विवाद का रूप न ले वैचारिक असहमति, राजनीति में युवाओं को मिले पर्याप्त भागीदारी
दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर संस्थान में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि देश के विश्वविद्यालयों में हिंसा और वैचारिक लड़ाई की जगह विमर्श को स्थान मिलना चाहिए।

कैलाश बिश्नोई। देश के अनेक विश्वविद्यालयों व उच्च शैक्षणिक संस्थानों के परिसर में छात्रों को पढ़ाई, शोध, रोजगार, आविष्कार आदि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, परंतु पिछले कुछ वर्षो के दौरान अनेक कारणों से वहां पर विचारों से ज्यादा विवादों ने सुर्खियां बटोरी हैं। नि:संदेह स्वाधीनता के बाद से ही छात्र राजनीति में वाद-विवाद, संवाद और मतभेद होते रहे हैं, परंतु ये वैचारिकता के धरातल पर होते थे और कभी अप्रिय व अभद्र रूप लेते नहीं दिखते थे। लेकिन बीते कुछ वर्षो में तस्वीर बदली है और हाल के वर्षो में सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस ऐसी छिड़ी है कि यह मतभेद हिंसक होता दिख रहा है। यह गंभीर चिंता की बात है। विश्वविद्यालय परिसरों में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।
हमें याद रखना चाहिए कि वैचारिक असहमति ही भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता है और यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है। लेकिन वैचारिक मतभेद करते-करते देश का विरोध करने वालों की विचारधारा को सहन नहीं किया जा सकता। लिहाजा हमारे विश्वविद्यालयों को विचारधाराओं के इस विघटनकारी जंग से बचाना होगा। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क हो, लेकिन उसे राजनीति के अखाड़े में तब्दील नहीं होने देना चाहिए।
छात्र राजनीति : भारत में छात्र राजनीति उच्च शैक्षणिक संस्थानों में एक अहम घटक रही है। चाहे वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या दिल्ली विवि, अलीगढ़ मुस्लिम विवि हो या फिर बीएचयू। इन विश्वविद्यालयों में स्वतंत्रता के बाद से छात्र राजनीति ने न केवल छात्रों की समस्याओं को केंद्र में रखकर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है, बल्कि छात्र राजनीति से निकले नेताओं ने देश की राजनीति के बड़े फलक पर भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे देश के विश्वविद्यालयों से एक से बढ़कर एक राजनेता निकले हैं, लेकिन आज विश्वविद्यालयों में राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। यह धारणा बलवती हो रही है कि आज विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों की सबसे बड़ी बीमारी छात्र यूनियनों का व्यापक राजनीतिकरण ही है, जो देश के उच्च शैक्षणिक परिवेश को दूषित कर रहा है। हाल के कुछ वर्षो में शैक्षणिक परिसरों में जिस स्तर का ध्रुवीकरण तथा वैचारिक विभाजन देखा जा रहा है, इसमें हिंसक घटनाओं को इनकी तार्किक परिणति के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि देश के आधे से ज्यादा विश्वविद्यालयों में आज भी छात्रसंघ चुनाव नहीं करवाए जाते। जबकि वर्ष 2005 में लिंगदोह कमेटी ने छात्रसंघ चुनाव करवाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की तय की थी।
