सांसों के संकट को कम करेगा 'मल्टीपल एटमॉस', CSIR-IITR लखनऊ के विज्ञानियों ने बनाया यंत्र
लखनऊ के सीएसआईआर-आईआईटीआर के वैज्ञानिकों ने 'मल्टीपल एटमॉस' नामक एक उपकरण विकसित किया है, जो हवा में मौजूद प्रदूषण को साफ कर सकता है। यह उपकरण हवा से धूल, गैसों और भारी धातुओं जैसे प्रदूषकों को अलग-अलग डिब्बों में एकत्र करता है, जिन्हें पुन: उपयोग किया जा सकता है। इसकी क्षमता 10 किलोमीटर तक के क्षेत्र में हवा को साफ करने की है और यह अन्य तकनीकों की तुलना में अधिक प्रभावी है।

सांसों के संकट को कम कर सकता है मल्टीपल एटमॉस।
गौरी त्रिवेदी, लखनऊ। दीपावली के पटाखों के साथ ही पराली और औद्योगिक क्षेत्रों के धुएं से वायु की गुणवत्ता बेहद खराब हुई है और हर तरफ एक्यूआइ यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स चर्चा का विषय है। सर्दी में स्माग और कोहरे से भी हवा और खराब होती है। ऐसे में लखनऊ स्थित वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद-भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (सीएसआईआर–आईआआईटीआर) की तकनीक ने एक उम्मीद जगाई है।
यहां के विज्ञानियों का दावा है कि उन्होंने ऐसा यंत्र तैयार किया है जो हवा में मौजूद प्रदूषण को साफ कर देगा। इस यंत्र का नाम है मल्टीपल–एटमॉस (मल्टी पोल्यूटेंट लेजेरिटी इफेक्टिव एयर ट्रीटमेंट मूवेबल सिस्टम) यानी ऐसा उपकरण जो हवा में मौजूद कई प्रदूषकों को साफ करने में सक्षम है। यह यंत्र हवा के प्रदूषण को अवशोषित करके एकत्र कर लेता है।
उदाहरण के तौर पर पीएम 10 और पीएम 2.5 जैसे धूल कण एक डिब्बे में, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें दूसरे डिब्बे में और भारी धातु जैसे शीशा, आर्सेनिक और निकल अलग डिब्बों में जमा होते हैं।
यंत्र चार पहियों वाली ट्राली पर लगाया गया है ताकि इसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके। इसे ट्रैफिक जंक्शन, औद्योगिक क्षेत्र, खुले बाजार, पार्किंग यार्ड, सुरंग और भीड़भाड़ वाले स्थानों में आसानी से रखा जा सकता है। इसकी क्षमता खुले क्षेत्र में रखने पर 10 किलोमीटर तक के क्षेत्र में हवा को साफ करने की है। यह हवा को खींचकर उसे फिल्टर करता है तथा हवा में मौजूद धूल, धातु, बैक्टीरिया और गैस को अलग कर देता है।
इसकी कुल लागत लगभग पांच लाख रुपये है। वरिष्ठ वैज्ञानिक डा श्रीकांत ने बताया कि वायु शुद्ध करने की प्रक्रिया दो मुख्य चरणों में होती है। पहले चरण में यह यंत्र धूल और ठोस कणों को रोकता है तथा दूसरे चरण में जहरीली गैसों और रोगजनक कीटाणुओं को निष्क्रिय किया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान निकलने वाले गैस, ठोस धातु, धूलकण आदि को दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए धूल का उपयोग पौधों के गमलों या भूमि भराई में किय जा सकता है। रासायनिक निष्क्रिय कणों का इस्तेमाल सड़क निर्माण या पार्कों में मिट्टी सुधार के लिए करने के साथ ही भारी धातु अवशेषों को सुरक्षित रूप से रीसाइकिल किया जा सकता है। सीएसआईआर–आईआईटीआर के निदेशक डा. भास्कर नारायण का कहना है कि यदि इस तकनीक का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जाए तो यह देश के कई शहरों में वायु गुणवत्ता सुधारने में मदद कर सकता है।
वरिष्ठ वैज्ञानिक श्रीकांत के अनुसार, भारत के 28 राज्य और 131 शहर ऐसे हैं जहां वायु गुणवत्ता मानक पूरे नहीं हो रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, देश के 28 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 131 शहर ऐसे हैं जहां वायु गुणवत्ता मानक पूरे नहीं हो पाए हैं।
इसी चुनौती से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू किया है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2025-26 तक पीएम 10 और पीएम 2.5 जैसे प्रदूषकों में 40 प्रतिशत की कमी लाना है। इसी दिशा में सीएसआईआर-आईआईटीआर ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से इस अभिनव तकनीक का विकास किया है।
अन्य व्यवस्थाओं से कैसे अलग है ‘मल्टीपल–एटमॉस’
वरिष्ठ वैज्ञानिक बोज्जागानी श्रीकांत ने बताया कि अब तक हवा को स्वच्छ बनाने के लिए कई उपाय अपनाए गए हैं। जैसे स्मॉग टावर, जो सीमित दायरे में धूल और धुएं को कम करते हैं, लेकिन इनका प्रभाव कुछ सौ मीटर तक ही रहता है। इसके अलावा एयर प्यूरिफाइंग मशीनें इमारतों के अंदर काम करती हैं, पर खुली हवा में इनका असर बहुत कम होता है। वहीं, सड़कों पर धूल कम करने के लिए वॉटर स्प्रिंकलर सिस्टम लगाया जाता है और पौधारोपण या ग्रीन वॉल्स जैसी प्राकृतिक व्यवस्थाएं लंबे समय में असर दिखाती हैं।
उन्होंने बताया कि ‘मल्टीपल–एटमॉस’ इन सभी तकनीकों से अलग और अधिक प्रभावी है, क्योंकि यह एक साथ 12 तरह के प्रदूषकों को अवशोषित कर सकता है। यह हवा को केवल फिल्टर नहीं करता, बल्कि प्रदूषण के हर घटक को अलग-अलग डिब्बों में जमा कर पुन: उपयोग योग्य बनाता है। इसकी प्रभाव सीमा 1 से 10 किलोमीटर तक है और इसे किसी भी क्षेत्र जैसे ट्रैफिक जंक्शन, औद्योगिक इलाका या खुले बाजार में लगाया जा सकता है।
करीब 5 लाख रुपये की लागत में तैयार यह चलायमान यंत्र उन सभी तकनीकों से बेहतर है, जो केवल सीमित क्षेत्र में प्रभाव दिखाती हैं। श्रीकांत के अनुसार, इस तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह हवा के साथ-साथ पर्यावरण और संसाधनों दोनों को सुरक्षित रखती है।

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