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Uttarakhand: मां के आंचल व पिता के सीने से लिपट सिस्टम के दर्द को सह रहा मासूम, पढ़ें खौफ के साये में जी रहे परिवार की कहानी

Uttarakhand News उत्तराखंड के दानीजाला गांव के बच्चे स्कूल जाने के लिए जान जोखिम में डालकर गोला नदी पार करते हैं। इस गांव के लोगों ने देश की सुरक्षा में योगदान दिया है लेकिन उन्हें सरकार से सिर्फ एक 100 मीटर पुल की जरूरत है। राज्य गठन के बाद से छह सरकारें देख चुकी हैं लेकिन पुल का निर्माण नहीं हो सका है।

By govind singh Edited By: Nirmala Bohra Updated: Sun, 22 Sep 2024 03:36 PM (IST)
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Uttarakhand News: दानीजाला का साढ़े चार वर्षीय हर्ष काठगोदाम स्थित स्कूल में नर्सरी का छात्र. Jagran

गोविंद बिष्ट, जागरण  हल्द्वानी । Uttarakhand News: साढ़े चार साल उम्र का ये वह शुरुआती दौर है, जब घरवाले किसी भी जिद को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। भले वह खाने की चीज हो, या घर के किसी कोने में नए खिलौने को सजाने की ख्वाहिश।

सबसे अहम ये है कि ये उम्र परेशानी, संकट और चुनौती जैसे शब्दों को समझती ही नहीं, मगर दानीजाला गांव का मासूम हर्ष एक दिन में दो बार इन परिस्थितियों को महसूस करता है। उसके लिए ये हालात सिस्टम ने पैदा किए हैं।

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बेरहम सिस्टम और दर्द न दे सके, इसलिए हर सुबह वह मां का आंचल और दोपहर में पिता के सीने से लिपटकर गौला के उफान को पार करता है। गांव से स्कूल जाने वाले 20 बच्चे रोजाना इन्हीं हालात से गुजर रहे हैं।

रानीबाग के पास स्थित दानीजाला गांव के लोगों ने देश की सुरक्षा में पहले भी योगदान दिया है और अब भी दे रहे हैं। यहां के लोगों को सरकार से सिर्फ एक 100 मीटर पुल के अलावा और कुछ नहीं चाहिए, लेकिन राज्य गठन के बाद से छह सरकारें देख चुके इन लोगों के लिए 21वीं सदी में भी पुल एक सपने जैसा ही है।

बच्चे को पकड़कर खतरे के सफर पर आगे बढ़ते हैं माता-पिता

गांव के बड़े-बुजुर्ग और महिलाओं की परेशानी को तो दैनिक जागरण प्रमुखता से प्रकाशित कर चुका है। आज बात साढ़े चार साल के हर्ष की, जिसका काठगोदाम के एक स्कूल में इसी साल नर्सरी में एडमिशन हुआ है।

सुबह पिता सूरज और मां ममता नदी किनारे पहुंच जाते हैं। उसके बाद सूरज पहले अकेले ही ट्राली में बैठकर नदी का उफान पार करते हैं, ताकि ममता और हर्ष के ट्राली में बैठने के बाद वो दूसरे छोर की रस्सियां खींचकर उन्हें नदी पार करवा सके।

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वापसी में पिता अपने बच्चे को पकड़कर खतरे के सफर पर आगे बढ़ते हैं, जबकि मां दूसरे किनारे से रस्सी को पकड़कर जोर लगाती है।

दावों और वादों की डींगें हांकने वाले नेताओं और अधिकारियों को मासूम के स्कूल जाने और लौटने के दौरान नदी के किनारे खड़े होकर उसके चेहरे के भाव देखने चाहिए। इससे उन्हें दानीजाला के लोगों की परेशानी और दर्द महसूस होने लगेगा। चमचमाते दफ्तरों में बैठकर ग्रामीणों की समस्याओं पर चिंतन नहीं हो सकता।

फौजी ने असम में देखकर गांव में तैयार करवाई ट्राली

गांव के जीवन सिंह दस वर्ष पहले भारतीय सेना से नायक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्होंने बताया कि 1993-94 में वह असम में तैनात थे। इस दौरान उन्होंने एक गांव में नदी को पार करने वाली ट्राली देखी। सेवानिवृत्ति के बाद गांव आए तो देखा हर कोई पुल न होने से परेशान है। इसके बाद करीब 30 हजार खर्चकर ट्राली तैयार करवाई।

कोरोना काल में ट्राली कमजोर होने पर पूरे गांव ने 50 हजार का चंदा जुटाकर दोबारा इसे तैयार करवाया। मानसून में बार-बार लोहे की तार की ग्रीस बह जाती है। सूखेपन को दूर करने के लिए वह खुद ग्रीसिंग करते हैं। पूर्व सैनिक जीवन का कहना है कि पूर्वजों के गांव को छोड़ने का मन नहीं करता। इसलिए संकट के बावजूद परिवार संग यही रहता हूं।

परेड वाले दिन सुबह चार बजे ट्राली में बैठ जाती है जिया

गांव की जिया नैनीताल स्थित डीएसबी कालेज में बीसीए की छात्रा है। इसके अलावा एनसीसी की कैडेट भी है। परेड वाले दिन सुबह सात बजे कालेज पहुंचना पड़ता है। इस स्थिति सुबह चार बजे परिवार के सदस्यों को गांव के किनारे पर ले जाने के बाद वह ट्राली से नदी पार करती है। इसके बाद बस पकड़कर कालेज जाती है, लेकिन सर्दियों और बरसात के दिनों में परेशानी बढ़ जाती है।

गांव का वातावरण अच्छा है। सभी लोग एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। इसलिए गांव से बाहर रहने का कभी सोचा नहीं। पुल बनाकर हमारे एकमात्र संकट को दूर करना चाहिए। - हीरा रजवार

गांव के लोगों ने खुद नदी पार करने के ट्राली तैयार की है, जबकि सड़क-पुल जैसी सुविधाएं विकसित करना सरकार का काम है। स्वीकृति के बावजूद भी गांव में पुल नहीं बना। - सूरज रजवार

कालेज आने-जाने के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। गांव का हर व्यक्ति पुल न होने से परेशानी के दौर से गुजर रहा है। समस्या का स्थायी समाधान होना चाहिए। - जिया थापा

बच्चे छोटे हैं। इसलिए रोज स्कूल खुलने और छुट्टी के समय मुझे भी नदी के किनारे जाना पड़ता है। ट्राली अस्थायी व्यवस्था है, मगर पुल नहीं बनने के कारण कोई और विकल्प नहीं है। - ममता