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    पांडवों की बदरी-केदार भूमि से जुड़ी अमर गाथा, आज भी लोकनृत्य में जीवित है परंपरा

    By Dinesh KukretiEdited By: Sunil Negi
    Updated: Mon, 08 Dec 2025 07:20 PM (IST)

    गढ़वाल में पांडव नृत्य एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा है, जो महाभारत से पांडवों के जुड़ाव को दर्शाती है। यह नृत्य, विशेष रूप से रुद्रप्रयाग जिले के त ...और पढ़ें

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    उत्तराखंड में शीतकाल में पांडव नृत्य की रहती है धूम।

    दिनेश कुकरेती, जागरण देहरादून: यूं तो पहाड़ में लोकनृत्यों का खजाना बिखरा पड़ा है, लेकिन इनमें सबसे खास है पांडव (पंडौं) नृत्य। पांडवों का गढ़वाल से गहरा संबंध माना जाता है। महाभारत युद्ध से पूर्व और युद्ध समाप्ति के बाद भी पांडवों ने गढ़वाल में लंबा अर्सा गुजारा।

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    यहीं, लाखामंडल में पांडवों को माता कुंती समेत जिंदा जलाने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह बनवाया। महाभारत युद्ध के बाद कुल, गोत्र व ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति के लिए महर्षि वेदव्यास ने पांडवों को शिव की शरण में केदारभूमि जाने की सलाह दी थी।

    मान्यता है कि पांडवों ने केदारनाथ में महिष रूपी भगवान शिव के पृष्ठ भाग की पूजा-अर्चना कर वहां बाबा केदार को प्रतिष्ठित किया। इसी तरह मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व कल्पेश्वर में भी उन्होंने भगवान शिव की आराधना की।

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    इसके बाद वह द्रौपदी समेत बदरीशपुरी होते हुए स्वर्गारोहिणी प्रस्थान कर गए। लेकिन, युधिष्ठिर ही सशरीर स्वर्ग पहुंच पाए, अन्य पांडवों व द्रौपदी ने भीम पुल, लक्ष्मी वन, सहस्त्रधारा, चक्रतीर्थ व संतोपंथ में शरीर का त्याग कर दिया।

    पांडवों के बदरी-केदार भूमि के प्रति इसी अलौकिक प्रेम ने उन्हें गढ़वाल का लोक देवता बना दिया। इसलिए यहां शीतकाल में पांडव नृत्य की धूम रहती है।

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    तल्ला नागपुर के अलग ही रंग

    पांडव नृत्य का सबसे विविधतापूर्ण आयोजन रुद्रप्रयाग जिले के तल्ला नागपुर क्षेत्र में होता है। हर साल नवंबर-दिसंबर के मध्य यह पूरा क्षेत्र पांडवमय हो जाता है। अन्य क्षेत्रों, खासकर देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर का भी पांडव नृत्य एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है।

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    खुशहाली व अच्छी फसल की कामना

    गढ़वाल क्षेत्र में नवंबर-दिसंबर के दौरान खेतीबाड़ी का काम पूरा हो जाता है। इस अवधि में लोग पांडव नृत्य में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते हैं। पांडव नृत्य के पीछे लोग विभिन्न तर्क देते हैं। इनमें गांव की खुशहाली व अच्छी फसल की कामना प्रमुख हैं।

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    धियाण और प्रवासी लौट आते हैं घर

    पांडव नृत्य का पहाड़वासियों से गहरा पारिवारिक संबंध है। इस दौरान गांवों में प्रवासियों की चहल-पहल रहती है और बंद घरों के ताले खुल जाते हैं। यह ऐसा अनुष्ठान है, जब दूर रहने वाली धियाण (ब्याहता बेटी) भी अपने मायके लौट आती हैं।

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    पांडव चौक में होता यह अनूठा नृत्य

    पांडव नृत्य के आयोजन से पूर्व इसकी रूपरेखा तय करने को लोग गांव के पांडव चौक (पंडौं चौरा) में एकत्रित होते हैं। यह वह स्थान है, जहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल-दमाऊ, जो उत्तराखंड के लोकवाद्य हैं, उनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं।

