विचार: राष्ट्रीय हितों के आड़े न आएं दलगत हित, एक सहमति विकसित करने की आवश्यकता
मौजूदा परिस्थितियों में यह श्रेयस्कर ही रहा कि भारत ने तालिबान के विदेश मंत्री मुत्तकी की मेजबानी की। हालांकि उनके दौरे के दौरान कुछ विवाद भी उभरे, जिनसे बचा जा सकता था। इसके लिए सरकार को बस इतना करना था कि वह राजनीतिक दलों को सूचित कर उन्हें भरोसे में लेती कि वर्तमान परिदृश्य में अफगानिस्तान में भारत की पैठ के क्या मायने हैं और वह कितनी महत्वपूर्ण है?
HighLights
राष्ट्रीय हित दलगत हितों से ऊपर
विपक्ष का नकारात्मक रवैया हानिकारक
विदेश नीति पर सहमति जरूरी
विवेक काटजू। नवंबर 2014 में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जन्म-जयंती पर तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था, ‘नीतियों पर उनके साथ हमारे मतभेद थे, लेकिन उनकी नीयत पर कभी कोई संदेह नहीं था।’ भारतीय राजनीतिक वर्ग को ये महत्वपूर्ण शब्द आत्मसात करने की आवश्यकता है। आज यह आवश्यक है कि राष्ट्रीय एवं विदेश नीति के मुद्दों पर दृष्टिकोण में भिन्नता होने पर भी दूसरों की देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर संदेह न किया जाए। हमें उससे आगे बढ़कर देखना होगा। वास्तव में, नीतियों और दृष्टिकोणों में मतभेद घटाने और देश को आगे बढ़ाने के लिए एक सहमति विकसित करने की आवश्यकता है।
आज यह सब क्यों आवश्यक है? देश लगभग दो दशकों से चली आ रही कटुतापूर्ण राजनीति के उतार-चढ़ाव को और अधिक नहीं झेल सकता। इसका कारण यह है कि देश को अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से विश्व व्यवस्था में उथल-पुथल के कारण आर्थिक एवं वाणिज्यिक मोर्चे पर अनिश्चितताओं का सामना कर रहा है। इसके अलावा, अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के कारण विकट भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक चुनौतियां भी हैं। राष्ट्रीय हितों के दृष्टिकोण से भारत के आसपड़ोस में भी स्थितियां उसके लिए बहुत सुगम एवं अनुकूल नहीं हैं।
यदि भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनना है, तो सभी लोगों को एक साथ कदम बढ़ाते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने के लिए अपने संकीर्ण हितों को आड़े नहीं आने देना होगा। एक ही दिशा में आगे बढ़ने का यह अर्थ भी नहीं कि इससे लोकतंत्र का अवमूल्यन या संविधान से विचलन हो। वास्तव में राजनीतिक बिरादरी पर यह दायित्व है कि वह लोगों के समक्ष विकल्प प्रस्तुत करे और लिए गए निर्णयों पर आगे बढ़ने की राह प्रशस्त की जाए। ये निर्णय भविष्य की दृष्टि वाली नीतियों की ओर उन्मुख कर सकते हैं। यह पूरी तरह भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप होगा। वास्तव में, संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का खंड ही राष्ट्रीय नीतियों और कार्यों के लिए स्पष्ट रूप से दिशानिर्देश प्रदान करता है। कोई भी तार्किक सोच वाला भारतीय इससे असहमत नहीं हो सकता।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में है। यह जल्द ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी और दशक के अंत तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा भी प्राप्त कर लेगी। यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। इसके बावजूद राजनीतिक वर्ग को अमीर-गरीब के बीच चौड़ी हो रही असमानता की खाई को पाटने के प्रयासों पर भी सहमति बनानी होगी। यह राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुरूप होगा। इससे आर्थिकी को भी बल मिलेगा और सामाजिक एकता सशक्त होगी। असल में सभी वर्गों में इस भावना का प्रसार बहुत आवश्यक है कि