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    बंद हो रहा दून का 'गड्ढे वाला' सिनेमाहॉल, इंटरनेट की दुनिया,ओटीटी ने बदली मनोरंजन की दुनिया

    Updated: Wed, 05 Nov 2025 11:09 AM (IST)

    देहरादून का प्रसिद्ध 'गड्ढे वाला' सिनेमाहॉल अब बंद हो रहा है। इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म के बढ़ते चलन ने दर्शकों को घर बैठे मनोरंजन उपलब्ध करा दिया है, जिससे सिनेमा हॉल की लोकप्रियता घट गई। दशकों से यह हॉल लोगों के मनोरंजन का केंद्र था, लेकिन अब इसे बंद करने का निर्णय लिया गया है।

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    इतिहास को समेटे गड्ढे वाला सिनेमा हॉल छायादीप, जिसे अब बंद करने की तैयारी की जा रही हैl जागरण

    सुमित थपलियाल, जागरण देहरादून। इंटरनेट की जगमगाती दुनिया, ओटीटी प्लेटफार्म का बढ़ता क्रेज। इस बदलते दौर ने सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की तस्वीर व तकदीर दोनों को भी बदल डाला। देहरादून की बात करें बीते एक दशक से कई सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर बंद हो चुके हैं जबकि कई यादों में सिमटककर रह गए। 14 से 15 सिनेमाघरों में अब मात्र चार ही सिनेमाघर संचालित हो रहे हैं।

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    इनमें से गड्ढ़े वाला सिनेमा के नाम से प्रसिद्ध सबसे बड़ा पर्दा वाला छायादीप सिनेमा भी अपने पांच दशक पूरा करने के बाद अब लगभग बंद हो चुका है। कमाई न होने से संचालक इसे बेच रहे हैं। जनवरी से अबतक यहां एक ही फिल्म चल रही है। जब कभी 15 लोग फिल्म देखने के लिए यहां एकत्रित हो जाते हैं तो फिल्म चलाई जाती है अथवा यूं ही बंद पड़ा हुआ है।

    देहरादून की बात करें तो सिनेमा का इस शहर से गहरा नाता रहा है। 80 के दशक में जब कोई फिल्म प्रदर्शित होती थी तो सड़कों पर कई दिनों तक मेला जैसा नजारा रहता था। एक ही फिल्म कई हफ्ते तक देखी जाती थी। लेकिन बदलते दौर के साथ सिनेमाघर अब यादों में ही रह गए हैं। जानकारों के मुताबिक 80 के दौर में देहरादून में तकरीबन 14 से 15 सिनेमाघर थे, लेकिन वर्तमान में चार ही सिनेमाघर संचालित हो रहे हैं।

    इसके पीछे का कारण मल्टीप्लेक्स, ओटीटी प्लेटफार्म बताया जा रहा है। यूं तो दून में किसी ना किसी वर्ष सिनेमाघरों का सफर खत्म होता है। लेकिन गांधी पार्क के सामने संकरी सी गली से होते हुए ढलान के पस स्थित छायादीप सिनेमा 1974 बनाया गया था। यहां पहली फिल्म 19 जलाई 1976 में महबूबा रिलीज हुई थी। उन दिनों 30 पैसा का आगे जबकि एक रुपये 90 पैसे का बालकनी का टिकट होता था।

    सिनेमाहाल के स्वामी अजमत सिराज खान और कामिल सिराज खान ने बताया कि उनके पिता एस खान ने दो बीघा में बने इस सिनेमाहाल को वर्ष 2000 में करतार सिंह अरो़ड़ा और सुभाष गुप्ता जो इसके पार्टनर थे, उनसे खरीद लिया था। यहां लैला मजनू, महबूबा, निकाह, उमरावजान आदि कई फिल्में दिखाई गई। बाद में यहां भोजपुरी फिल्में अधिक चलने लगी।

    कोरोनाकाल के बाद से सिनेमाहाल में दर्शकों की संख्या बेहद कम होने लगी। पहले जहां यहां 14 लोगों का स्टाफ होता था अब दो लोग हैं। जो मजदूर वर्ग के लोग यहां फिल्म देखने आते थे वह भी जब समय मिलता है माल आदि में देख लेते हैं अथवा ओटीटी पर देखते हैं। इसलिए यहां अब गिनती के 10 से 15 लोग पहुंचते हैं।

    सिंगल स्क्रीन सिनेमाज एसोसिएशन के उपाध्यक्ष और छायादीप के संचालक कामिल सिराज खान बताते हैं कि इस वर्ष जनवरी को मंजुल ठाकुर निर्देशित भोजपुरी फिल्म निरहुआ हिंदुस्तानी-4 फिल्म लगी। इस वर्ष अबतक सबसे ज्यादा 48 दर्शक 26 जनवरी पहुंचे। पहले चार शो होते थे लेकिन अब स्थिति यह है कि यदि दिन में 15 लोग एकत्रित हो जाते हैं तो फिल्म चला देते हैं वरना ऐसे ही बंद रहता है।

    मुख्य गेट पर ताला लगा दिया है जो लोग आते हैं दूसरे दरवाजे से आते हैं। दर्शकों की कम होती संख्या के कारण इसे बेचने का मन बनाया है। इसके लिए कई लोग संपर्क में हैं। इस सिनेमाघर का पर्दा 80 x 40 का है जबकि अन्य में 60 x 40 का होता है। इसमें 100 वर्ष पुराना रसियन प्रोजेक्टर लगा है। अभी 30 रुपये का आगे का टिकट जबकि बालकनी का 50 रुपये का है।

