जंगल की बात : भटकते गजराज की कौन सुने फरियाद
उत्तराखंड में गर्मी के मौसम में गला तर करने के हाथी इधर से उधर भटक रहे हैं। ऐसे में जगह जगह मानव से हाथियों का टकराव भी हो रहा है। यह बताता है कि जंगल में पानी की व्यवस्था के लिए कितने पुख्ता इंतजाम किए हैं।

केदार दत्त, देहरादून। चिलचिलाती धूप और उस पर सूखते जलस्रोत। ऐसे में गला तर करने को गजराज इधर से उधर तो भटकेंगे ही। आखिर प्रश्न जीवन से जुड़ा है, फिर इसके लिए चाहे कोई भी खतरा क्यों न मोल लेना पड़े।
उत्तराखंड के जंगलों में भी यमुना से लेकर शारदा नदी तक लगभग साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हाथियों के बसेरे के आसपास की स्थिति भी इन दिनों ऐसी ही है।
फिर चाहे वह कोटद्वार क्षेत्र हो अथवा राजाजी या कार्बेट टाइगर रिजर्व से लगे क्षेत्र, वहां गजराज अक्सर भटकते देखे जा रहे हैं और इसका एक ही कारण है पानी की तलाश। ऐसे में जगह-जगह मानव से उनका टकराव भी हो रहा है।
यह परिदृश्य बताता है कि रखवालों ने जंगल में पानी की व्यवस्था के लिए कितने पुख्ता इंतजाम किए हैं। यदि गजराज की फरियाद को सही ढंग से सुना गया होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती।
बाड़ ही खेत चरने लगेगी तो...
जंगल में मोर नाचा किसने देखा, यदि रखवाले ही इस परिपाटी पर चलेंगे तो क्या होगा। वैसा ही होगा, जैसा कार्बेट टाइगर रिजर्व के कालागढ़ टाइगर रिजर्व वन प्रभाग में हुआ।
जिस संरक्षित क्षेत्र में बगैर अनुमति के एक पत्ता, पत्थर तक नहीं उठाया जा सकता, वहां नियम-कायदों को ताक पर रखकर निर्माण कार्य करा दिए गए। यद्यपि, मामला उछलने पर जंगल में हुए अवैध निर्माण ध्वस्त किए जा चुके हैं।
जांच पड़ताल के बाद अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई भी की गई है, लेकिन प्रश्न उठता है कि ऐसी नौबत क्यों आई। यदि बाड़ ही खेत चरने लगेगी तो फिर भगवान ही मालिक है। ऐसे में हर स्तर पर गंभीरता से चिंतन-मनन की आवश्यकता है।
तंत्र को तो इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने ही होंगे, जंगल के रखवालों को भी अपनी जिम्मेदारी, जवाबदेही समझनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि नियम कानूनों से इतर कोई काम न हो।
पेड़ों की बिगड़ती सेहत बनी खतरा
न केवल शहरों और गांवों बल्कि जंगल से गुजरने वाली सड़कों के किनारे के दरख्त कराह रहे हैं। कहीं सीमेंट-कंक्रीट से सड़क बनने पर उनकी जड़ों तक पानी नहीं पहुंच पा रहा तो कहीं विभिन्न कारणों से इनके तने खोखले हो चले हैं।
ऐसे में वे थोड़ी भी तेज हवा का दबाव नहीं झेल पा रहे। परिणामस्वरूप गिरते पेड़ और टूटती टहनियां खतरे को न्योता दे रही हैं। पूर्व में कई बार ऐसी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, लेकिन लगता है तंत्र को इस विषय की गंभीरता से कोई सरोकार नहीं।
इस परिदृश्य के बीच ऐसे पेड़ों की सेहत जांचने के लिए सिस्टम बनना आवश्यक है। यदि समय-समय पर विभिन्न मार्गों से लगे पेड़ों का निरीक्षण होता रहेगा तो संभावित खतरे से निबटने के साथ ही पानी के रूप में उनकी खुराक की व्यवस्था हो सकेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि तंत्र अब इस दिशा में भी कदम उठाना सुनिश्चित करेगा।
चुनौती बनी है जंगल की आग
उत्तराखंड को अस्तित्व में आए 21 साल हो चुके हैं, लेकिन जंगल की आग की ऐसी चुनौती है, जिससे अभी तक पार नहीं पाई जा सका है। वह भी यह जानते हुए कि हर साल ही यहां जंगल धधकते हैं। आग की रोकथाम के लिए जिस तरह की ठोस रणनीति और उचित संसाधन चाहिए, उस मोर्चे पर अभी सुस्ती का आलम दिखता है।
यद्यपि, सरकार ने राज्य में सालभर फायर सीजन घोषित किया है, जो यह साबित करता है कि विषय गंभीर है। बावजूद इसके तंत्र की हीलाहवाली हर किसी को सोचने पर विवश करती है। आज के आधुनिकीकरण के दौर में यहां आग बुझाने को झांपा, यानी हरी टहनियों से बना झाड़ू ही मुख्य अस्त्र है।
कहने को वन पंचायतों के रूप में मानव संसाधन की बड़ी फौज है, मगर उसका ठीक से उपयोग नहीं हो रहा। अग्नि नियंत्रण के लिए अत्याधुनिक उपकरणों की अनुपलब्धता भी कचोटने वाली है।

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