छठ पूजा: मिट्टी, मां और मनुष्य का मिलन: प्रणय विक्रम सिंह
छठ पूजा एक ऐसा पर्व है जो मिट्टी, माँ और मनुष्य के मिलन का प्रतीक है। यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है, जिसमें डूबते सूरज को भी प्रणाम किया जाता है। छठ में परिवार का पुनर्मिलन होता है और सादगी में भव्यता का अनुभव होता है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है और जीवन के प्रति आभार व्यक्त करना सिखाता है।

सुबह का वह क्षण कभी देखा है, जब सूरज उगने से पहले धरती मैया मानों सांस रोक लेती हैं ?
यह वही वक्त है जब छठ मइया उतरती हैं... लोगों के मन और हृदय में...
अगर नहीं देखा, तो समझो अभी तक भारत को पूरे रूप में नहीं देखा।
घाट पर उतरती वह सांझ,
नदी की लहरों में थरथराती लौ, और उस लौ के साथ झिलमिलाते हज़ारों चेहरे,
यही तो भारत है।
यही तो उसकी आत्मा है।
छठ में जो भाव है, वह किसी धर्मग्रंथ से नहीं, धरती से उपजा हुआ है। इसमें पवित्रता किताबों से नहीं आती, रोटी और पसीने से आती है।
गांव के कच्चे रास्ते पर जब औरतें सूप सिर पर रखे चलती हैं, तो लगता है जैसे पूरी प्रकृति चल पड़ी हो...
उनके पीछे-पीछे बच्चे हैं। कोई डलिया उठाए, कोई फल लेकर भागता हुआ और घर की दहलीज पर बैठी बूढ़ी दादी आंखों से आशीर्वाद बरसा रही है।
हवा में गुड़ की महक, कदमों के नीचे गीली मिट्टी की ठंडक और आसमान में पंछियों का स्वर...
हर तरफ एक अद्भुत लय होती है।
कोई नारे नहीं, कोई ढोल नहीं... बस विश्वास का मूक संगीत। यह दृश्य कोई आयोजन नहीं, जीवन का उत्सव है। आस्था का वह आलोक जो धूप से नहीं, हृदय से जलता है।
यह पर्व कोई रस्म नहीं, यह तो धरती की देह में बसे देवत्व की अनुभूति है।
छठ में मंदिर नहीं सजते, घर सजते हैं...वैसे ही मन भी धुल जाता है।
माँ सुबह-सुबह आंगन लीपती हैं, तुलसी चौरा सजाती हैं, बच्चे दौड़ते हुए सूप और डलिया लाते हैं, पिता सरयू या गंगा घाट की ओर निकल पड़ते हैं। घर की तुलसी भी जैसे मुस्कुरा उठती हैं और कोने में रखे देवता भी चुपचाप निहारते हैं... फिर वही नेह, वही नाता, वही नमन।
छठ का सबसे सुंदर दृश्य तब होता है जब पूरा परिवार एक हो जाता है। जो परदेस में हैं, वे फोन पर गांव के घाट की तस्वीरें देखते हैं, जो गांव में हैं, वे छत पर बाल्टी भर जल में सूर्य को निहारते हैं। कहीं मइया का गीत, कहीं बच्चों की हंसी, कहीं दादी की मौन प्रार्थना, यही तो घर की गूंज है।
यह पर्व केवल पूजा नहीं, परिवार का पुनर्मिलन, मिट्टी की महक और मन का उजास है।
छठ का असली अर्थ कोई नहीं समझा सकता, वह महसूस किया जा सकता है। छठ का यह अद्भुत भाव है कि इसमें डूबते सूरज को प्रणाम किया जाता है। क्योंकि जो ढलते हुए को भी धन्यवाद दे, वही सच्चे अर्थों में जीवन का ऋणी है। अस्ताचल सूर्य को दिया गया अर्घ्य मानो कहता है कि "हे प्रभो, जो मिला, वही पर्याप्त है।"
सोचता हूं कि आडंबरों और दिखावे में डूबे मनुष्य के भीतर इतना विनम्र भाव कहां से आता है कि वह अस्त होते प्रकाश के आगे भी नतमस्तक हो जाता है?
नदी के घाट पर उतरती व्रती स्त्रियां, साड़ी का पल्लू जल में डूबा हुआ, आंखों में भक्ति का तेज यह दृश्य किसी मंदिर से कम नहीं होता।
उस समय घाट पर उतरती नारी की आंखों में सूर्य का प्रतिबिंब होता है, पर उसकी प्रार्थना परिवार के लिए होती है... बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी का दामाद अच्छा निकले, बुज़ुर्ग माँ की कमर का दर्द उतर जाए।
उसके तप में न गणित है, न दर्शन बस प्रेम है, और प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है।
सूरज ढलता है, पर उम्मीद नहीं ढलती। हर दीपक का झिलमिल प्रकाश कहता है कि "डूबना अंत नहीं, एक नए उगने की भूमिका है।"
रात बीतती है, ठंडी हवा में गीले वस्त्र सूखते हैं और फिर भोर की पहली लाली क्षितिज को छूती है।
सूर्य उगता है तो ऐसा लगता है मानो सृष्टि फिर से जन्म ले रही हो। हर घाट, हर आंगन में “छठ मइया के गीत” गूंजते हैं...
