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    Chhath 2025 : काशी की गलियों में विराजमान, अनोखी मान्‍यताओं के द्वादश सूर्य भगवान

    By Abhishek sharmaEdited By: Abhishek sharma
    Updated: Sun, 26 Oct 2025 01:09 PM (IST)

    काशी में छठ पूजा का विशेष महत्व है। यहां द्वादश सूर्य मंदिरों में भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। छठ पूजा के दौरान काशी की गलियों में रौनक देखने को मिलती है, घाटों को सजाया जाता है। महिलाएं 36 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं और सूर्य देव को अर्घ्य देती हैं। गंगा घाटों पर विशेष आयोजन किए जाते हैं।

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    काशी में द्वादश आद‍ित्‍य की मौजूदगी सूर्योपासना की परंपरा का बड़ा साक्ष्‍य है।

    जागरण संवाददाता, वाराणसी। भगवान भास्कर की आराधना का महापर्व डाला छठ अर्थात सूर्य षष्ठी पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। इस बार लोक आस्था से जुड़ा सूर्य षष्ठी पर्व 27 अक्टूबर को व्रत व अस्ताचलगामी सूर्य देव को अर्घ्य के साथ मनाया जाएगा। यह व्रत पर्व सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य व संतान प्राप्ति के लिए किया जाता है।

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    भगवान भास्कर के प्राय: समस्त व्रत संतान सुख प्राप्ति के लिए होते हैं। इसमें प्रत्यक्ष सूर्य देव का पूजन-वंदन किया जाता है। श्रीकाशी विश्वनाथ की नगरी में द्वादश आदित्य के भी दर्शन हो जाते हैं। इनके मंदिर भदैनी से लेकर अलईपुर तक स्थापित हैं। मान्यता है कि इन्हें अलग-अलग काल में यमराज समेत देव आदि ने प्रतिष्ठित किया। सबसे खास लोलार्कादित्य भदैनी स्थित लोलार्क कुंड में विराजमान हैं।

    यहां भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्ठी को लोलार्क षष्ठी मान अनुसार संतति कामना से स्नान का विधान है। लोक मान्यता है कि काशी में भगवान आदित्य की तेजोमयी रश्मियां पहले लोलार्क कुंड में पड़ती हैं। यहां कुंड में सूर्य का चक्र भी गिरा था। ज्योतिष शास्त्र अनुसार जन्मांग में काल पुरुष की पांचवीं राशि सिंह है। इसके स्वामी ग्रहराज सूर्य होते हैं। पंचम भाव संतान भाव का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए पुत्र या संतति कामना से हमारे धर्म शास्त्र में सूर्य की महिमा का प्रमुखता से बखान किया गया है।

    देखा जाए तो संतति प्राप्ति व आरोग्य के लिए सूर्य षष्ठी, लोलार्क षष्ठी, ललही छठ समेत जितने भी व्रत बताए गए हैं, सबमें भगवान भास्कर की पूजा होती है। इसमें सूर्य षष्ठी प्रमुख है। यह व्रत सर्व प्रथम द्वापर में माता कुंती ने किया था। वस्तुतः सूर्योपासना की परंपरा हमारे यहां वैदिक काल से है। इसके वर्णन से वेद-पुराण भरे पडे़ हैं। सनातन धर्म में प्रत्यक्ष देव स्वरूप में भगवान सूर्य का पूजन होता है। उषा-प्रत्युषा और प्रकृति का पूजन: डाला छठ पर्व में भगवान भास्कर की दोनों पत्नियों उषा-प्रत्युषा व छठी मइया की भी पूजा होती है। एक तरह से यह प्रकृति का भी पूजन है।

    यह धार्मिक आस्था का पर्व ऋतु संधिकाल में आता है। इस समय नई फसल खेतों में तैयार खड़ी होती है। नए चावल, नए गुड़, गन्ना, तमाम ऋतु फल भगवान को अर्पित किए जाते हैं। जल तीर्थों की सफाई और साज-संवार की जाती है। चूंकि समस्त ब्रह्मांड में ऊर्जा का सबसे बड़ा केंद्र सूर्यदेव हैं। इसलिए सनातन धर्म में प्रत्यक्ष देव स्वरूप इनका पूजन होता है। 

    सूर्य षष्ठी अर्थात डाला छठ वस्तुत: प्रकृति की पूजा का पर्व है। समष्टिगत रूप से इसमें लोक मंगल की कामना समाहित है तो व्यष्टिगत रूप से सूर्य आराधना के मूल में आरोग्य और विशेषत: संतति प्राप्ति होता है। छठ पर्व में यह समग्र रूप से दिख जाता है। मन्नतों की डाल सजती है या मनउती पूरी होने पर आभार की अर्घ्य धार भाव भरती है।

    कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तिथि में नहाय खाय के साथ पर्व के अनुष्ठान शुरू हो चुके हैं। सप्तमी की प्रात: उदित सूर्य को अर्घ्य देकर समापन होगा। छठ पर्व को भले बिहार से धार मिली हो, लेकिन यह काशी की जड़ों से जुड़ा है। बाबा श्रीकाशी विश्वनाथ की नगरी में विराजमान द्वादश आदित्य इसकी गवाही देते हैं। 

