बिहार से ऊर्जा लेकर बंगाल में TMC की परेशानी बढ़ा सकती है AIMIM, बड़े मकसद पर ओवैसी की नजर
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम बिहार के सीमांचल में 28 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। पिछली बार यहां सफलता मिलने के बाद, ओवैसी का लक्ष्य राष्ट्रीय पहचान बनाना है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, ओवैसी की नजर राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने पर है। सीमांचल और बंगाल के सामाजिक स्वरूप में समानता है, लेकिन ओवैसी के लिए राह आसान नहीं है, क्योंकि महागठबंधन उन्हें वोट काटने वाली पार्टी बता रहा है।

असदुद्दीन ओवैसी (फाइल)
अरविंद शर्मा, जागरण नई दिल्ली। बिहार का सीमांचल फिर असदुद्दीन ओवैसी की उम्मीदों का केंद्र बन गया है। उनकी पार्टी आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) इस बार 28 सीटों पर चुनाव मैदान में है। पिछली बार यहां पांच सीटें जीतकर सबको चौंकाने वाली पार्टी इस बार बड़ी राजनीतिक योजना के साथ उतरी है।
लक्ष्य केवल सीटें जीतना ही नहीं, बल्कि तेलंगाना से निकलकर राष्ट्रीय पहचान हासिल करना भी है। ओवैसी को भरोसा है कि अगर सीमांचल में सफलता मिली तो बंगाल में विस्तार का रास्ता खुलेगा और आगे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को नई ताकत मिलेगी।
राष्ट्रीय पहचान पर ओवैसी की नजर
राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार का कहना है कि ओवैसी की नजर केवल सीमांचल की सीटों पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पहचान पर टिकी है। चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक अगर एआइएमआइएम बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम जैसे राज्यों में राज्यस्तरीय पार्टी बन जाती है तो उसे राष्ट्रीय दल का दर्जा मिल जाएगा।
इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ओवैसी ने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 95 प्रत्याशी उतारे थे। भले ही एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन 58 सीटों पर उनके उम्मीदवारों ने कांग्रेस से ज्यादा वोट हासिल किए, जिससे ओवैसी को आगे बढ़ने की उम्मीद दिखी।
सीमांचल और बंगाल को सामाजिक स्वरूप एक जैसा
दरअसल, सीमांचल और बंगाल को सामाजिक स्वरूप एक जैसा है। भौगोलिक और सामाजिक ढांचा भी बंगाल के उत्तरी जिलों मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तर दिनाजपुर से मिलता-जुलता है। दोनों इलाकों में मुस्लिम आबादी 40 से 60 प्रतिशत के बीच है और आर्थिक असमानता की स्थिति भी लगभग समान है।
ऐसे में अगर एमआइएम सीमांचल में कामयाब होती है तो ओवैसी इसी मॉडल को बंगाल में दोहराने की कोशिश करेंगे। यह रणनीति खास तौर पर उन युवाओं को आकर्षित कर सकती है जो पारंपरिक दलों से नाराज हैं और अपने सामाजिक प्रतिनिधित्व की तलाश में हैं।
आसान नहीं है बिहार में ओवैसी की राह
हालांकि, ओवैसी की राह में बाधाएं भी कम नहीं हैं। पिछली बार बिहार विधानसभा में स्पीकर चुनाव के दौरान एमआइएम ने राजद का समर्थन किया था, लेकिन बाद में उसी राजद ने ओवैसी के पांच में से चार विधायकों को तोड़ लिया। बावजूद ओवैसी ने पुराने गिले-शिकवे भूलकर महागठबंधन से दोस्ती का फिर पैगाम भेजा, पर तेजस्वी यादव ने उन्हें नजरअंदाज करते हुए मुकेश सहनी को तरजीह दी।
बंगाल में भी उन्होंने 2021 में तृणमूल कांग्रेस से गठबंधन की कोशिश की थी, मगर ममता बनर्जी ने भाव नहीं दिया। बिहार में ओवैसी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि महागठबंधन उन्हें “वोट काटने वाली पार्टी'' बताकर मुस्लिम मतदाताओं को सावधान कर रहा है। मगर ओवैसी इस आरोप को सिरे से खारिज करते हैं।
अपने दायरे को विस्तार देना चाहती है एमआइएम
उनका कहना है कि अगर विपक्ष ने उन्हें साथ लिया होता तो वोटों का विभाजन नहीं होता। वह खुद को उन वर्गों की आवाज बताते हैं जिन्हें लंबे समय से राजनीति में हाशिए पर रखा गया है। ओवैसी ने बिहार में इस बार गैर-मुस्लिमों को भी टिकट देकर संदेश दिया है कि एमआइएम अपने दायरे को विस्तार देना चाहती है।
बंगाल में निर्णायक भूमिका में मुस्लिम मतदाता
यही रणनीति बंगाल में भी अपनाई जा सकती है, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में तो हैं, मगर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन के बीच बंटे हुए हैं। जाहिर है, सीमांचल में ओवैसी की सफलता सिर्फ क्षेत्रीय उपलब्धि नहीं होगी, बल्कि उनके राष्ट्रीय विस्तार की सीढ़ी साबित हो सकती है।

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