Jagran Samvadi Dehradun: आपातकाल का दायरा विस्तृत, इसके हर पहलू पर गहन शोध आवश्यक
25 जून 1975 को लगे आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर जागरण संवाद में विशेषज्ञों ने इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि आपातकाल को तीन चरणों में देखना जरूरी है और यह विशुद्ध राजनीतिक इतिहास का विषय है। आपातकाल के दौरान संविधान की हत्या की गई और मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ लेकिन इसके बाद जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति ज्यादा जागरूक हुई।

राज्य ब्यूरो, जागरण देहरादून। देश में 50 साल पहले 25 जून 1975 को थोपे गए आंतरिक आपातकाल का दायरा बेहद विस्तृत है। इसे तीन चरणों आपातकाल से पहले, आपातकाल और इसके बाद के 22 महीने की परिस्थितियों को देखने की जरूरत है। यह विशुद्ध राजनीतिक इतिहास की विषय वस्तु है और इसके प्रत्येक पहलू पर गहन चिंतन व शोध की आवश्यकता है।
रविवार को जागरण संवादी के मंच पर आपातकाल को लेकर हुए संवाद में यह बात निकलकर सामने आई। इस दौरान आपातकाल थोपने के पीछे के पृष्ठभूमि की बात हुई तो आपातकाल में संविधान की हत्या कर किस तरह से लोकतंत्र का गला घाेंटने का प्रयास हुआ, इसे तथ्यों व तर्काें के साथ रेखांकित किया गया। यह भी कहा गया कि आपातकाल का ये पहलू भी है कि इसके बाद लोकतांत्रिक कर्तव्य की दृष्टि से जनता अधिक परिपक्व हुई।
फेयरफील्ड बाय मैरियट होटल में आयोजित जागरण संवादी के दूसरे दिन आपातकाल पर केंद्रित सत्र ‘दमन के 50 वर्ष’ में शामिल हुए कवि एवं गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र, स्तंभकार अभिजीत अय्यर मित्रा व दैनिक जागरण के कार्यकारी संपादक विष्णु प्रकाश त्रिपाठी। उनसे संवाद किया दैनिक जागरण के एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने। सत्र की शुरुआत करते हुए दैनिक जागरण के एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने बात रखी कि किस तरह देश पर आपातकाल थोपा गया।
साथ ही कवि एवं गीतकार मिश्र से प्रश्न किया कि आपातकाल में दो चार को छोड़कर अधिकांश साहित्यकार, गीतकार व कवियों ने चुप्पी साधे रखी। इस पर मिश्र ने कहा कि आपातकाल के दौरान वह बनारस में पत्रकारिता करते थे। तब यह बात थी कि कुछ लिखेंगे तो जेल जाएंगे। बावजूद इसके सरकार की आंखों में धूल झोंककर वह एक चर्च में बौद्धिक गोष्ठियां करते थे। साथ ही बोले की बाघ की मांद में जाकर कार्य करना कठिन हाेता है।
दैनिक जागरण के कार्यकारी संपादक विष्णु प्रकाश त्रिपाठी ने स्पष्ट किया कि वर्ष 1962 व वर्ष 1971 में युद्ध के चलते बाह्य आपातकाल स्वाभाविक था, जबकि वर्ष 1975 में आंतरिक आपातकाल लगाया गया। उन्होंने कहा कि जब आपातकाल थोपा गया तो तीन-चार दिन बाद लोग इसे समझ पाए। वजह ये कि पहले ऊपर स्तर के लोगों की गिरफ्तारियां हुई और इसके बाद स्थानीय लोग गिरफ्तार किए जाने लगे। इससे भय व असुरक्षा का वातावरण बना। आपातकाल के पीछे के कारणों पर विस्तार से रोशनी डाली।
उन्होंने कहा कि आपातकाल विशुद्ध रूप से राजनीतिक इतिहास का विषय है। आपातकाल से पहले, आपातकाल और इसके बाद की स्थिति के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि इन पर गहन चिंतन व शोध होना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि आपातकाल के बाद मध्यवर्ती भारत की जनता ने दमन, शोषण के खिलाफ जनादेश दिया।
तब जो लोग सत्ता पर काबिज हुए, उनके द्वारा जनता के साथ किस तरह विश्वासघात किया गया। यही नहीं, तब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने भी आपातकाल का समर्थन किया था। संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद जैसे शब्दों को जोड़ने संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा कि यह कार्य अवैध नहीं, अनैतिक ढंग से किया गया।
स्तंभकार अभिजीत अय्यर मित्रा ने कहा कि आपातकाल के दो भाग हैं इसे लागू करना व क्रियान्वित करना। तब आज की तरह की स्थिति नहीं थी। वर्ष 1971 के युद्ध और देश पर लगे प्रतिबंध, वर्ष 1973 के अरब-इजरायल युद्ध व कच्चे तेल की कीमतों में भारी बढ़ोतरी, बांग्लादेश के एक करोड़ लोगों का भारत आना जैसी परिस्थितियों को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1974 में ही आपातकाल का निर्णय ले लिया था।
इसके पीछे आर्थिक तनाव से उपजा राजनीतिक तनाव भी था, लेकिन तब वह इसे फलीभूत नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा कि आपातकाल में संविधान की हत्या कर लोकतंत्र का गला घाेंटा गया। मानवाधिकारों का कदम-कदम पर उल्लंघन किया गया। देशवासियों के साथ जो क्रूरता हुई, उसकी जानकारी इंदिरा गाधी व संजय गांधी को थी, लेकिन उनके द्वारा इस पर रोक नहीं लगाई गई।
लोकतांत्रिक कर्तव्य को लेकर परिपक्व हुई जनता
संवाद के दौरान देहरादून के राजेंद्रनगर निवासी दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा दयानंद अरोड़ा ने पूछा कि आपातकाल से जनता और राजनीति ने क्या सीखा। जवाब देते हुए दैनिक जागरण के कार्यकारी संपादक विष्णु प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि आपातकाल के बाद लोकतांत्रिक कर्तव्य की दृष्टि से जनता अधिक परिपक्व हुई। उसने नीर-क्षीर-विवेक का परिचय दिया। यही नहीं भारतीय राजनीति भी परिपक्व हुई। आपातकाल के बाद जिस जनसंघ व भाजपा का उदय हुआ, वह भारतीय राजनीति की बड़ी उपलब्धि है।
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