    काशी में द्वादश आदित्य

    लोलार्कादित्य (लोलार्क कुंड-भदैनी) 

    विमलादित्य (जंगमबाड़ी-खारी कुआं) 

    सांबादित्य (सूर्य कुंड) 

    उत्तरार्कादित्य (बकरिया कुंड-अलईपुर) 

    केशवादित्य (आदिकेशवघाट) 

    खखोलादित्य (कामेश्वर गली) 

    अरुणादित्य (त्रिलोचन महादेव मंदिर) 

    मयूखादित्य (मंगलागौरी मंदिर) 

    यमादित्य (संकठा घाट पर यमराज द्वारा स्थापित) 

    गंगादित्य (ललिता घाट) 

    वृद्धादित्य (मीरघाट) 

    द्रौपदादित्य (विश्वनाथ मंदिर में अक्षय वट के पास)

     

    डूबते सूर्य को अर्घ्य का बड़ा संदेश श्रीकाशी विद्वत परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री प्रो. रामनारायण द्विवेदी कहते हैं कि ‘तुला राशि में पदार्पण के बाद पृथ्वी के सन्निकट आ चुके सूर्य की उपासना के पर्व डाला छठ पर डूबते सूर्य को अर्घ्य की परंपरा सृष्टि के संरक्षक के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति का ही प्रतीक है। यह आभार प्रदर्शन सिर्फ छठ पर्व तक ही सीमित नहीं है। दैनंदिन संध्योपासन क्रम के अंतर्गत प्रात:कालीन सूर्य को ब्रह्म स्वरूप में, मध्याह्न के भास्कर को विष्णु स्वरूप में व अस्त होते सूर्य को रुद्र रूप में नियमित अघ्र्यदान का विधान शास्त्रों में बताया गया है। 

    सूर्य षष्ठी पर उगते सूरज को प्रणाम तो वार्धक्य का भी वंदन-अभिनन्दन उगते सूरज को पूरी दुनिया प्रणाम करती है, लेकिन डूबते सूरज व उसके योगदान के वंदन-अभिनंदन की परंपरा भारतीय धर्म-दर्शन की उजली चादर की छांव में ही पुष्पित पल्लवित हो सकती है। कारण यह कि इस उदात्त दर्शन में शिव-शव, जन्म-मृत्यु व उदय-अवसान सबको एक दृष्टि व समान भाव से स्वीकार व अंगीकार करने का माद्दा सहज श्रद्धा के रूप में इसी में समाहित है।

    इस भावबोध ने उदीयमान सूर्य यदि तिमिर के विजेता के रूप में पूजित है तो वहीं अस्ताचलगामी सूर्य हर रात के बाद की नई अरुणिमा, नए सूरज की नूतन आशाओं के संदेशवाहक के रूप में अर्चनीय है। स्वर्णिम रश्मियों के तेजोमय आभामंडल से घिरा सुबह का सूरज यदि तरुणाई के प्रखर प्रतिमान के रूप में अभिनंदनीय तो पश्चिम के क्षितिज में विलीन होने को उद्यत दिन भर का थका-हारा शाम का बूढ़ा सूरज उस पुरखे के रूप में वंदनीय है जिसने अपने कुल-वंश के योग-क्षेम के लिए अपना सब कुछ वार दिया। स्वयं की ऊर्जा का तिल-तिल अपनों की शक्ति संवर्धन पर निसार दिया। सूर्याराधन पर्व सूर्यषष्ठी यानी डाला छठ पर इन्हीं श्रद्धास्पद भावों के साथ लाखों लोग करोड़ों अंजुरियों से पर्व का पहला अघ्र्य अस्ताचलगामी सूर्य की प्रतिष्ठा में ही समर्पित करेंगे। 

    अजस्र ऊर्जा और प्रकाश के स्रोत सूर्य प्रत्यक्ष वैश्विक देवता हैं, जिनकी अतीत एवं वर्तमान दोनों में पूजन की परंपरा हमें निरंतरता में प्राप्त होती है। भारत में सौर संप्रदाय के अधिष्ठाता देवता के साथ ही नवग्रहों के ग्रहपति और आदित्य रूप में सूर्य की उपासना के संदर्भ में वैदिक और पौराणिक प्रचुर संदर्भ मिलते हैं, जहां विष्णु का भी एक आदित्य के रूप में उल्लेख है।

    काशी में छठी सदी से 13वीं सदी ईस्वी के मध्य की 35 से अधिक सूर्य मूर्तियां घाटों स्थानीय संग्रहालयों, पुरा स्थलों और मंदिरों से प्राप्त हुई हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि भगवान शिव की इस नगरी में सूर्य की उपासना उसी काल से चली आ रही है। काशी में द्वादश आदित्याें के मंदिरों एवं मूर्तियों के साथ ही कम से कम तीन या चार सूर्य मंदिरों का निर्माण किया गया है जो सूर्य उपासना की लोकप्रियता की साक्षी हैं।