    जैसे ही ढोली (औजी या दास) ढोल पर विशेष ताल बजाते हैं, नृत्य में पांडवों की भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों पर पांडव अवतरित हो जाते हैं। इन्हें पांडवों का पश्वा कहा जाता है।

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    हर वीर की विशेष ताल

    पांडव पश्वों के अवतरित होने के पीछे भी एक रहस्य छिपा है, जिस पर शोध चल रहे हैं। महत्वपूर्ण यह कि पांडव पश्वा गांव वाले तय नहीं करते। वह ढोली के नौबत बजाने (विशेष ताल) पर स्वयं अवतरित होते हैं।

    युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी के अवतरित होने की विशेष ताल होती है। बताते हैं कि पांडव पश्वा उन्हीं पर अवतरित होते हैं, जिनके परिवारों में वह पहले भी अवतरित होते रहे हैं।

    13 पश्वा करते हैं पांडव नृत्य

    इन आयोजनों में पांडव पश्वों के बाण निकालने का दिन, धार्मिक स्नान, मोरु डाळी, मालाफुलारी, चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गरुड़ व्यूह आदि सम्मिलित हैं। पांडव नृत्य में कुल 13 पश्वा होते हैं।

    इनमें कुंती, द्रौपदी, भगवान नारायण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, हनुमान, अग्निवाण, मालाफुलारी, भवरिक व कल्या लुहार शामिल हैं। डा. विलियम एस.सैक्स की पुस्तक ‘डांसिंग विद सेल्फ’ में पांडव नृत्य के हर पहलू को रोचक ढंग से उजाकर किया गया है।

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    खास है लाखामंडल

    गढ़वाल की यमुना घाटी में अनेक स्थान पांडवों के साथ कौरवों से भी जुड़े हुए हैं। इन्हीं में प्रमुख है लाखामंडल। कहते हैं कि लाखामंडल में कौरवों ने षड्यंत्र के तहत लाक्षागृह का निर्माण किया था, ताकि माता कुंती समेत पांडवों को जिंदा जलाया जा सके।

    लाखामंडल में आज भी सैकड़ों गुफायें हैं, जिनमें लाक्षागृह से सुरक्षित निकलकर पांडवों ने लंबा समय गुजारा था। जौनसार के इस इलाके में हर वर्ष पांडव लीला एवं नृत्य का आयोजन होता है।

    जीवन की मनोरम झांकी

    पांडव नृत्य कोई सामान्य नृत्य न होकर नृत्य, गीत व नाटकों का सम्मिलित स्वरूप है। इसमें ढोल की अहम भूमिका है।

    ढोली व सहयोगी वार्ताकार पांडवों की जीवन शैली, खान-पान, हास्य, युद्ध, कृषि जैसे अनेक क्रियाकलापों को नृत्य, गीत व नाटिका के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य में जहां हास्य-व्यंग्य शामिल है, वहीं युद्ध कौशल व पांडवों के कठिन जीवन, रोष-क्षोभ का भी समावेश होता है।

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    नृत्य का सूत्रधार है ढोली

    इस नृत्य, गीत व नाटिका के सफल संचालन का जिम्मा गांव के ढोली का होता है। ढोली ही वह लोग हैं, जो महाभारत की कथाओं के एकमात्र ज्ञाता हैं। वह गीत व वार्ताओं से पांडव नृत्य में समा बांध देते हैं।

    बीच-बीच में गांव के अन्य बुजुर्ग, जिन्हें पांडवों की कहानियां ज्ञात होती हैं, लयबद्ध वार्ता व गायन के जरिये इसका हिस्सा बनते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव नृत्य के लिए गायन की कोई पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट नहीं होती।

    ढोली अपने ज्ञान के अनुसार कथा को लय में प्रस्तुत करता है और उसी हिसाब से सुरों में उतार-चढ़ाव लाया जाता है।

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