    कभी यहां बिकते थे 500-700 पान
    छायादीप के बाहर पान की दुकान चलाने वाले बागीलाल जायसवाल ने बताया कि 31 मार्च 1982 से वे यहां दुकान चला रहे हैं। एक वह भी समय था जब लोग फिल्म देखने आते तो बिना पान खाए अंदर नहीं जाते थे। इसलिए दुकान पर दो लोग बैठते थे और हर दिन 500-700 पान बिक जाते थे। अब यह बंद होने जा रहा तो एक सिर्फ याद ही उस दौर की सामने आ रही है।

    वर्ष 2023 में पायल ने भी 42 वर्ष का सफर किया खत्म
    गांधी पार्क के सामने संकरी सी गली में स्थित पायल सिनेमाहाल ने भी वर्ष 2023 में 42 वर्ष का सफर खत्म किया। वर्ष 1881 में जसबीर, रामस्वरूप मारवाह, सुरेंद्र पाल व हरपाल ने मिलकर पायल सिनेमाघर शुरू किया था। उस समय की बात करें तो पूरे परिसर में काफी भीड़ रहती थी। पहली गढ़वाली फिल्म 2014 में ठुंगार लगी थी।

    इसके बाद इंटरनेट मीडिया के दौर में दर्शकों की संख्या कुछ कम हुई तो अंतिम भोजपुरी फिल्म जय हिंद लगी थी जिसका अंतिम शो दो दिसंबर 2022 को देखा गया। जिन चार लोग ने सिनेमाघर शुरू किया था उनमें से अंतिम व्यक्ति रामस्वरूप मारवाह का निधन आठ अगस्त 2019 को हुआ। इसके बाद इस सिनेमाघर को बेचकर ध्वस्तीकरण कर दिया गया।

    70 से 80 के दशक में यह थे देहरादून के मुख्य सिनेमाघर
    लक्ष्मी टाकीज गांधी रोड, फिल्मिस्तान टाकीज मोती बाजार, कैपरी सिनेमा चकराता रोड, प्रभात टाकीज चकराता रोड, ओडियन सिनेमा राजपुर रोड, कृष्णा पैलेस चकराता रोड, ओरियंट सिनेमा क्वालिटी चौक, विक्ट्री सिनेमा क्लेमेंनटाउन, गैरीजन हाल सिनेमा, माल रोड गढ़ी कैंट, दिग्विजय सिनेमाहाल घंटाघर, कनक सिनेमा परेड ग्राउंड, पायल सिनेमा राजपुर रोड, नटराज सिनेमा, न्यू एंपायर सिनेमा राजपुर रोड, छायादीप सिनेमा राजपुर रेाड। इनमें से वर्तमान में सिंगल स्क्रीन में नटराज व न्यू एंपायर, ओरिएंट चल रहे हैं जबकि छायादीप बंद होने जा रहा है।


    80 के दौर में मसूरी में सर्द मौसम में बर्फ के चलते सिनेमाघर बंद हो जाते थे। पैदल ही मसूरी के लोग देहरादून में फिल्म देखने पहुंचते थे। तब एक रुपये का टिकट होता था और राजपुर से घंटाघर तक आने का 25 पैसा किराया था। उस दौर में फिल्म देखने के लिए काफी क्रेज था। आज सिनेमाहाल एक एक कर बंद होते जा रहे हैं लेकिन यादें आज भी ताजा महसूस कराती हैं।

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    -गोपाल भारद्वाज, इतिहासकार

    समय के साथ सबकुछ बदलता है। 80 से 2000 तक किसी ने सोचा नहीं था कि सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल दर्शकों का इंतजार करेंगे। लेकिन आज स्थिति यही है। दर्शक भी आजकल की फैशन व मार्डन जिंदगी से जीना पसंद करते हैं। इसलिए जो कभी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर जाते थे उनका रुख मल्टीप्लेक्स व ओटीटी की तरफ जा रहा है। ऐसा नहीं है कि सिंगल स्क्रीन पूर्णत: बंद होंगे। क्योंकि सिंगल स्क्रीन के दर्शक आज भी हैं।

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    - श्रीश डोभाल, वरिष्ठ रंगकर्मी।

    सिनेमा के लिए उत्तर प्रदेश के समय से यहां कोई भी पालिसी नहीं बन पाई। दक्षिण में आज भी सिनेमाघर जिंदा है क्योंकि वहा की सरकार ने 10 हजार की आबादी पर थिएटर की सुविधा दी। आंचलिक फिल्मों में टैक्स फ्री किया। उत्तर भारत में पंजाब के अलावा कहीं भी पालिसी नही है। सिनेमाहाल बंद होने का कारण ओटीटी प्लेटफार्म कुछ हद तक हो सकता है लेकिन सबसे बड़ा कारण है सरकार ने इस दिशा में नीति नहीं बनाई। कंटेट राइटर को और बेहतर कार्य कर दिखाना होगा। ताकि बच्चों के लिए भी फिल्म बनाई जाए। सरकार अभी भी चाहे तो साउथ की तरह फिल्म नीति बना सकती है ताकि बचे हुए सिनेमाघर बेहतर संचालित हो सकें।

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    - डा. योगेश धस्माना, इतिहासकार