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    Chhath Puja 2024: छठ पूजा में क्यों होती है सूर्य देव की पूजा? यहां पढ़ें इसका धार्मिक महत्व

    Updated: Mon, 04 Nov 2024 04:30 PM (IST)

    संसार में संपूर्ण चराचर के जीवन प्रदाता भगवान सूर्य एकमात्र प्रत्यक्ष देवता हैं। भगवान राम कृष्ण समेत सभी ने उनकी पूजा-उपासना की है। यही कारण है कि सनातन धर्म में आदि काल से ही सूर्यपूजा का बड़ा महत्व रहा है। सूर्यपूजा को समर्पित सूर्यषष्ठी महापर्व पर विशेष। संस्कृत वांगमय के समस्त ग्रंथ भगवान सूर्य की स्तुति से भरे पड़े हैं।

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    Chhath Puja 2024: छठ पूजा में सूर्य देव की पूजा धार्मिक महत्व

    प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री (पूर्व अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी)। संस्कृत वांगमय के समस्त ग्रंथ भगवान सूर्य की स्तुति से भरे पड़े हैं। केवल ऋग्वेद में ही सूर्य से संबंधित कुल 14 सूक्त हैं, जो सूर्य को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में घोषित करते हैं। यह काल्पनिक प्रशंसा नहीं है, अपितु प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होता है। सूर्य से ही जड़-चेतन, चर-अचर सभी का जीवन संचालित हो रहा है। रात्रिकाल में निश्चेष्ट पड़े जगत को अपने उदय से नवस्फूर्ति प्रदान करते हैं, जिससे पृथ्वीलोक का कार्यारंभ होने लगता है। पृथ्वी सहित समस्त ग्रह उपग्रह इन्हीं की निरंतर परिक्रमा कर रहे हैं। सूर्य से ही दिक्, देश, काल, पृथ्वी, आकाश, नक्षत्रमंडल आदि का विभाग होता है। ये ऋतुचक्र के नियामक हैं। इन्हीं के द्वारा पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु आदि का पोषण हो रहा है। सूर्योपासना, सूर्यार्घ्य, सूर्य के निमित्त गायत्री मंत्र का जप, तप, व्रत तथा संध्या वंदन आदि से मानवों के समस्त मनोवांछित कामनाएं सदा से पूर्ण होती रही हैं। इनकी उपासना करने वाले कभी भी भग्न मनोरथ नहीं होते हैं। इनकी कृपा से सदा संकटापन्न लोगों का संकट कटता रहा है।

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    रावण पर विजय हेतु भगवान् श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के उपदेश से सूर्य की आराधना सम्पन्न की, जिसे आदित्यहृदयस्तोत्र के नाम से जाना जाता है, जिसके पाठ से माना जाता है कि त्वचा, नेत्र, हृदय तथा अस्थि संबंधी समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं।

    भगवान श्रीकृष्ण ने भी सूर्य की आराधना की थी। कृष्ण और जांबवती के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। भगवान सूर्य की उपासना से उनका रोग शमित हो गया। मयूर कवि ने भी अपने कुष्ठ रोग की निवृत्ति हेतु सूर्यशतकम् की रचना की थी। राजा सत्राजित को आराधना के फलस्वरूप भगवान सूर्य ने स्यमंतकमणि प्रदान की थी, जिससे नित्य छह भार स्वर्ण निकलता था। पांडवों के वनवास काल में द्रौपदी की प्रार्थना पर उन्हें भगवान सूर्य ने एक अक्षयपात्र प्रदान किया था। भगवान सूर्य से ही हनुमान जी ने समस्त विद्याएं प्राप्त की थीं।

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    प्रकृति की गोद में नित्य क्रीड़ा करने वाले भगवान सूर्य की माता अदिति के लिए ये एक शिशु ही हैं। मनुष्यों के द्वारा जो रचनाएं की जाती हैं, उन्हें कृति तथा भगवान की रचना को प्रकृति कहा जाता है। यह प्रकृति भी ब्रह्म की भाँति अनादि ही है। इसी अनादि प्रकृति के षष्ठांश को षष्ठी या देवसेना कहा गया है। षष्ठी तिथि के स्वामी कुमार कार्तिकेय जी हैं। देवसेना इन्हीं षड्मुख की धर्मपत्नी हैं। ये सभी मातृकाओं की भी जननी हैं। सभी नवजात शिशुओं को आयु देने वाली तथा रक्षा करने वाली भी यही हैं। जैसा कि ब्रह्मवैवर्तपुराण का कथन भी है :

    षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा तु षष्ठी प्रकीर्तिता।

    आयुः प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी।।

    पौराणिक कथाओं के अनुसार, स्वायंभू मनु के छोटे पुत्र प्रियव्रत को मृत शिशु पैदा हुआ था, जिसने षष्ठी देवी की कृपा से पुर्नजीवन प्राप्त किया था, तभी से सभी सनातन धर्मावलंबी अपने नवजात शिशुओं के जन्म से छठे दिन षष्ठी पूजन का विधान करते चले आ रहे हैं।

