का विवेकाधिकार है।

    वह इसमें मंत्रिपरिषद की सलाह से नहीं बंधे हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि कोर्ट अनुच्छेद-200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए निर्णय के गुणदोष की समीक्षा नहीं कर सकता। हालांकि लंबे समय तक अनिश्चित और अस्पष्टीकृत निष्कि्रयता की स्पष्ट परिस्थिति में कोर्ट सीमित निर्देश जारी कर सकता है जिसमें वह मेरिट पर टिप्पणी किए बगैर राज्यपाल से तर्कसंगत समय के भीतर अनुच्छेद-200 के तहत कर्तव्य के निर्वहन के लिए कह सकता है।

    राज्यपाल को न्यायिक कार्यवाही से व्यक्तिगत छूट

    शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद-361 के तहत राज्यपाल को न्यायिक कार्यवाही से प्राप्त छूट के बारे में स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि राज्यपाल को व्यक्तिगत छूट प्राप्त है, लेकिन राज्यपाल का संवैधानिक पद (कांस्टीट्यूशनल आफिस) इस कोर्ट के क्षेत्राधिकार के अधीन है। अनुच्छेद-200 में लंबे समय तक राज्यपाल की निष्कि्रयता की स्थिति में इसके प्रयोग करने का कोर्ट को अधिकार है।

    जब संविधान में समयसीमा तय नहीं, तो कोर्ट भी नहीं कर सकता

    शीर्ष अदालत ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के विधेयकों पर निर्णय पर के बारे में कोर्ट द्वारा समयसीमा तय करने पर कहा कि जब संविधान के अनुच्छेद-200 में निर्णय लेने के लिए राज्यपाल के लिए कोई समयसीमा या तरीका तय नहीं है तो इस अदालत के लिए समयसीमा तय करना उचित नहीं है।

    और न ही राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय करना ठीक है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति अनुच्छेद-201 के तहत अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए कोर्ट द्वारा तय समयसीमा से नहीं बंधी हैं।

    हर विधेयक पर राष्ट्रपति को राय लेने की जरूरत नहीं

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि संवैधानिक योजना में राष्ट्रपति को हर बार राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयक पर अनुच्छेद-143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय लेने की जरूरत नहीं है।

    यह राष्ट्रपति की संतुष्टि पर है कि वह जब चाहें, तब राय ले सकती हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी भी विधेयक के कानून बनने से पहले कोर्ट विधेयक की विषयवस्तु पर न्यायिक निर्णय नहीं ले सकता।