राज कुमार सिंह। किसी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने पर सदन में पीठासीन अधिकारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यही कारण है कि नई लोकसभा के गठन में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद को लेकर सियासी दांवपेच के सिलसिले ने जोर पकड़ लिया है। इसी कड़ी में विपक्ष जहां राजग के सहयोगी दलों को लोकसभा अध्यक्ष पद पर दावेदारी के लिए उकसा रहा है वहीं उपाध्यक्ष पद के लिए अपना दावा भी ठोक रहा है। उसने संकेत दिए हैं कि उपाध्यक्ष पद न दिए जाने पर वह अध्यक्ष पद के लिए अपना उम्मीदवार उतारेगा।

ऐसी स्थिति में पहली बार इस पद के लिए चुनाव देखने को मिल सकता है और आम सहमति से लोकसभा अध्यक्ष चुनने की परंपरा खंडित हो सकती है। पहली बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री मोदी मंत्रिपरिषद के गठन और महत्वपूर्ण विभागों के आवंटन का पेच तो सुलझा चुके हैं, लेकिन उनके लिए लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव की चुनौती का तोड़ निकालना अभी शेष है। चूंकि लगातार दो बार भाजपा को अपने दम पर बहुमत प्राप्त था तो पार्टी अपनी पसंद के लोकसभा अध्यक्ष को चुनती आई थी और ऐसी सरकारों में अध्यक्ष का रणनीतिक महत्व भी उतना नहीं रहा। इस बार हालात बदले हुए हैं। बड़े फैसलों के लिए मोदी सरकार को सहयोगी दलों के समर्थन की दरकार होगी।

मंत्रिमंडल गठन में दबाव बनाने से तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू और जदयू के नीतीश कुमार ने शायद इसलिए भी परहेज किया हो कि उन पर ‘सौदेबाज’ का ठप्पा न लगे, लेकिन अपने राज्य के लिए विशेष पैकेज तथा अपने दल की सुरक्षा की दृष्टि से लोकसभा अध्यक्ष न सही, लेकिन उपाध्यक्ष का पद मांगने से शायद ही वे चूकें। भाजपा के बाद तेदेपा और जदयू ही राजग में दूसरे और तीसरे बड़े दल हैं। सदन संचालन और सरकार के संकटकाल में लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका निर्णायक होती है।

लोकसभा अध्यक्ष को दलगत राजनीति से परे निष्पक्ष रूप से सदन के संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन पीए संगमा और सोमनाथ चटर्जी जैसे ऐसे कुछ स्पीकर सिर्फ अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। वर्ष 1967 में लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने पर नीलम संजीव रेड्डी ने तो कांग्रेस की सदस्यता से भी यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि स्पीकर को किसी दल का सदस्य नहीं होना चाहिए। वही, संजीव रेड्डी 1977 में दूसरी बार अध्यक्ष बने। कुछ समय बाद वह देश के निर्विरोध राष्ट्रपति भी बने। वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु संधि के विरोध में मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने पर माकपा चाहती थी कि उसके सदस्य सोमनाथ चटर्जी स्पीकर पद छोड़ दें, लेकिन उन्होंने खुद को दलगत राजनीति से ऊपर बताते हुए इससे इन्कार कर दिया। बाद में माकपा ने चटर्जी को पार्टी से निलंबित कर दिया।

विडंबना यह है कि पिछले कुछ दशकों में स्पीकर का पद दलगत राजनीति का अखाड़ा बन गया है। संवेदनशील मुद्दे पर बहस या अविश्वास प्रस्ताव पर निर्णय में तो स्पीकर की भूमिका अहम रहती ही है, किसी दल में बगावत या विभाजन में वह निर्णायक बन जाता है। शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में विभाजन के घटनाक्रम में महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका की राजनीतिक गलियारों से लेकर न्यायपालिका तक में कड़ी आलेाचना हुई। पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में तत्कालीन स्पीकर शिवराज पाटिल ने अजित सिंह के जनता दल में विभाजन को एक जारी प्रक्रिया करार दिया था। शायद ऐसे उदाहरणों के चलते भी 16 सांसदों वाली तेदेपा और 12 सांसदों वाला जदयू लोकसभा अध्यक्ष के मुद्दे पर जोखिम मोल न लेना चाहें।

