काबुल में बनी भारत की पहली निर्वासित सरकार का दारुल उलूम से कनेक्शन, अफगान शासक जाहिर शाह के नाम से देवबंद में है गेट
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी ने दारुल उलूम देवबंद में मौलाना अरशद मदनी से मुलाकात की। चर्चा में 1915 में काबुल में बनी निर्वासित सरकार का उल्लेख हुआ, जिसके प्रमुख राजा महेंद्र प्रताप सिंह थे। मौलाना मदनी ने दारुल उलूम के अफगानिस्तान से गहरे शैक्षिक और सांस्कृतिक संबंधों को बताया। 67 साल पहले अफगान शासक जाहिर शाह भी देवबंद आए थे, जिनकी याद में वहां एक द्वार बना है।

अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक जाहिर शाह के नाम से दारुल उलूम देवबंद में गेट। इंसेट में अमीर खान मुत्तकी
संवाद सहयोगी, देवबंद (सहारनपुर)। दारुल उलूम देवबंद पहुंचे अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी और जमीयत उलमा ए हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी की मुलाकात हुई। इस दौरान आजादी की लड़ाई के दौरान दारुल उलूम देवबंद के प्रधान अध्यापक शेखुल हिंद मौलाना महमूद हसन के आदेश पर काबुल (अफगानिस्तान) में 1915 में बनी निर्वासित सरकार का जिक्र भी हुआ। इस सरकार के प्रमुख राजा महेंद्र प्रताप सिंह थे।
मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि दारुल उलूम के अफगानिस्तान से शैक्षिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। कहा कि भारत की आजादी की लड़ाई से सीखकर अफगानिस्तान ने रूस और अमेरिका जैसी बड़ी ताकतों को धूल चटाई। यही ताकत उन्हें देवबंद लेकर आई।
वे बोले, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि आजादी की लड़ाई के दौरान दारुल उलूम देवबंद के प्रधान अध्यापक शेखुल हिंद मौलाना महमूद हसन के आदेश पर अफगानिस्तान में ही हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने एक निर्वासित सरकार कायम की थी। उस सरकार के राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप सिंह, प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली और विदेश मंत्री मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी थे। हमने उस ब्रिटिश शासकों से लंबी जद्दोजहद के बाद आजादी हासिल की, जिसके बारे में कहा जाता था कि उनकी हुकूमत का सूरज कभी डूबता नहीं है।
67 साल पहले तत्कालीन अफगान शासक जाहिर शाह आए थे देवबंद
दारुल उलूम देवबंद में यूं तो अफगानिस्तान के उलमा का हमेशा आना-जाना रहा है, लेकिन 67 साल पहले यानी 25 फरवरी 1958 में अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक मोहम्मद जाहिर शाह दारुल उलूम देवबंद आए थे। उस दौरान उलमा ने उनका स्वागत किया था। उसके बाद दारुल उलूम प्रबंधन ने उनके नाम से संस्था में द्वार का निर्माण किया था, जिसका नाम बाब-ए-जाहिर है।
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