अनिल जोशी। मानसून के आगमन के बीच हम सब इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि इस बार कितनी अधिक गर्मी पड़ रही है और लू का कहर किस तरह जानलेवा सिद्ध हुआ। गर्मी और लू के प्रकोप का सामना दुनिया के अन्य देशों को भी करना पड़ रहा है। निःसंदेह मानसून राहत देगा, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मौसम में अप्रत्याशित बदलाव खतरे की एक घंटी है। पर्यावरणविदों के अध्ययनों के आधार पर यह पहले ही साफ हो चुका था कि 2024 में गर्मी ज्यादा पड़ने वाली है। पर्यावरणविदों के अनुसार इस वर्ष एल नीनो का असर होगा और फिर उसके तत्काल बाद ला नीना का भी। एल नीनो गर्मी को बढ़ाएगा तो ला नीना शीतकालीन परिस्थितियों को और गंभीर कर देगा।

एक अध्ययन के अनुसार, 2023 में एल नीनो ने पिछले साल जुलाई को अत्यधिक गर्म किया। वैसे ही हालात इस साल जून के आसपास दिखे। अपने देश में देखें तो दिल्ली में तापक्रम 50 के आसपास पहुंच गया। अन्य शहरों में भी इसी के आसपास तामपान पहुंचा। पहाड़ों में भी गर्मी बढ़ी तो जैसलमेर में तापमान ने 55 का आंकड़ा छू लिया। अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि 2024 तापक्रम वृद्धि को लेकर अच्छा नहीं कहा जा सकेगा। 2016 से 2019 के तीन साल के लंबे दौर के बाद 2023 में ही एल नीनो दूसरी बार आया और दिसंबर 2023 में यह अपने चरम पर था। समुद्री वायुमंडल के हालात बिगड़ने के कारण अगस्त 2024 में यह और प्रभाव डालेगा। इसके तुरंत बाद ला नीना के प्रभाव की आशंका है।

इस बार जापान और मेक्सिको में बसंत से पहले ही फूल खिलने लगे थे। इसी तरह यूरोप में फरवरी-मार्च में ही हिमखंड पिघलने लगे। इसी समय अमेरिका के टेक्सास में तापक्रम 38 के पार चला गया था। भारत में भी गर्मी के जल्दी आने से वनों की आग ज्यादा घातक हो गई। जापान से मेक्सिको तक तापक्रम की वृद्धि पिछले कई महीनों से लगातार बढ़ रही है और परिस्थितिकी में कुछ बड़े मूलभूत परिवर्तन आ रहे हैं। अपने देश में जनवरी- फरवरी कुछ इस तरह से बीते, जैसे बसंत आ गया हो। बीते जाड़े में भी ठंड का अधिक प्रभाव नहीं था।

वास्तव में लगातार लंबे समय से मौसम के व्यवहार का सही अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा है। देश में बसंत वाली गर्मी पहले ही आ गई थी और उसने वनाग्नि जैसे दावानल के लिए दरवाजे खोल दिए। यह भी संज्ञान में लेना जरुरी है कि पश्चिमी विक्षोभ, जो पहले नवंबर-दिसंबर के महीने में आता था, इस बार फरवरी के अंत या मार्च के पहले सप्ताह में ही दिखाई दे गया। यह एक बहुत बड़ा लक्षण है कि अब मौसम का समयानुसार प्रभाव नहीं रहा। मौसम के अनुकूल न होने के कारण हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर असर पड़ रहा है। इसके असर को खेती-बाड़ी से लेकर वनों में बढ़ती हुई आग को लेकर देखा जा सकता है। इसके साथ तूफान और बाढ़ कब आ जाए, इसकी कल्पना नहीं की जा सकेगी। मौसम विभाग अब आने वाले समय में मौसम के हालात का सटीक विश्लेषण मुश्किल से कर पाएगा।

मौसम में अप्रत्याशित बदलाव का सीधा असर पूरे आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकी तंत्र पर पढ़ना तय है। तापक्रम के बढ़ने के कारण इसका असर वन्य जीव से लेकर मनुष्यों पर दिखाई देगा। कई तरह की बीमारियां भी पनपेंगी। खास तौर से वे, जो उमस के कारण आती हैं। उमस भरी गर्मी को झेलने के लिए एसी का उपयोग वातावरण में और गर्मी तो पैदा करेगा ही, वायु प्रदूषण के हालात और भी गंभीर हो जाएंगे, जो सीधे ही पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर डालेंगे। इसका सीधा मतलब है कि जल, जंगल, जमीन बढ़ते तापक्रम के कारण आदर्श व्यवहार नहीं कर पाएंगे।

एक लंबे समय से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहा है, लेकिन हम चेत नहीं रहे हैं। यह कड़वा सच है कि अब हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं बचा कि हम अपनी पुरानी परिस्थितियों को वापस ला पाएं। हम जहां हालात को ले जा चुके हैं, वहां से हमारी वापसी 5 से 10 प्रतिशत ही बची है। इसका कारण यह है कि हम अपने जीवन को आरामदेह बनाने में लगे हैं। आरामदायक जीवनशैली आज की आवश्यकता बन गई है, लेकिन हम यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि आधुनिक जीवन शैली के चलते हमने पृथ्वी के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को अपने प्रतिकूल बना लिया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर धरती को प्रतिकूल मौसम से बचाना मुश्किल हो जायेगा। इतना तो हमारी समझ में आना ही चाहिए कि हम पृथ्वी को उतना ही भोगें, जितना उसमें जोड़ पाएं। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हमने पृथ्वी से जितना कुछ लिया है, उसका पांच प्रतिशत भी उसे वापस नहीं कर पाए हैं।

हम अपने काम का तो नफा-नुकसान जांचते हैं, पर धरती के पारिस्थितिकी तंत्र के हिसाब-किताब में फेल हैं। प्रकृति के पास कई तरीके हैं कि वह हमें रास्ते पर लाए। कुछ भी अप्रत्याशित रूप में प्रकट होगा, जो हमसे कुछ न कुछ छीन लेगा। कोविड की मार तो याद होगी ही, जिसकी हमने कभी कल्पना नहीं की थी। वह प्रकृति कहर ही था, जिसने हमें बताया था कि हमें समय रहते अपनी सीमाएं तय कर लेनी चाहिए। प्रकृति हमारी मनमानी ज्यादा सहन नहीं करेगी। हम सुनार की तरह ही गए हैं, जो जीवन को चमक-दमक देखते हैं, जबकि प्रकृति लोहार की तरह है, जो तप-खप कर बनी है। यह कहावत तो हमें पता ही होगी कि सौ सुनार की और एक लोहार की। मतलब टुकड़ों- टुकड़ों में हमारी चोटों के बदले लोहार की एक ही चोट हमें नेस्तनाबूद करने के लिए काफी होगी।

(लेखक पर्यावरणविद् हैं)