सत्तारूढ़ दल के लिए छोटे दलों में विभाजन कराना मुश्किल नहीं होता। फिर, इन दोनों दलों के अतीत में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से खट्टे-मीठे रिश्ते रहे हैं। दूसरी ओर मोदी भी इतना महत्वपूर्ण पद अपने सहयोगियों को देने के लिए आसानी से राजी नहीं होंगे, क्योंकि तब सरकार पर सहयोगियों के अंकुश के विकल्प बढ़ जाएंगे। भाजपा 15 अप्रैल, 1999 को वाजपेयी सरकार का एक वोट से नाटकीय पतन भी नहीं भुला सकती। तब तेदेपा के ही जीएमसी बालयोगी स्पीकर थे। अन्नाद्रमुक द्वारा समर्थन वापसी पर स्वयं ही बहुमत साबित करने के क्रम में गिरने वाली उस पहली सरकार के पतन में बसपा द्वारा कदम पीछे खींचने की बड़ी भूमिका रही, लेकिन अंत में ओडिशा के मुख्यमंत्री बन चुके कांग्रेसी सांसद गिरधर गोमांग को मतदान में भाग लेने की स्पीकर द्वारा दी गई अनुमति निर्णायक साबित हुई।

गोमांग के वोट बिना पक्ष-विपक्ष के वोट समान होते और स्पीकर निर्णायक वोट दे पाते। गठबंधन की सरकारों में स्पीकर पद सहयोगी दलों को दिए जाने की भी एक अघोषित परंपरा भी रही है। वाजपेयी की राजग सरकार में तेदेपा के जीएमसी बालयोगी के बाद शिवसेना के मनोहर जोशी भी स्पीकर बने। मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार में भी माकपा के सोमनाथ चटर्जी स्पीकर बनाए गए। 18वीं लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों को 24-25 जून को शपथ दिलाने के लिए सबसे वरिष्ठ सदस्य को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया जाएगा। फिर 26 जून को नए स्पीकर का चुनाव सदन में मौजूद सदस्यों के बहुमत द्वारा किया जाएगा।

मोदी सरकार के नजरिये से तो पिछली लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला का कार्यकाल अच्छा ही रहा। बिरला फिर चुनकर आए हैं, लेकिन बड़ी संख्या में विपक्षी सांसदों के निलंबन के मद्देनजर राजग सहयोगियों को भी उनके नाम पर आपत्ति हो सकती है। राजग में सहमति की जिम्मेदारी रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को दी गई है। भाजपा आंध्र प्रदेश से अपनी सांसद डी. पुरंदेश्वरी का नाम आगे बढ़ा रही है। उनका सशक्त पक्ष यह है कि वह तेदेपा के संस्थापक स्वर्गीय एनटी रामाराव की बेटी हैं और चंद्रबाबू नायडू की रिश्तेदार हैं। इस बार भाजपा और तेदेपा में गठबंधन कराने में भी उनकी भूमिका बताई जा रही है।

पिछले चुनाव के परिणामों के मद्देनजर गठबंधन दोनों दलों की जरूरत भी थी, लेकिन नायडू जैसा चतुर नेता अपनी राजनीति की चाबी पुरंदेश्वरी के हाथ शायद ही देने को राजी हों। ऐसे में नए लोकसभा अध्यक्ष का चयन राजग के घटक दलों में परस्पर विश्वास की पहली अग्निपरीक्षा भी बनता दिख रहा है। भविष्य का संकेत भी इससे मिल जाएगा, लेकिन सबसे बड़ी चिंता का विषय सदन के संरक्षक की विश्वसनीयता को लेकर उठने वाले सवाल का होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)