वे इस समाज और देश के उतने ही अहम हिस्से हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने देश की कमान संभालते ही भारतीय समाज के एक साथ आगे बढ़ने की इस आवश्यकता को महसूस किया। यही कारण है कि उन्होंने ‘सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास और सबका प्रयास’ जैसा आह्वान किया। अब आवश्यक यही है राजनीतिक वर्ग इसे मूर्त रूप देने को लेकर गंभीरता से मंत्रणा करे। यह तभी संभव है जब सभी दलों के नेता निजी हमले और व्यक्तिगत छींटाकशी छोड़कर देश के समक्ष चुनौतियों पर विचार कर उनके समाधान की कोई राह खोजें। चुनावी प्रतिस्पर्धा और व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्यों में अंतर करना जरूरी है।
मौजूदा दौर में ट्रंप की नीतियों से मची उथल-पुथल पर भी विचार आवश्यक है। उन्होंने भारतीय निर्यातों पर भारी टैरिफ लगाया है। इसके चलते खासतौर से वे उद्योग दबाव में हैं, जहां श्रम की भारी खपत होती है।
अतीत में ऐसी राष्ट्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए बड़ी खामोशी के साथ राय-मशविरा कर उनके निदान का प्रयास किया जाता रहा। ऐसा नहीं कि तब दलगत राजनीतिक हित आड़े न आए हों, लेकिन वे कभी इतने बड़े नहीं हुए कि राष्ट्रीय हितों पर भारी पड़ जाएं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में कई अवसर आए हैं, जब नेताओं के बीच ‘संवाद’ हुआ और भविष्य की कार्ययोजनाएं तय की गईं। मैं स्वयं इसका साक्षी रहा हूं। मिसाल के तौर पर भारत ने 1997 में पाकिस्तान के साथ संवाद शुरू किया। उससे पहले लगभग चार वर्ष ऐसे बीते जब पाकिस्तान भारत के साथ संवाद का इच्छुक नहीं था। यह बेनजीर भुट्टो की सत्ता का दौर था। भुट्टो के बाद 1997 में सत्ता में आए नवाज शरीफ ने भारत से बातचीत की इच्छा जताई। तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने तब सभी राजनीतिक दलों से परामर्श किया और यह सहमति बनी कि भारत को पाकिस्तान से बात करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।
बाद में, सरकारों ने यह सुनिश्चित किया कि चीन के साथ कूटनीतिक जुड़ाव की जानकारी भी सभी दलों से साझा की जाए और उनके विचारों पर सरकार गौर भी करे। विचारों का यह विनिमय और संवाद प्रक्रिया की निरंतरता अब और आवश्यक हो गई है, क्योंकि दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। परिवर्तनों की इस बयार के बीच भारत की नैया को दिशा देना आसान काम नहीं है। इसीलिए संवाद के आधार पर आकार लेने वाली राष्ट्रीय सहमति अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यही संदेश देगी कि पूरा देश नीतिगत विचारों और दृष्टिकोण के मामले में सरकार के पीछे मजबूती से खड़ा है। अपने निकट ही देखें तो चीन बहुस्तरीय कूटनीतिक प्रयासों में लगा है। इस कड़ी में चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश और चीन-पाकिस्तान-अफगानिस्तान संवाद की राह खुल रही है। भारत को इससे सतर्क रहना होगा।
मौजूदा परिस्थितियों में यह श्रेयस्कर ही रहा कि भारत ने तालिबान के विदेश मंत्री मुत्तकी की मेजबानी की। हालांकि उनके दौरे के दौरान कुछ विवाद भी उभरे, जिनसे बचा जा सकता था। इसके लिए सरकार को बस इतना करना था कि वह राजनीतिक दलों को सूचित कर उन्हें भरोसे में लेती कि वर्तमान परिदृश्य में अफगानिस्तान में भारत की पैठ के क्या मायने हैं और वह कितनी महत्वपूर्ण है? संभव है कि वे इससे सहमत भी होते। इसके बावजूद इसका यह अर्थ भी न निकाला जाए कि तालिबान की मानवाधिकार नीतियों पर भारत आपत्ति नहीं जता सकता।
(लेखक कई देशों में भारत के राजदूत रहे हैं)













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