    राजातालाब के समीप बभनियांव एवं महावन ग्राम में शुकुलपुर स्थित शुष्केश्वर महादेव मंदिर, तुलसी घाट, कंदवां स्थित कर्मदेश्वर मंदिर के समीप लघु देवालय, रामघाट, मणिकर्णिका घाट, भारत कला भवन, सिंधिया घाट से सूर्य मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। वर्तमान में सूर्यकुंड के विशाल गहड़वाल कालीन 12वीं सदी के सूर्य मंदिर का विशेष महत्व है। यद्यपि यह मंदिर पूरी तरह से नष्ट हो चुका है किंतु मंदिर के गर्भगृह में स्थापित विशाल पद्म के रूप में सूर्य के प्रतीकात्मक अंकन का प्रमाण यहां सुरक्षित है।

    स्कंद पुराण एवं सांब पुराण में कृष्ण के पुत्र सांब द्वारा सांबादित्य यानी सूर्य मंदिर स्थापित किए जाने के संदर्भ मिलते हैं। यह सूर्य मंदिर मूलत. 12वीं शती ईस्वी का है। सूर्य की उपासना रोगों के उपचार विशेषतया कुष्ठ रोग का संबंध भी सांब से जुड़ा हुआ है। मंदिर के पूर्व दिशा में एक बड़ा सरोवर है जिसकी स्थिति काशी के अन्य तीर्थ कुंडों की अपेक्षा बहुत अच्छी नहीं है, फिर भी स्थानीय प्रशासन एवं पर्यटन विभाग की ओर से कुछ सौंदर्यीकरण का कार्य कराया गया है। कुंड के पूर्वी भाग में तीन लघु देवालय हैं जो लगभग 18वीं-19वीं सदी के हैं जिनमें गर्भगृह में शिवलिंग, गणेश एवं हनुमान की मूर्तियां स्थापित हैं।

    यहीं पर एक विशाल पीपल वृक्ष के नीचे गहड़वाल काल के कुछ अवशिष्ट प्राचीन मूर्तियां एवं वास्तु खंड आज भी असुरक्षित अवस्था में पड़े हैं। इनमें दो विशाल पद्म पटों के माध्यम से सूर्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है, जबकि तीन देवकुलिकाओं में चतुर्भुज गणेश, स्थानक विष्णु (शंख-चक्र) और पद्मधारी सूर्य की स्थानक प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। एक अन्य उदाहरण में पद्मधारी चतुर्भुज स्थानक लक्ष्मी की आकृति पहचानी जा सकती है।

    यद्यपि इन सभी मूर्तियों पर सिंदूरी आलेप से इनका स्वरूप बहुत स्पष्ट नहीं है। एक अन्य परवर्ती वास्तु खंड पर जो प्रवेश द्वार का भाग है, हनुमान की मूर्ति उत्कीर्ण है। इसी प्रकार सूर्य कुंड के पश्चिमी भाग के समीप वृक्ष के नीचे कुछ खंडित मूर्तियां पड़ी हैं। सूर्य पूजन की काशी में प्राचीन परंपरा है। यही कारण 11वीं एवं 13वीं सदी ईस्वी के गुजरात स्थित मौढैरा और ओडिशा स्थित कोणार्क सूर्य मंदिरों पर प्रसव की दृश्य भी अंकित किए गए हैं। सूर्य के साथ ही षष्ठी माता संतति कल्याण से भी जुड़ी हुई हैं।

    सूर्य के साथ पद्म का भी गहरा अर्थ है। सूर्योदय के साथ पद्म का खिलना यानी जीवन का प्रारंभ होता है। सूर्य के प्रकाश और ऊर्जा से हमारा जीवन जुड़ा है तथा वनस्पतियां भी औषधीय गुण सूर्य के प्रकाश से ही प्राप्त करती हैं। मानव रूप में अंकन भी छठीं सदी से ही आरंभ: देश में सूर्य की मानव मूर्ति निर्माण के पूर्व प्रतीक रूप में चक्र, पद्म और रश्मि मंडल के रूप में लगभग छठी शती ईस्वी पूर्व से ही पंच मार्तंड सिक्कों पर सूर्य का अंकन प्राप्त होता है।

    सूर्य एकमात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें केवल दो हाथों वाला सनाल पद्मधारी और समभंग में सीधे खड़े अथवा बैठे दिखाया गया है। सूर्य के साथ सप्ताश्व सप्ताह सात दिनों और सात रंगों तथा अश्वगति और शक्ति का प्रतीक हैं। सूर्य के तेज के कारण ही विष्णु, शिव, गणेश एवं अन्य देवताओं के समान सूर्य कभी भी शक्ति देवी के साथ नहीं दिखाया गया है। सूर्य की कल्पना में ईरानी प्रभाव के कारण उनके पैरों में उपानह के रूप में लंबे बूट भी दिखाए गए हैं।