"काँच ही बांस के बहंगिया…"
और हर आवाज़ में अपनेपन की मिठास घुली होती है।
यह सूर्योदय केवल ज्योति नहीं, जीवन का पुनर्जन्म है। यह बताता है कि मिट्टी में भी वही तेज है जो सूरज में है, बस उसे नमन करने की भावना चाहिए।
छठ में कोई दिखावा नहीं होता।
मिट्टी का चूल्हा, बांस की डलिया, गुड़ का खीर, ठेकुआ का स्वाद, और माँ की तपस्या... यही इस पर्व की भव्यता है। किसी बड़े मॉल या सजावट की यहां जरूरत नहीं, क्योंकि आस्था का सौंदर्य दिखावे से नहीं, सादगी से जन्म लेता है। यह वही समाज है जो भूख में भी प्रसाद बांटता है, थकान में भी दीप जलाता है और अभाव में भी आभार करता है।
उस क्षण घर केवल घर नहीं रह जाता 'देवालय' बन जाता है। घर के देवी-देवता भी जैसे उस भक्ति में शामिल हो जाते हैं। पूर्वजों की आत्माएं मानो हवा में तैरती हैं, आशीष देती हुई कहती हैं कि "जहां यह आस्था जीवित है, वहां जीवन कभी मुरझाएगा नहीं।"
छठ व्रत रखने वाली स्त्रियां इस युग की सबसे बड़ी तपस्विनी हैं।
चार दिन तक बिना नमक, बिना स्वाद, बिना जल, पर चेहरे पर थकान नहीं, तृप्ति होती है।
उनकी आंखों में व्रत नहीं, विश्वास का दीया जलता है।
यह वह तप है, जो किसी वेद या उपनिषद में नहीं लिखा, पर हर गांव की मिट्टी में, हर माँ के हृदय में अंकित है।
यह पर्व एक भाव है जो मां के हाथों की महक, पिता की थकान, बच्चों की हंसी और दादी की मौन प्रार्थना में एक साथ जीवित रहता है।
जब गांव के घाट पर दीप जलते हैं, जब घर की तुलसी पर जल चढ़ता है, जब आसमान में उगता सूरज मुस्कुराता है...
तो लगता है मानो खुद सृष्टि कह रही हो कि "यह भूमि केवल उपजाऊ नहीं, उपासना है।"
छठ केवल पूजा नहीं यह प्रकृति के प्रति धन्यवाद है। जिस सूर्य ने खेतों को पाला, अनाज को पकाया, जिस जल ने जीवन को जिया और पृथ्वी ने सबको थामा, उसी के प्रति यह कृतज्ञता है।
जब नदी किनारे दीप झिलमिलाते हैं,
तो लगता है जैसे धरती कह रही हो... "मनुष्य, तू मुझसे दूर मत हो, मैं ही तेरी जननी हूं।"
मैंने देखा है, एक बूढ़ी दादी पानी में खड़ी हैं, होंठों पर कोई गीत, आंखों में स्मृति का सागर।
पास में खड़ी उसकी पोती वही गीत दोहरा रही है, लय जरा बिगड़ी हुई, पर भाव वही, जैसे पीढ़ियां एक-दूसरे के भीतर समा रही हों।
छठ में गाये जाने वाले गीतों में कोई तान नहीं, पर एक गहराई है जो आत्मा तक उतर जाती है।
उनमें सुख-दुख का ऐसा संगम है कि सुनने वाला खुद को भूल जाता है। वह समझ जाता है कि यह धरती अभी जिंदा है,
क्योंकि यहां आस्था अब भी मिट्टी के चूल्हे से उठती है, न कि लोहे की मशीन से।
छठ वह क्षण है जब मनुष्य अपने आपको ईश्वर से नहीं,
अपनी मिट्टी से जोड़ता है।
और शायद यही उसकी सबसे बड़ी प्रार्थना है...
कि जब तक यह आस्था बचेगी, तब तक यह देश भी धड़कता रहेगा।
और जब सब कुछ समाप्त होता है...
घाट खाली होने लगता है, पर हवा में वह गंध, वह भक्ति, वह अपनापन तैरता रहता है।
ऐसा लगता है जैसे नदी कह रही हो... "लौट जाओ, अब सूरज तुम्हारे भीतर जलता रहेगा।"

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