काशी में आकाशदीपों से प्रकाशित होता है गंगा तट, अनोखी मान्यता से है जुड़ाव
काशी में गंगा तट आकाशदीपों से प्रकाशित है, जिसका एक विशेष महत्व है। कार्तिक मास में आकाशदीप जलाने की परंपरा पितरों की मुक्ति से जुड़ी है। गंगा आरती के समय यह दृश्य और भी अद्भुत हो जाता है। दूर-दूर से श्रद्धालु इस परंपरा का हिस्सा बनने के लिए आते हैं।

संस्था द्वारा देश के अमर सपूतों की स्मृति में संपूर्ण कार्तिक मास आकाशदीप जलाया जाता है।
जागरण संवाददाता, वाराणसी। कहने को तो सिर्फ दीया और बाती मगर वास्तव में गौरवशाली परंपराओं की अनमोल थाती हैं अकाशदीप। थाती उन उदात्त परंपराओं की जो सर्वे भवंतु सुखिन: की कामना के साथ पूरे विश्व को तमस से उबार कर दिव्य ज्योति की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती हैं।
धरा से ऊपर उठ कर आकाश गंगा के समानानंतर प्रकाशगंगा प्रवाहित करने वाली यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई यह दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता मगर सनत्कुमार संहिता के कार्तिक महात्म्य के नौवे अध्याय में इस विशिष्ट माह के दौरान तिल के तेल से परिपूरित आकाश दीपों के दान का उल्लेख मिलता है। काशी में कार्तिक मास पर्यंत देव पितरों की राह आलोकित करने को जलाए जाने वाले आकाशदीप की परंपरा बता रहे हैं प्रमोद यादव....।
आकाश दीप जलाने के मंतव्य व अर्थ को ले कर बहुरंगी भारतीय जीवन दर्शन में अलग-अलग मान्यताएं हैं। जहां तक बात भौतिक दृष्टि की है ओस से भीगी काली रातों के निविड़ अंधकार को तमतमाती चुनौती देते ये नन्हे दीये निराश मन में आशाओं की नई उर्जा का संचार तो करते ही हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने वाले विद्वानों के अनुसार आकाश सर्वव्यापी परमात्मा का प्रतीक है तो करंड (पिटारी) जीवात्मा का। इसमें ज्ञान की बाती प्रज्ज्वलित होने पर वंश का यश बढ़ता है। यही नहीं उसे परमात्मा का सामीप्य भी मिलता है। आकाशदीप दान से लक्ष्मी, संतति, आरोग्य व विष्णु की प्रसन्नता की बात भी ग्रंथों में प्राप्त होती है।
एक मान्यता यह भी है कि व्यवसाय के लिए परदेश गए परिजनों के मार्गदर्शन के लिए घाट पर दीप जलाने की परंपरा शुरू की गई थी। पुराने समय में नदियां व नावें ही आवागमन का जरिया हुआ करती थीं। रात के घुप अंधेरे में अंधकार की काली चादर के उपर ये दीये माणिक्य की तरह चमकते रहते। जब थके हुए पांवों को दो हाथ की जमीन भी अबूझ होती थी तो ये टिमटिमाते दीये पथिक को राह दिखाते थे।
यह भी माना जाता है कि इन दीपों से देव-ऋषि- पितरों का इहलोक से परलोक तक का पथ आलोकित हाता है। उधर, वैज्ञानिक इस परंपरा को अपने नजरिये से देखते हैं। उनकी मानें तो आकाशदीप व दीप प्रज्ज्वलन पर्यावरण प्रदूषण को समाप्त करने में सहायक है। पुराणों में आकाशदीप के तीन भेद बताए गए हैैं। इनमेंं 20 हाथ की लंबाई वाले बांस पर लगे आकाशदीप को उत्तम, नौ हाथ के बांस वाले को मध्यम व पांच हाथ की लंबाई वाले आकाशदीप को कनिष्ठ या अधम माना गया है।
बांस की कुल लंबाई के नवम अंश पर पताका होनी चाहिए। इस पर एक तुला लटका कर उसकी कड़ी में बांस या अक्षक की बनी पिटारी लटकाते हैैं। इसे डोरी के सहारे उपर या नीचे किया जा सकता है। इसी में तिल के तेल से भरा दीया रख कर जलाया जाता है। माना जाता है कि लम्बी पताका युक्त व मोर पंख से शोभित आकाशदीप विष्णु को प्रिय है।
जो नहीं आ पाते, पंडों के सहारे परंपरा निभाते
एक मान्यता यह भी है कि कार्तिक मास में आकाशदीप की परंपरा सद्जीवन की ओर प्रेरित करने वाला एक अनुष्ठान है। काशी में पतित पावनी गंगा के पवित्र घाट पर प्राचीन काल से आकाशदीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। देश ही नहीं विदेशों से भी घाटों पर बांस लगाकर लोग आकाशदीप दान करने आते हैैं। यह सिलसिला कार्तिक मासपर्यंत हर शाम चलता है। जो यहां नहीं पहुंच पाते वे पंडों के माध्यम से दीपदान करा कर पुण्यलाभ के भागीदार बनते हैैं।
काशी में सदियों-सदियों से गंगा घाटों पर अपने पूर्वजों की स्मृति में, उनके स्वर्गलोक की यात्रा के मार्ग को आलोकित करने के लिए आकाश-दीप जलाने की परंपरा रही है। आकाश-दीप से जुड़े कथानकों में ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध में प्राण विसर्जित करने वाले वीरों की स्मृति में भीष्म ने कार्तिक मास में दीप मालिकाओं से उन्हें संतर्पण दिया था।
परंपरा आज भी यथावत है, गौर करने की बात यह कि 1999 में कारगिल युद्ध विजय से गंगा सेवा निधि द्वारा अमर बलिदानियों के पुण्य स्मृति में आकाश दीप संकल्प का विस्तारीकरण एवं राष्ट्रीय रूप दिया गया था। संस्था द्वारा देश के अमर सपूतों की स्मृति में संपूर्ण कार्तिक मास आकाशदीप जलाया जाता है।
आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद को समर्पित अनुष्ठान
काशी के पंचगंगा स्थित श्रीमठ में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने वर्ष 1780 में आकाशदीप के लिए लाल पत्थर से एक हजारे का निर्माण कराया। माना जाता है कि देश में यह अपनी तरह का अनोखा और एकमात्र हजारा है। इस पर एक हजार दीपों को एक साथ जलाने की व्यवस्था है। यह दीप स्तंभ भी आकाशदीप की परंपरा की गवाही देता अनेक स्मृतियों को समेटे आज भी मठ की सीढिय़ों पर विद्यमान है। देवदीपावली के दिन इस पर एक हजार दीए टिमटिमाते हैैं।
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