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    वैचारिक पहचान तलाशती कांग्रेस, दिशाहीनता से उपजे संकट से उबरने का प्रयास

    By Raj Kumar SinghEdited By: Swaraj Srivastava
    Updated: Fri, 24 Oct 2025 10:55 PM (IST)

    वर्ष 2014 के बाद कांग्रेस की सीटें तो बढ़ी हैं, लेकिन वैचारिक दिशाहीनता से उपजे संकट से वह उबर नहीं पा रही है। कांग्रेस का चुनाव-दर-चुनाव सहयोगियों और मुद्दों का चयन वैचारिक भटकाव में बदल रहा है। राजीव गांधी के कार्यकाल में हिंदुओं और मुसलमानों को खुश करने की कवायद कांग्रेस की पंथनिरपेक्ष छवि पर भारी पड़ी। वर्तमान में कांग्रेस कई राज्यों में कमजोर है और हार के लिए ईवीएम पर ठीकरा फोड़ती है।

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    राज कुमार सिंह। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमट कर ऐतिहासिक शर्मनाक प्रदर्शन करनेवाली कांग्रेस की सीटें पिछले दो चुनावों में बढ़ी हैं, पर वैचारिक दिशाहीनता से उपजे राजनीतिक पहचान के संकट से वह उबरती नहीं दिखती। हर चुनाव में नई रणनीति में बुराई नहीं, लेकिन वैचारिक निरंतरता तो दिखनी चाहिए।

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    चुनाव-दर-चुनाव सहयोगियों और मुद्दों के चयन में कांग्रेस का संकट वैचारिक भटकाव में बदल रहा है। बेशक 2004 से 2014 तक भी कांग्रेस केंद्र में सत्तारूढ़ रही, पर जिस वैचारिक और राजनीतिक पहचान के संकट के चलते ऐतिहासिक पराभव हुआ, उसकी शुरुआत दशकों पहले हो गई थी।

    1975 में इंदिरा गांधी आपातकाल लागू कर देश के संविधान और लोकतंत्र पर आघात कर कांग्रेस में जनमानस के विश्वास को हिला चुकी थीं, पर जनता पार्टी नेताओं की सत्तालोलुपता से खफा लोगों ने ढाई साल में ही उन्हें माफ कर दिया। आपातकाल से उपजा जनाक्रोश जनता पार्टी नेताओं के सत्ता-प्रहसन से ‘बीत गई सो बात गई’ में बदल गया। वोट बैंक में बिना बड़े क्षरण के कांग्रेस 1980 में केंद्र की सत्ता में लौट आई, पर राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों को खुश करने की कवायद कांग्रेस की पंथनिरपेक्ष छवि पर भारी पड़ी।

    कांग्रेस के चुनावी दिग्भ्रम का सबसे बड़ा उदाहरण शाहबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटने के लिए कानून बदलना और अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाना रहा। दोनों काम राजीव गांधी के समय हुए। भाजपा के अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप से वह उबर नहीं पाई। चुनाव प्रचार के बीच राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति में 1991 में भी कांग्रेस किसी तरह केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही, पर उसका पराभव और भाजपा का उदय शुरू हो चुका था।

    कांग्रेस भी इन्कार नहीं करेगी कि 1990 में मंडल-कमंडल के बीच तेज और तल्ख राजनीतिक ध्रुवीकरण के दोहरे झटके से वह संभल नहीं पाई। 1990 तक कांग्रेस की हर जाति-संप्रदाय में स्वीकार्यता थी, पर फिर यह यक्ष प्रश्न लगातार बड़ा होता गया कि आखिर वह किस वर्ग की पार्टी है? अपने सबसे बड़े गढ़ बंगाल से वामपंथी सत्ता लगभग साढ़े तीन दशक बाद उखड़ी तो सही, पर अब वहां कांग्रेस की बागी ममता बनर्जी का वर्चस्व है। केरल की राजनीति मुख्यत: वाम मोर्चा तथा कांग्रेसनीत यूडीएफ के बीच दो ध्रुवीय है।

    कांग्रेस संतोष कर सकती है कि भाजपा से कर्नाटक की सत्ता छीनने में सफल रही और आंध्र से अलग होकर बने तेलंगाना ने भी केसीआर को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाने के बजाय कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। केरल में भी सत्ता-बदल में कांग्रेस की लाटरी खुल जाती है, पर शेष दक्षिण में वह अकेले दम चुनाव लड़ने की हालत में भी नहीं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में भी यही हाल है।

    राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस लगातार भाजपा की मजबूत प्रतिद्वंद्वी रही, पर पिछले चुनावों में हाशिये पर चली गई। 2013 से वह दिल्ली की सत्ता से बाहर है तो 2014 से हरियाणा भी हाथ से फिसल रहा है। 2022 में आप के पास चला गया पंजाब भी आसानी से लौटने वाला नहीं। सांत्वना पुरस्कार के रूप में हिमाचल की सत्ता उसके पास है।

    जनाधार खिसकने से मिली हार के लिए कांग्रेस कभी ईवीएम पर ठीकरा फोड़ती है तो कभी ‘वोट चोरी’ को मुद्दा बनाती है। लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण खतरे में था, उसके बाद लोकतंत्र। भारत सरकार के सचिवों से लेकर मीडिया तक में ओबीसी-दलित-अल्पसंख्यकों की संख्या पूछने वाले राहुल अपनी सरकारों और संगठन में इन वर्गों का प्रतिशत नहीं बताते।

    माना कि नेहरू-गांधी परिवार के बाहर से दलित समुदाय से आने वाले मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष हैं, पर वास्तविक कमान किसके पास है? कभी अखिलेश यादव सरकार को राहुल गांधी जंगलराज बताते थे, पर चुनावी राजनीति के दबाव ने उन्हें उन्हीं की ‘साइकिल’ पर बैठने को मजबूर कर दिया। कांग्रेस भाजपा पर भ्रष्टाचारियों को संरक्षण के आरोप लगाती है, पर बिहार में चुनावी भविष्य की तलाश में लालू परिवार की पार्टी राजद की ‘लालटेन’ हाथ में थामने को दशकों से मजबूर है।

    गत दिनों वह तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और 15 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी वीआइपी के मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा घोषित करने पर विवश हुई, जबकि वह खुद 60 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है। सपा और राजद कांग्रेस से छीने गए ओबीसी-अल्पसंख्यक जनाधार पर ही खड़े हैं। इसीलिए वे कांग्रेस को अपने यहां पैर जमाने के लायक सीटें नहीं देते, क्योंकि कांग्रेस की मजबूती सपा-राजद को कमजोर ही करेगी।

    बंगाल में ममता भी कांग्रेस को पैर नहीं रखने देतीं। कांग्रेस की संगठनात्मक मजबूती प्राथमिकता में नजर नहीं आती, वरना हरियाणा में विधायक दल नेता को चुनने में साल नहीं लग जाता। यहां प्रदेश अध्यक्ष ऐसे शख्स को नहीं बनाया जाता, जो कभी पार्टी छोड़ गया था। उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस का कायाकल्प करने की बातें तो हुई थीं, पर हुआ कुछ नहीं। कथनी-करनी का अंतर कांग्रेस की पुरानी समस्या है, जिससे निजात पाए बिना विश्वसनीयता ही नहीं बनेगी, आधुनिक राजनीतिक और चुनाव प्रबंधन तो बहुत आगे की बात है।

    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)