छात्र संघ और छात्र राजनीति लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने में सहायक है, क्योंकि इससे छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण के साथ ही देश व समाज से उनके सरोकार सुनिश्चित होते हैं। साथ ही इससे नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में हर तरह के मत एवं विचारों के लिए स्थान रहा है, परंतु पिछले दो दशकों में विचारधारा की राजनीति कैंपस पालिटिक्स में बदल चुकी है। दिशाहीन छात्र राजनीति के कारण कैंपस का परिवेश शैक्षिक न होकर अराजकता में बदल रहा है। कुछ मामलों को छोड़ दें तो छात्र राजनीति अपने उद्देश्यों को पूरा करने में खरी नहीं उतर रही है। वैचारिकता को धार देना तो विश्वविद्यालयों का काम है, लेकिन ये काम अब कैंपस में घुस कर राजनीतिक पार्टियां करने लगी हैं। ऐसी पार्टियों के छात्र संगठनों से जुड़े आम छात्र भी पार्टी लाइन की वैचारिक कट्टरता अपनाने का प्रयास करते हैं। छात्र राजनीति का अपनी-अपनी पार्टियों के लिए तो रुझान स्पष्ट तौर पर देखा जाता है, लेकिन विद्यार्थियों के सहज सवालों के लिए आज कोई विद्यार्थी मंच उपलब्ध नहीं है।
राजनीति में छात्रों की भागीदारी : आज राजनीति का स्वरूप ही विवादास्पद हो गया है। राजनीति में जिस तरह से अवांछनीय तत्वों की घुसपैठ होती जा रही है, उसे नियंत्रित करने के लिए छात्रसंघ का होना जरूरी है। पढ़ा-लिखा वर्ग जब राजनीति में हिस्सा लेगा तो जनहित में अच्छा काम होगा और निरंकुशता पर अंकुश भी लगेगा। लोकतंत्र के असल नींव छात्र ही हैं। वे कल के भविष्य को संवारने के लिए आज का निर्माण करते हैं तब जाकर कल बेहतर हो पाता है। छात्रों की राजनीति में भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक छात्र ही आगे जाकर एक अच्छा राजनेता बनता है। युवा ही देश का भविष्य है और अधिकांश गतिविधियों में युवाओं की सबसे ज्यादा भागीदारी होती है।
उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री हासिल करना नहीं है, बल्कि युवकों का सर्वागीण व्यक्तिगत और चारित्रिक विकास करना होता है। अगर कल के नीति निर्माता वर्तमान की समस्याओं पर विचार-विमर्श नहीं करेंगे तो सटीक हल निकालने और निर्णय लेने की क्षमता उनमें कैसे उत्पन्न होगी? राजनीतिक निर्णय प्रत्यक्ष तौर पर देश के नागरिकों को प्रभावित करते हैं और देश का नागरिक होने के नाते छात्रों का यह अधिकार है कि वे अनुचित राजनीतिक निर्णयों और मुद्दों को प्रभावित कर सकें। राजनीति छात्रों को उनके अधिकारों के समुचित उपयोग को लेकर जागरूक करती है। यदि छात्रों को इंजीनियर या डाक्टर बनने के लिए तैयार किया जा सकता है, तो उन्हें एक अच्छा राजनीतिज्ञ बनने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। छात्र राजनीति और आंदोलनों ने देश को कई प्रमुख राजनेता और समाज सुधारक दिए हैं। स्वाधीनता आंदोलन में शामिल रहे कई नेताओं ने भी आजाद भारत में छात्र आंदोलन पर भरोसा किया। जेपी आंदोलन इसका एक बड़ा उदाहरण है।
आगे की राह : राजनीति में आपराधिक तत्वों के समावेश को रोकने के लिए यह जरूरी है कि विद्यार्थी जीवन से ही छात्रों को राजनीति की शिक्षा प्रदान की जाए। विश्वविद्यालय में राजनीति शैक्षिक कार्यक्रम का ही अंग है। केवल जागरूक छात्र ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं और स्वयं भी राष्ट्र के लिए एक मूल्यवान संपत्ति बन सकते हैं। छात्रों के राजनीतिक संगठन, सरकारी नीतियों के प्रति युवाओं के मत निर्णायक होते हैं। वे विशिष्ट रूप से शैक्षणिक व छात्र संबंधी मुद्दों के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। राजनीतिक चिंतकों का यह मानना रहा है कि लोकतंत्र की सफलता के लिए शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है। ऐसे में यदि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी लोकतंत्र सफल नहीं हो पाएगा तो भारत में लोकतंत्र कहां सफल होगा? उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी यदि यह तय नहीं कर सकता कि उसका सही प्रतिनिधि कौन होगा, तो उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह एक अच्छा नागरिक बन पाएगा और समाज में न्याय, समता और मूल्यों के पक्ष में खड़ा हो पाएगा। वर्तमान में उदारवादी विचारों वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वायत्तता और स्वतंत्र विचारधारा के लिए स्थान चाहता है। ऐसे में छात्रों द्वारा संघ बनाने और अपनी विचारधारा विकसित करने की चेतना को दबाना उचित नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्ञान और ऊर्जा से परिपूर्ण छात्र ही एक पूर्ण रूप से जागरूक राष्ट्र का निर्माण करते हैं। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि प्रमुख उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आवश्यक जागरूकता और अनावश्यक राजनीतिकरण के बीच समुचित संतुलन बनाया जाए।
आज देश को स्वच्छ, स्वस्थ तथा मूल्यों वाली राजनीति की जरूरत है, परंतु यह सब तभी संभव है, जब वंशवाद, धनबल और बाहुबल वाले लोगों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ा जाए तथा युवाओं को राजनीति में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले। क्योंकि युवा नेता विशाल युवा आबादी वाले देश की आवश्यकताओं व इच्छाओं को समझते हैं। राजनीति में अगर ज्यादा ईमानदार, कर्मठ, प्रतिभाशाली तथा राजनीतिक दृष्टि से जागरूक उच्च शिक्षित युवा आएं, जिनके पास विजन एवं ज्ञान हो, तो उनके सोच व सामथ्र्य का अधिकतम प्रयोग हो सकेगा, जो देश की मौजूदा राजनीति में बड़ा बदलाव पैदा कर सकता है। इससे राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण, धनबल व बाहुबल पर काफी हद तक रोक लगेगी।
जिस प्रकार से प्रत्येक सरकारी पद के लिए योग्यता के मानदंड हैं, उसी प्रकार से राजनीति में भी योग्यता का मानदंड होना चाहिए। सांसद और विधायक बनने की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक हो। साथ ही ‘राजनीति प्रवेश परीक्षा’ में उसे उत्तीर्ण होना चाहिए तथा उसका कोई भी आपराधिक रिकार्ड नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, राजनेताओं की सेवानिवृत्ति की आयु भी तय की जानी चाहिए। ऐसा इसलिए करना भी जरूरी है, क्योंकि राजनीतिक दलों के अधिकांश बुजुर्ग नेता अपना पद नहीं छोड़ना चाहते। कई राजनेता तो बीमार और शारीरिक रूप से अक्षम होने के बावजूद चुनाव लड़ने का मोह नहीं छोड़ पाते। इससे युवाओं को आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिल पाता है।
एक ओर जहां हमारे देश में युवा जनसंख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों की औसत आयु लगातार बढ़ रही है। जहां 56 से 75 वर्ष के सांसदों की संख्या बढ़ रही है, वहीं 25 से 45 साल की उम्र वाले सांसद घट रहे हैं। वर्तमान 17वीं लोकसभा के लिए चुने गए सांसदों की औसत उम्र 54 साल से ज्यादा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आधे से ज्यादा सांसद 50 साल से ज्यादा उम्र के हैं। वहीं वर्ष 2014 की चुनी हुई लोकसभा में केवल 12 सदस्य ही 30 साल से कम उम्र के थे। इनमें भी दो सदस्यों को छोड़कर शेष किसी न किसी राजनीतिक विरासत वाले परिवारों से थे। भारत आज युवा शक्ति के मामले में एक समृद्ध देश है।
यह स्थिति भारत को विकास के लिहाज से महत्वपूर्ण दिशा दे सकती है। यह सपना तभी पूरा होगा, जब देश, समाज और राजनीतिक दल युवाओं को प्राथमिकता देंगे। ऐसे में समय की मांग है कि राजनीतिक दलों को अब गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं को कुछ पदों पर आरक्षण/ प्रोत्साहन दिए जाने के साथ ही मुख्यधारा की राजनीति में वकील, डाक्टर, उद्योगपति, पत्रकार और चार्टर्ड एकाउंटेंट जैसे पेशेवर को शामिल करने के मसले पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।
[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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