लोक के रंग, जागरण के संग: देवभूमि में तो द्वारपाल हैं गणेश; मंगल गायन से शुभ शुरुआत
उत्तराखंड में गणेश उत्सव के साथ घरों के प्रवेश द्वार पर भगवान गणेश खोली के गणेश के रूप में विराजमान हैं। गढ़वाल में मांगल और कुमाऊं में शकुनाखर के रूप में मंगल गायन से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। गोबर गणेश की पूजा प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है। मांगल गीतों में पंचनाम देवताओं का आह्वान किया जाता है जबकि शकुनाखर में गणेश वंदना की जाती है।

जागरण संवाददाता, देहरादून। महाराष्ट्र की तर्ज पर जब पूरा उत्तराखंड गणेश उत्सव के रंग में रंगा है, तब हम उस उत्तराखंडी लोक में प्रवेश कर रहे हैं, जहां भगवान गणेश द्वारपाल के रूप से घरों के प्रवेश द्वार पर विराजमान हैं।
आप उन्हें लालबाग का राजा कह लीजिए, लेकिन हमारे लिए तो वे ‘खोली के गणेश’ हैं। देवभूमि उत्तराखंड में खोली परंपरागत घरों के प्रवेश द्वार को कहा जाता है, जहां हम गणेश का नहीं, गणेश हमारा स्वागत करते हैं।
इसलिए पहाड़ में अस्कोट से लेकर आराकोट तक, बल्कि तराई-भाबर के मैदान में भी हर शुभ-मांगलिक कार्य की शुरुआत मंगलाचरण यानी मंगल गायन से होती है।
इस मंगल गायन को ही गढ़वाल में मांगल और कुमाऊं में शकुनाखर (शगुन सूचक अक्षर) कहा जाता है। ...चलिये! हम भी गणेशजी के आह्वान के साथ उत्तराखंडी लोक को समर्पित अपने इस अनुष्ठान का मंगलाचरण करें।
घर की चौखट ही नहीं, घट-घट में खोली के गणेश का वास
सनातनी परंपरा में गणेश प्रथम पूज्य हैं, लेकिन पर्वतीय अंचल में वह परिवार के ऐसे सदस्य हैं, जो यहां घर की चौखट (प्रवेश द्वार) ही नहीं, घट-घट में वास करते हैं। इसलिए किसी भी शुभ-मांगलिक कार्य की शुरुआत करने से पहले हम गाय के गोबर की जिस पिंडी को पूजा की वेदी में स्थापित करते हैं, उसे ‘गोबर गणेश’ कहा जाता है।
ऐसा करने के पीछे प्रकृति एवं पर्यावरण के संरक्षण का भाव भी छिपा हुआ है। इसी के साथ होता है लोक गायन शैली में पंचनाम देवताओं विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य व शक्ति का आह्वान, जिसे गढ़वाल अंचल में मांगल गीत कहते हैं। यहां पारंपरिक वेश-भूषा में सुसज्जित महिलाएं गाती हैं-
दैंणा होयां खोली का गणेशा हे, दैंणा होयां मोरी का नारैणा हे।
दैंणा होयां भूमि का भूम्याला हे, दैंणा होयां पंचनाम देवा हे।
दैंणा होया नौखोली का नाग हे, दैंणा होया नौखंडी नरसिंघा हे।
(हे! घर के प्रवेश द्वार पर विराजमान प्रथम पूज्य गणेश, मोरी यानी खिड़कियों पर विराजमान भगवान नारायण, क्षेत्र के रक्षक क्षेत्रपाल देवता, हमारे ईष्ट पंचनाम देवता, नौ घरों के नाग देवता और नौ रूपों में विराजमान नृसिंह देवता- हम पर आपकी कृपा सदैव बनी रहे। आप प्रकट हों और हमारे अनुष्ठान को सफल बनायें।)
यहां नौ घरों के नाग हैं, अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कंबल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिया, जबकि नौखंडी नरसिंघ इंगला वीर, पिंगला वीर, जती वीर, थती वीर, घोर-अघोर वीर, चंड वीर, प्रचंड वीर, दूधिया नृसिंह और डौंडिया नृसिंह को कहा गया है।
गणेश वंदना ही है शकुनाखर का गायन
कुमाऊं अंचल में मांगल को शकुनाखर कहा गया है। शकुनाखर हर शुभ कार्य से पहले गणेश वंदना के रूप में गाया जाता है, जिसमें देवी-देवताओं का आह्वान करते हुए गणेशजी से हर बाधा दूर करने और मंगल की कामना की जाती है।
शकुनाखर का गायन भी महिलाएं ही करती हैं। इन गीतों में संबंधित कार्य के निर्विघ्न संपन्न होने के लिए ईष्ट देवों से आशीर्वाद मांगा जाता है। साथ ही परिवार के लिए शांति, सुख-समृद्धि और स्वजन के लिए दीर्घायु की कामना की जाती है। गायन कुछ इस तरह होता है-
शकुना दे शकुना दे सब सिद्ध, काज ये अति नीको शकुना बोल्या।
दाईना बजन छन, शंख शब्द, दैणी तीर भरियो कलेश।
अति नीको सो रंगोलो, पटलो आंचली कमलै को फूल।
सोही फूलू मौलावंत, गणेश, रामीचंद्र, लछीमन, लव-कुश, जीवा जनम आध्या अंबरू होय।
(आओ! शकुनाखर गायें, अतिसुंदर शुभ कार्य हो रहा है। दाहिनी ओर मधुर शंख बज रहे हैं और कलश भरा हुआ है। रंगीन पाट के आंचल में कमल का फूल रखा है, जिसे गणेशजी, रामजी, लक्ष्मणजी व लव-कुश जी लाए हैं। वे जुग-जुग जियें, अमर रहें।)
सुर व लय में बिना ताल के गाए जाते हैं मांगल व शकुनाखर
गढ़वाल अंचल में मांगल गीत गाने वाली महिलाओं को ‘मंगलेर’, जबकि कुमाऊं अंचल में ‘शकुनाखर’ गाने वाली महिलाओं को ‘गीदार’ या ‘गीतेर’ कहा जाता है। मांगल व शकुनाखर सुर व लय में बिना ताल के गाए जाते हैं।
हालांकि, ढोल, दमाऊ, हुड़का, तबला, मशकबीन, हारमोनियम व की-बोर्ड की लहरियों पर भी इन्हें गाया जा सकता है। दोनों अंचल में अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग मांगल व शकुनाखर गाने की परंपरा है। मांगल व शकुनाखर का गायन एकल व समूह में, दोनों तरह किया जा सकता है।
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