    ज्योतिषशास्त्र की मान्यतानुसार, विधाता जिसे हम नियति भी कहते हैं, वह अपने करकमलों से शिशु के ललाट पर उसके शुभाशुभ कर्मों के फल लिखते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के पुरोधा आचार्य वराहमिहिर नवग्रहों का जन्म स्थान नियत करते हुए कहते हैं:

    अंगेषु सूर्यो यवनेषु चंद्रो, भौमो ह्यवन्त्यां मगधेषु सौम्यः।

    सिंधौ गुरुर्भोज कटे च शुक्रः, सौरः सुराष्ट्रे विषये वभूव॥

    अर्थात् सर्वप्रथम सूर्य का आविर्भाव अंगदेश (भागलपुर का स्थान) में हुआ था। कार्तिक मास की अमावस्या प्राचीन काल में संवत्सर की अंतिम रात्रि मानी गई थी, इसे कालरात्रि भी कहा जाता है। इसके अगले दिन अर्थात् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को सूर्य की प्रथम किरण प्राक् ज्योतिषपुर में तथा पूर्ण सूर्योदय अंगदेश में हुआ। यही सूर्य का उत्पत्तिस्थल माना गया। यही कारण है कि आज भी षष्ठी पर्व मनाने का जितना अधिक उत्साह एवं प्रभाव बिहार प्रांत में देखने को मिलता है, उतना विश्व के किसी कोने में भी नहीं मिलता। प्रतिपदा से छठा दिन ही शुक्ल पक्ष की षष्ठी है। यह चराचर की आत्मा भगवान सूर्य की रक्षिका एवं आयु प्रदाता है। बिहार में इसे डाला छठ के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस षष्ठी व्रत को करने का अधिकार मानव मात्र को है, वह चाहे जिस जाति, धर्म, कुल, पंथ, संप्रदाय का ही क्यों न हो।

    इस व्रत को करने का विधान धर्मशास्त्रों में यत्र-तत्र वर्णित है। स्कंद पुराण का कथन है कि यदि षष्ठी तिथि पंचमीवेधी हो तो इसे उस दिन न करें, अपितु जब षष्ठी शुद्ध हो अथवा सप्तमी से मेल कर रही हो, तब करना चाहिए। नागविद्धा न कर्तव्या षष्ठी चैव कदाचन। यह षष्ठी पर्व त्रिदिनात्मक अर्थात तीन दिनों में संपन्न होने वाला व्रतपर्व है। इसका प्रारंभ चतुर्थी तिथि से होकर पंचमी तिथि को एक समय भोजन तथा षष्ठी को निराहार रहने का विधान है।

    षष्ठी तिथि को सांयकाल जब भगवान सूर्य अस्ताचल को प्रस्थान कर रहे हों, तब कहीं जलाशय, नदी या पवित्र जलस्थान में स्त्रियां नए वस्त्राभूषण धारणकर फल, मिष्ठान्न या अन्य पकवान, गेहूं के आटा, गुड़ तथा शुद्ध घी में तैयार किया हुआ, जिसे स्थानीय भाषा में ठेकुआ कहा जाता है (भगवती षष्ठी देवी को परमप्रिय) को लेकर नए बांस से निर्मित सूप या डाली (डेलिया) में रखकर, जिसे घर का कोई व्यक्ति, पति, पुत्र या अन्य कोई लेकर साथ साथ चलता हुआ जल के समीप पहुंचकर अस्त होते सूर्य को दूध, दही, घी, चावल, दूर्वांकुर अथवा कुशाग्र, जौ, जल के साथ अष्टार्घ्य अथवा दूध, जल, फल, फूल, गन्ने आदि से अर्घ्य दें। पुनः रात्रि विश्राम करके ब्राह्ममुहूर्त में ही नदी या जलाशय के तट पर पहुंचकर सूर्योदय की प्रतीक्षा करें।

    अरुणोदय काल में जब पूर्वी क्षितिज में लालिमा प्रकट होने लगे, तब पुनः भगवान सूर्य को प्रातःकालिक अर्घ्य समर्पित कर षष्ठी पूजन का विसर्जन करें, तत्पश्चात् प्रसाद वितरण कर स्वयं प्रसाद ग्रहण करता हुआ पारण करना चाहिए। मान्यता है कि इस व्रत को विधि-विधान से करने पर षष्ठीदेवी सहित भगवान सूर्य प्रसन्न होकर उसके दुःप्रारब्ध को मिटा देते हैं। तब व्रती की मनोभिलषित प्रार्थनाएं सफल हो जाती हैं।

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